शतरंज के खिलाड़ी मुंशी प्रेमचंद जी की हिन्दी कहानी है। इसकी रचना उन्होने अक्टूबर 1924 में की थी और यह ‘माधुरी’ पत्रिका में छपी थी। 1977 में सत्यजीत राय ने इसी नाम से इस कहानी पर आधारित एक हिन्दी फिल्म भी बनायी है।
मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी शतरंज के खिलाड़ी में 1857 के संग्राम से पूर्व की अवध की स्थिति का चित्रण किया गया है। प्रेमचंद जी ने इस कहानी में उस समय के सामंती समाज की पतनशीलता को आधार बनाया है और दो विशिष्ट चरित्रों मीर और मिरज़ा के माध्यम से उच्च सामंतीवर्ग की विलासिता को अभिव्यक्ति दी है ।
शतरंज के खिलाड़ी | कहानी के प्रमुख पात्र
शतरंज के खिलाड़ी कहानी के प्रमुख पात्र मिरज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली हैं। दोनों वाजिदअली शाह के जागीरदार हैं। जीवन की बुनियादी ज़रूरतों के लिए उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। दोनों गहरे मित्र हैं और शतरंज खेलना उनका मुख्य कारोबार है।
शतरंज के खिलाड़ी | कहानी – मुंशी प्रेमचंद
वाजिदअलीशाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजोता था, तो कोई अफीम की पीनक ही के मजे लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था। शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धन्धों में, आहार-व्यवहार में, सर्वत्र विलासिता, व्याप्त-हो रही थी। राज कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कल बत्तू और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र, मिस्सी और उबटन का रोजगार करने में लिप्त थे।
सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी। बटेर लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के लिए पाल बदी जा रही है। कहीं चौसर बिछी हुई है; पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फकीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफीम खाते या मदक पीते।
शतरंज, ताश, गजीफा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है। पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है, ये दलीलें जोर के साथ पेश की जाती थी (इस संप्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी खाली नहीं है)। इसलिए अगर मिर्जा सज्जादअली और मीर रौशनअली अपना अधिकांश समय बुद्धि तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसो जागीरें थी, जीविका की, कोई चिन्ता न थी; घर में बैठे चखौतियाँ करते थे।
आखिर और करते ही क्या! प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछाकर बैठ जाते, मुहरे सज जाते, और लड़ाई के दाव-पेंच होने लगते। फिर खबर न होती थी कि कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम। घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता—खाना तैयार है। यहाँ से जवाब मिलता––चलो, आते हैं; दस्तरख्वान बिछाओ। यहाँ तक कि बावरची विवश होकर कमरे ही में खाना रख जाता था, और दोनों मित्र दोनों काम साथ-साथ करते थे।
मिर्जा सजादअली के घर में कोई बड़ा-बूढ़ा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानखाने में बाजियाँ होती थीं; मगर यह बात न थी, कि मिर्जा के घर के और लोग उनके इस व्यवहार से खुश हों। घरवालों का तो कहना ही क्या, महल्लेवाले, घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेष-पूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे—बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। खुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े। आदमी दीन-दुनियाँ किसी के काम का नहीं रहता, न घर का न घाट का। बुरा रोग है।
यहाँ तक कि मिर्जा की बेगम साहबा को इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोजकर पति को लताड़ती थी। पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोती ही रहती थीं, तब तक उधर बाजी बिछ जाती थी। और रात को जब सो जाती थीं, तब कहीं मिर्जाजी भीतर आते थे। हाँ नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं—क्या पान माँगे हैं? कह दो आकर ले जायँ। खाने की भी फुर्सत नहीं है। ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खायँ, चाहे कुत्ते को खिलावें। पर रूबरू वह भी कुछ न कह सकती थीं। उनको अपने पति से उतना मलाल न था जितना मीरसाहब से। उन्होंने उनका नाम मीर बिगाड़, रख छोड़ा था, शायद मिर्जाजी अपनी सफाई देने के लिए सारा इल्जाम मीर साहब ही के सिर थोप देते थे।
एक दिन बेगम साहबा के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा-जाकर मिर्जी साहब को बुला ला। किसी हकीम के यहाँ से दवा खावें। दौड़, जल्दी कर। लौंडी गयी,तो मिर्जाजी ने कहा-चल, अभी आते हैं। बेगम साहबा का मिजाज गरम था। इतनी सब कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो,और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख हो गया। लौंडी से कहा-जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जाएँगी। मिर्जाजी बड़ी दिलचस्प बाजी खेल रहे थे; दो ही किश्तों में मीर साहब को मात हुई जाती थी। झुँझलाकर बोले-क्या ऐसा दम लबों पर है? जरा सब्र नहीं होता?
मीर-अरे तो जाकर सुन ही आइए न। औरतें नाजुक-मिजाज होती ही हैं।
मिर्जा-जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ! दो किश्तों में आपको मात होती है।
मीर-जनाब, इस भरोसे न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें, और मात हो जाय। पर जाइए, सुन आइए, क्यों ख्वाहमख्वाह उनका दिल दुखाइएगा?
मिर्जा इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।
मीर-मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।
मिर्जा-अरे यार, बाना पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द खाक नहीं है; मुझे परेशान करने का बहाना है।
मीर-कुछ भी हो, उनकी खातिर तो करनी ही पड़ेगी।
मिर्जा-अच्छा, एक चाल और चल लूँ।
मीर-हर्गिज़ नहीं, जब तक आप सुन न आवेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊँगा।
मिर्जा साहब मजबूर होकर अन्दर गये, तो बेगम साहबा ने त्योरियाँ बदलकर, लेकिन कराहते हुए कहा-तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी
है! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नहीं लेते! नौज कोई तुम-जैसा आदमी हो!
मिर्जा-क्या कहूँ, मीर साहब मानते हो न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ।
बेगम-क्या जैसे वह खुद निखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं? उनके भी तो बाल-बच्चे हैं; या सबका सफाया कर डाला?
मिर्जा-बड़ालती आदमी है। जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना ही पड़ता है।
बेगम-दुत्कार क्यों नहीं देते?
मिर्जा-बराबर के आदमी हैं, उम्र में, दर्जे में मुझसे दो अगुल ऊँचे। मुलाहिजा करना ही पड़ता है।
बेगम-तो मैं ही दुत्कारे देती हूँ। नाराज हो जायँगे, हो जायँ। कौन किसी की रोटियाँ चला देता है। रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी। हिरिया, जा, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेगे, आप तशरीफ ले जाइए।
मिर्जों-हाँ-हाँ, कहाँ ऐसा गजब भी न करना! जलील करना चाहती हो क्या! ठहर हिरिया कहाँ जाती है।
बेगम-जाने क्यों नहीं देते। मेरा ही खून पिये, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको, तो जानूँ।
यह कहकर बेगम साहबा झल्लायी हुयी दीवानखाने की तरफ चली। मिर्जा बेचारे का रंग उड़ गया। बीबी की मिन्नतें करने लगे-‘खुदा के लिए, तुम्हें हजरत हुसेन की कसम। मेरो ही मैयत देखे, जो उधर जाय! लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानखाने के द्वार तक मूयी पर एका-एक पर-पुरुषः के सामने जाते हुए पाँव बँध-से गये। भीतर झाँका। संयोग से कमरा खाली था।
मीर साहब ने दो एक मुहरे इधर-उधर कर दिये थे, और अपनी सफाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अंदर पहुँचकर बाजी उलट दी; मुहरे कुछ तख्त के नीचे फेंक दिये, कुछ बाहर; और किवाड़े अन्दर से बन्द करके कुण्डी लगा दी। मीर साहब दरवाजे पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की भनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाजा बन्द हुआ, तो समझ गये, बेगम साहबा बिगड़ गयीं। चुपके से घर की राह ली।
मिर्जा ने कहा––तुमने ग़ज़ब किया!
बेगम––अब मीर साहब इधर आये, तो खड़े-खड़े निकलवा दूॅगी। इतना लौ खुदा से लमाते, तो क्या गरीब हो जाते! आप तो शतरंज खेलें, और मै यहाँ चूल्हे-चक्की की फ़िक्र में सिर खपाऊँ! ले जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है?
मिर्ज़ा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे, और सारा वृत्तांत कहा। मीर साहब बोले––मैंने तो जब मुहरे बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया। फौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। मगर आपने उन्हें यों सिर चढ़ा रखा है, यह मुनासिब नहीं। उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं। घर का इन्तजाम करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार?
मिर्जा––खैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा?
मीर––इसका क्या ग़म––इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है। बस यहीं जमे।
मिर्जा––लेकिन बेगम साहबा को कैसे मनाऊँगा? जब घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना बिगड़ती थीं; यहाँ बैठक होगा, तो शायद जिन्दा न छोड़ेंगी।मीर––अजी, बकने भी दीजिए; दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायँगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए।
मीर साहब की बेगम किसी अज्ञात कारण से उनका घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं। इसी लिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करतीं; बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थी। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यन्त विनयशील और गंभीर है, लेकिन जब दीवानखाने में बिसात बिछने लगी, और मीर साहब दिन-भर घर में रहने लगे तो उन्हें बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी। दिन-भर दरवाजे पर झाँकने को तरस जातीं।
उधर नौकरों में भी काना-फूसी हो लगी। अब तक दिन-भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में चाहे कोई आवे, चाहे कोई जाय, उनसे गुछ मतलब न था। आठों पहर की धौंस हो गयी। कभी पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई का। और हुक्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भॉति नित्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहबा से जा-जाकर कहते-हुजूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गयी! दिन-भर दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये।
यह भी कोई खेल है कि सुबह को बैठे, तो शाम ही कर दी! घड़ी-आध-घड़ी दिल-बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है। खैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुक्म होगा बजा ही लावेंगे; मगर यह खेल मनहूस है। इसका खेलने वाला कभी पनपता नहीं; घर पर कोई-न-कोई आफ़त जरूर आती है। यहाँ तक कि एक के पीछे महल्ले के-महल्ले तबाह होते देखे गये है।
सारे महल्ले में यही चर्चा होती रहती है। हुजूर का नमक खाते हैं, अपने आका की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है। मगर क्या करें! इस पर बेगम साहबा कहतीं-मैं तो खुद इसको पसन्द नहीं करती। पर वहा किसी की सुनते ही नहीं क्या किया जाय! मुहल्ले में भी जो दो-चार पुराने जमाने के लोग थे, वे आपस में भाँति-भाँति के अमंगल को कल्पनाएँ करने लगे-अब खैरियस नहीं है।जन हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा ही हाफिज। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे हैं।
राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फ़रियाद सुननेवाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिंची चली आती थी, और वह वेश्याओं में, भाँड़ों में और विला-सिता के अन्य अगों की पूर्ति में उड़ जाती थी। अँगरेज कंपनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था। कमली दिन-दिन भीगकर भारी होती जाती थी। देश में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था। रेजीडेंट बार-बार चेतावनी देता था; पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे; किसी के कानों पर जूं न रेंगती थी।
खैर, मीर साहब के दीवानखाने में शतरंज होते कई महीने गुज गये। नये-नये नक्शे हल किये जाते; नये-नये किले बनाये जाते; नित. नयी ब्यूह-रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती; तू-तू मैं-मैं तक की नौबत आ जाती। पर शीघ्र ही दोनों मित्रों में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाजी उठा दी जाती; मिर्जाजी रूठकर अपने घर चले आते; मीर साहब अपने घर में जा बैठते। पर रात भर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शान्त हो जाता था। प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानख़ाने में आ पहुँचते थे।
एक दिन दोनों मित्र बैठे शतरंज की दलदल में गोते खा रहे थे कि.इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फौज का अफसर मीर साहब का नाम् पूछता हुआ था पहुँचा। मोर साहब के होश उड़ गये। यह क्या बला सिर पर आयी! यह तलबी किस लिए हुई। अब खैरियत नहीं नज़र आती! भार के दरवाजे बन्द कर लिये। नौकरों से बोले- कह दो, घर में नहीं हैं। सवार––घर में नहीं, तो कहाँ हैं?
नौकर––यह मैं नहीं जानता। क्या काम है?
सवार––काम तुझे क्या बतलाऊॅ? हुजूर में तलबी है––शायद फ़ौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गये हैं। जागीरदार हैं कि दिल्लगी! मोरचे पर जाना पड़ेगा, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा!
नौकर––अच्छा तो जाइए, कह दिया जायगा।
सवार––कहने की बात नहीं है। मैं कल खुद आऊँगा। साथ ले जाने का हुक्म हुआ है।
सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्जाजी से बोले––कहिए जनाब, अब क्या होगा?
मिर्जा––बड़ी मुसीबत है। कहीं मेरी भी तलबी न हो।
मीर––कम्बख्त कल फिर आने को कह गया है!
मिर्जा––आफत है, और क्या! कहीं मोरचे पर जाना पड़ा, तो बेमौत मरे।
मीर––बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलो ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने में नक्शा जमे। वहाँ किसे खबर होगी? हजरत आकर आप लौट जायँगे।
मिर्जा––वल्लाह, आपको खूब सूझी! इसके सिवा और कोई तदबीर नहीं हैं।
इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थीं––तुमने खूब धता बतायी। उसने जवाब दिया––ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अक्ल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली। अब भूलकर भी घर पर न रहेंगे।
दूसरे दिन दोनों मित्र मुँह अंधेरै घर से निकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरो दबाये, डिब्बे में गिलौरियाँ भरे गोमती पारकर एक पुरानी वीरान मसजिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफउद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तम्बाकू, चिलम और मदरिया ले लेते, और मसजिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भरकर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फिक्र न रहती थी। ‘किश्त’, ‘शह’ आदि दो-एक शब्दों के सिवा उनके मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था।
कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता होगा। दोपहर को जब भूख मालूम होती, तो दोनों मित्र किसी नानबाई की दुकान पर जाकर खाना खा आते, और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्रामक्षेत्र में डट जाते। कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी खयाल न रहता था।
इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी। कम्पनी की फ़ौजै लखनऊ की तरफ बढ़ी चली आती थीं। शहर में हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को ले-लेकर देहातों में भाग रहे थे। पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इसकी जरा भी फिक्र न थी। वे घर से आते, तो गलिया में होकर। डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाजिम की निगाह न पड़ जाय, तो बेगार में पकड़ जायँ। हजारों रुपए सालाना की जागीर मुफ्त ही में हजम करना चाहते थे।
एक दिन दोनों मित्र मसजिद के खँडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्जा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर साहब उन्हें किश्त-पर-किश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैनिक आते हुए दिखायी दिये। यह गोरों की फौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी।
मीर साहब बोले––अँगरेजी फौज आ रही है। खुदा खैर करे।
मिर्जा––आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त।
मीर––ज़रा देखना चाहिए––यहीं आड़ में खड़े हो जायँ।
मिर्जा––देख लीजिएगा, जल्दी क्या है, फिर किश्त।। मीर––तोपखाना भी है। कोई पाँच हजार आदमी होंगे। कैसे जवान हैं। लाल बंदरों के-से-मुँह हैं। सूरत देखकर खौफ मालूम होता है।
मिर्जा––जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमे किसी और को दीजिएगा यह किश्त!
मीर––आप भी अजीब आदमी हैं। यहाँ तो शहर पर आफत आयी हुई है, और आपको किश्त की सूझी है! कुछ इसकी भी खबर है कि शहर घिर गया, तो घर कैसे चलेंगे?
मिर्जा––जब घर चलने का वक्त आयेगा, तो देखी जायगी––बह किश्त! बस अबकी शह में मात है।
फौज निकल गयी। दस बजे का समय था। फिर बाजी बिछ गयी।
मिर्जा बोले––आज खाने की कैसी ठहरेगी?
मीर––अजी, आज तो रोजा है। क्या आपको भूख ज्यादा मालूम होती है?
मिर्जा––जी नहीं। शहर में न जाने क्या हो रहा है।
मीर––शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे। हुजूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होंगे।
दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे तो तीन बज गये। अब की मिर्जा जी की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज ही रहा था कि फौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिद अली शाह पकड़ लिये गये थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिये जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूंद भी खून नहीं गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा को पराजय इतनी शांति से, इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं। यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-से-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं। अवध के विशाल देश का नावाब बन्दी बना चला जाता था, और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी।
मिर्जा ने कहा––हुजूर नवाब, साहब को ज़ालिमो ने क़ैद कर लिया है।
मीर––होगा, यह लीजिए शह!
मिर्जा––जनाब जरा ठहरिए। इस वक्त इधर तबीअत नहीं लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक्त खून के आँसू रो रहे होंगे।
मीर––रोया ही चाहें, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा––यह किश्त!
मिर्जा––किसी के दिन बराबर नहीं जाते। कितनी दर्द़नाक हालत है।
मीर––हाँ, सो तो है ही––यह लो, फिर किश्त! बस, अबकी किश्त में मात है। बच नहीं सकते।
मिर्जा––खुदा की क़सम आप बड़े बेदर्द हैं। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नहीं होता। हाय, ग़रीब वाजिदअली शाह!
मीर––पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर जवान-साहब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और मात। लाना हाथ!
बादशाह को लिये हुए सेना समाने से निकल गयी। उनके जाते ही मिर्जा ने फिर बाज़ी बिछा दी। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा––आइए, नवाब साहब के मातम में एक मरसिया कह डालें। लेकिन मिर्जाजी की राजभक्ति, अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी, वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो रहे थे।
शाम हो गयी। खँडहर में चमगादड़ों ने चीख़ना शुरू किया। अजा-बीलें आ-आकर अपने-अपने घोसलों में चिमटीं। पर दोनों खिलाड़ी हटे हुए थे, मानों दो खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हों। तीन बाजियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाजी का रंग भी अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़ निश्चय कर सँभलकर खेलते थे; लेकिन एक-न-एक चाल ऐसी बेढब आ पड़ती थी, जिससे बाज़ी खराब हो जाती था। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और भी उग्र होती जाती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के ग़ज़लें गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानों कोई गुप्त धन पा गये हों।
मिर्जाजी सुन-सुनकर झुँझलाते और हार की झेंप मिटाने के लिए उनकी दाद देते थे। पर ज्यों-ज्यों बाज़ी कमजोर बढ़ती थी, धैर्य-हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे––जनाब, आप चाल न बदला कीजिए। यह क्या कि एक चाल चले और फिर उसे बदल दिया। जो कुछ चलना हो एक बार चल दीजिए। यह आप मुहरे पर ही क्यों हाथ रखे रहते हैं। मुहरे को छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नहीं। आप एक-एक चाल आध-आध घण्टे में चलते हैं। इसकी सनद नहीं जिसे एक चाल चलने में पांच मिनट से ज्यादा लगे, उसकी मात समझी जाय। फिर आपने चाल बदली! चुपके से मुहरा वहीं रख दीजिए।
मीर साहब का फ़रजी पिटता था। बोले––मैने चाल चली ही कब थी,
मिर्जा––आप चाल चल चुके हैं। मुहरा वहीं रख दीजिए––उसी घर में।
मीर––उस घर में क्यों रखूँ? हाथ से मुहरा छोड़ा कब था? मिर्जा––मुहरा आप क़यामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फ़रजी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे!
मीर––धाँधली आप करते हैं। हार-जीत तक़दीर से होती है। धाँधली से कोई नहीं जीतता।
मीर––मुझे क्यों मात होने लगी।
मिर्जा––तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था।
मीर––वहाँ क्यों रखूँ? नहीं रखता।
मिर्जा––क्यों न रखिएगा? आप को रखना होगा।
तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था न वह। अप्रासंगिक बातें होने लगीं। मिर्जा बोले––किसी ने खानदान में शतरंज खेली होती, तब तो इसके कायदे जानते। वे तो हमेशा घास छीला किये, आप शतरंज क्या खेलिएगा। रियासत और ही चीज़ है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नहीं हो जाता।
मीर––क्या! घास आपके अब्बाजान छोलते होंगे! यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते हैं।
मिर्जा––अज़ी जाइए भी, ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के यहाँ बावच का काम करते-करते उम्र गुज़र गयी, आज रईस बनने चले हैं। रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं।
मीर––क्यों अपने बुजुर्गों के मुँह में कालिख लगाते हो––वे ही बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो हमेशा बादशाह दस्तरख्वान पर खाना खाते चले आये हैं।
मिर्जा––अरे चल चरकटे, बहुत बढ़-चढ़कर बातें न कर!
मीर––जबान संभालिए, वर्ना बुरा होगा। मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ; यहाँ तो किसी ने आँखें दिखायीं कि उसकी आँखें निकालीं। है हौसला?
मिर्ज़ा––आप मेरा हौसला देखना चाहते हैं, तो फिर आइए, आज दो-दो हाथ हो जायँ, इधर या उधर।
मीर––तो यहाँ तुमसे दबनेवाला कौन है? दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल ली। नबाबी ज़माना था; सभी तलवार, पेशक़ब्ज, कटार वगैरह बाँधते थे। दोनों विलासी थे; पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था। बादशाहत के लिए क्यों मरें? पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनों ने पैंतरे बदले, तलवारें चमकीं, छपाछप की आवाजें आयीं। दोनों जख्मी होकर गिरे और दोनों में वहीं तड़प-तड़पकर जानें दीं। अपने बादशाह के लिए जिनकी आँखों से एक बूॅद आँसू न निकला, उन्हीं ने शतरंज के वजीर की रक्षा में प्राण दे दिये।
अँधेरा हो चला था। बाज़ी बिछी हुई थी। दोनों बादशाह अपने-अपने सिंहासनों पर बैठे मानो इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे।
चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। खँडहर की टूटी हुई मेहराबें, गिरी हुई दीवारें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखतीं और सिर धुनती थीं।
कहानी से सीख (शिक्षा)
मुंशी प्रेमचंद जी ने इस कहानी में स्वाधीनता-आंदोलन में लगे नेताओं और उनके पीछे चलने वाली जनता को यह सीख दी कि देश और स्वाधीनता के हित में हमे आराम तथा विलास को छोड़ देना चाहिए और अपनी ज़िम्मेदारी को निभाना चाहिए।
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