शाहजहाँ |1592 ई. – 1666 ई.

मुगल वंश के पांचवें और लोकप्रिय शहंशाह शाहजहाँ को दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक ताजमहल के निर्माण के लिए आज भी याद किया जाता हैं। ताजमहल शाहजहां और उनकी प्रिय बेगम मुमताज महल की प्यार की निशानी है। मुगल बादशाह शाहजहां कला एवं वास्तुकला के गूढ़ प्रेमी थे। उन्होंने अपने शासन काल में कला और संस्कृति को जमकर बढ़ावा दिया था, इसी कारण से शाहजहां के युग को स्थापत्यकला का स्वर्णिम युग एवं भारतीय सभ्यता का सबसे समृद्ध काल के रुप में भी जानते हैं।

शाहजहाँ का पूरा नाम मिर्ज़ा साहब उद्दीन बेग़ मुहम्मद ख़ान ख़ुर्रम था। इनका जन्म 5 जनवरी, 1592 ई. लाहौर में और मृत्यु 22 जनवरी, 1666 ई. को आगरा में हुआ था। वह मुग़ल वंश का पांचवा बादशाह था। शाहजहाँ अपनी न्यायप्रियता के कारण बहुत ही लोकप्रिय तो अपनी वैभवविलास के कारण अत्यंत चर्चा में रहा। शाहजहाँ को सम्राट जहाँगीर के मौत के बाद, छोटी उम्र में ही मुग़ल सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में चुन लिया गया था। 1627 ई. में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद वह मुग़ल वंश कि गद्दी पर बैठा।

जीवन परिचय

शाहजहाँ का जन्म जोधपुर के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री ‘जगत गोसाई’ (जोधाबाई) के गर्भ से 5 जनवरी, 1592 ई. को लाहौर में हुआ था। उसका बचपन का नाम ख़ुर्रम था। ख़ुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था। वह बड़ा कुशाग्र बुद्धि, साहसी और शौक़ीन बादशाह था। वह बड़ा कला प्रेमी, विशेषकर स्थापत्य कला का प्रेमी था।

शाहजहाँ

उसके दरबार में देश−विदेश के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति आते थे। वे शाहजहाँ के वैभव और ठाट−बाट को देख कर चकित रह जाते थे। उसके शासन का अधिकांश समय सुख−शांति से बीता था तथा उसके राज्य में ख़ुशहाली रही थी। उसके शासन की सब से बड़ी देन उसके द्वारा निर्मित सुंदर, विशाल और भव्य भवन हैं। उसके राजकोष में अपार धन था। सम्राट शाहजहाँ को सब सुविधाएँ प्राप्त थीं।

परम्परा / नामशाहजहाँ
जन्म5 जनवरी 1592
जन्मस्थानलाहौर, मुग़ल साम्राज्य, अब पाकिस्तान
मृत्यु31 जनवरी 1666
मृत्युस्थानआगरा, मुग़ल साम्राज्य, भारत
पिताजहांगीर
मातामुमताज़ महल (मुमताज़)
शासनकाल1628–1658
परिचयशाहजहाँ भारतीय इतिहास के एक प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण सम्राटों
में से एक है। उन्होंने ताज महल की निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई
थी, जिसे उनकी पत्नी मुमताज़ की स्मृति में बनाया गया था।
प्रमुख योगदान– ताज महल की निर्माण
– लाल किला की निर्माण
– दीवान-ए-ख़ास की निर्माण
– पीता आख़ारा की निर्माण
धर्मइस्लाम
श्रद्धासूफी तारिक़ात (चिश्ती और सुहरवर्दी)
संतानदारा शिकोह
जहांगीर
शाहराख़
मुराद
आवासदिल्ली, आगरा
शाहजहाँ के महत्वपूर्ण जीवनी तथ्यों की संक्षिप्त रूप में प्रस्तुति।

शाहजहां- मुमताज की अमर प्रेम कहानी

साल 1612 ई. में खुर्रम उर्फ शाहजहां का विवाह आसफ खान की पुत्री अरजुमंद बानो बेगम (मुमताज महल) से हुआ था, जिसे शाहजहां ने ”मलिका-ए-जमानी’ की उपाधि प्रदान की थी।  इनके अलावा भी शौकीन शाहजहां की कई और पत्नियां थी।

लेकिन मुमताज बेगम उनकी सबसे प्रिय पत्नी और बेहद खूबसूरत पत्नी थी। शाहजहां ने उनकी खूबसूरती से प्रभावित होकर  उनका नाम अरजुमंद बानो बेगम से बदलकर मुमताज रख दिया था, जिसका अर्थ होता है – महल का सबसे कीमती नगीना!

ऐसा कहा जाता है किे मुमताज से शाहजहां इस कदर प्रेम करता थे कि वह उससे बिल्कुल भी दूर नहीं रह सकते थे, और उसे अपने हर दौरे पर साथ ले जाया करता थे, यही नहीं अपने राज-काज के हर काम भी उनकी सलाह से करते थे। वहीं कई इतिहासकारों के मुताबिक मुमताज की मुहर के बगैर शाही फरमान तक जारी नहीं करते थे।

शाहजहाँ |1592 ई. - 1666 ई.

वहीं साल 1631 में शहंशाह शाहजहां की ताजपोशी के महज 3 सालों बाद अपनी 14वीं संतान को जन्म देते वक्त प्रसव पीड़ा की वजह से उनकी मृत्यु हो गई थी, अपने प्रिय बेगम की मौत से शाहजहां बेहद टूट गए थे।

ऐसा भी कहा जाता है कि मुमताज की मौत के बाद करीब 2 साल तक शहंशाह शोक बनाते रहे थे। इस दौरान रंगीन मिजाज के शहंशाह ने अपने सारे शौक त्याग दिए थे, न तो उन्होंने शाही लिबास पहने और न ही शाही जलसे में वे शामिल हुए थे।

मनसब व उपाधि

1606 ई. में शाहज़ादा ख़ुर्रम को 8000 जात एवं 5000 सवार का मनसब प्राप्त हुआ था। 1612 ई. में ख़ुर्रम का विवाह आसफ़ ख़ाँ की पुत्री आरज़ुमन्द बानों बेगम ( मुमताज़ महल) से हुआ, जिनको शाहजहाँ ने ‘मलिका-ए-जमानी’ की उपाधि प्रदान कर रखी थी। 1631 ई. में प्रसव पीड़ा के कारण उसकी मृत्यु हो गई। आगरा में उसके शव को दफ़ना कर उसकी याद में संसार प्रसिद्ध ताजमहल का निर्माण कराया गया। शाहजहाँ की प्रारम्भिक सफलता के रूप में 1614 ई. में उसके नेतृत्व में मेवाड़ विजय को माना जाता है। 1616 ई. में शाहजहाँ द्वारा दक्षिण के अभियान में सफलता प्राप्त करने पर उसे 1617 ई. में जहाँगीर ने ‘शाहजहाँ’ की उपाधि प्रदान की थी।

शाहजहाँ का शानो-शौक़त

शाहजहाँ ने सन् 1648 में आगरा की बजाय दिल्ली को राजधानी बनाया, परन्तु उसने आगरा की कभी उपेक्षा नहीं की। उसके प्रसिद्ध निर्माण कार्य आगरा में भी थे। शाहजहाँ का दरबार सरदार सामंतों, प्रतिष्ठित व्यक्तियों तथा देश−विदेश के राजदूतों से भरा रहता था। उसमें सबके बैठने के स्थान निश्चित थे। जिन व्यक्तियों को दरबार में बैठने का सौभाग्य प्राप्त था, वे अपने को धन्य मानते थे और लोगों की दृष्टि में उन्हें गौरवान्वित समझा जाता था। जिन विदेशी सज्ज्नों को दरबार में जाने का सुयोग प्राप्त हुआ था, वे वहाँ के रंग−ढंग, शान−शौक़त और ठाट−बाट को देख कर आश्चर्य किया करते थे। तख्त-ए-ताऊस शाहजहाँ के बैठने का राजसिंहासन था।

सिंहासन के लिए साज़िश

नूरजहाँ के रुख़ को अपने प्रतिकूल जानकर शाहजहाँ ने 1622 ई. में विद्रोह कर दिया, परन्तु इस विद्रोह में वह पूर्णतः असफल रहा। 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु के उपरान्त शाहजहाँ ने अपने ससुर आसफ़ ख़ाँ को यह निर्देश दिया, कि वह शाही परिवार के उन समस्त लोगों को समाप्त कर दें, जो राज सिंहासन के दावेदार हैं।

जहाँगीर की मृत्यु के बाद शाहजहाँ दक्षिण में था। अतः उसके श्वसुर आसफ़ ख़ाँ ने शाहजहाँ के आने तक ख़ुसरों के लड़के दाबर बख़्श को गद्दी पर बैठाया। शाहजहाँ के वापस आने पर दाबर बख़्श का क़त्ल कर दिया गया। इस प्रकार दाबर बख़्श को बलि का बकरा कहा जाता है। आसफ़ ख़ाँ ने शहरयार, दाबर बख़्श, गुरुसस्प (ख़ुसरों का लड़का), होशंकर (शहज़ादा दानियाल के लड़के) आदि का क़त्ल कर दिया।

राज्याभिषेक

24 फ़रवरी, 1628 ई. को शाहजहाँ का राज्याभिषेक आगरा में ‘अबुल मुजफ्फर शहाबुद्दीन, मुहम्मद साहिब किरन-ए-सानी’ की उपाधि के साथ किया गया। विश्वासपात्र आसफ़ ख़ाँ को 7000 जात, 7000 सवार एवं राज्य के वज़ीर का पद प्रदान किया। महावत ख़ाँ को 7000 जात 7000 सवार के साथ ‘ख़ानख़ाना’ की उपाधि प्रदान की गई। नूरजहाँ को दो लाख रु. प्रति वर्ष की पेंशन देकर लाहौर भेज दिया गया, जहाँ सन 1645 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

शाहजहाँ की धार्मिक नीति

सम्राट अकबर ने जिस उदार धार्मिक नीति के कारण अपने शासन काल में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की थी, वह शाहजहाँ के काल में नहीं थी। उसमें इस्लाम धर्म के प्रति कट्टरता और कुछ हद तक धर्मान्धता थी। वह मुसलमानों में सुन्नियों के प्रति पक्षपाती और शियाओं के लिए अनुदार था। उसके अन्दर हिन्दू जनता के प्रति सहिष्णुता एवं उदारता नहीं थी। शाहजहाँ ने खुले आम हिन्दू धर्म के प्रति विरोध भाव प्रकट तो नहीं किया, तथापि वह अपने अंत:करण में हिन्दुओं के प्रति असहिष्णुता एवं अनुदारता का भाव रखता था।

शाहजहाँ के समय में हुए विद्रोह

जितने भी मुग़ल शासक हुए, लगभग सभी मुग़ल शासकों के शासनकाल में विद्रोह हुए थे। और शाहजहाँ का शासनकाल भी इन विद्रोहों से अछूता नहीं रहा। उसके शासनकाल के समय होने वाले निम्नलिखित विद्रोह प्रमुख थे-

बुन्देलखण्ड का विद्रोह (1628-1636ई.)

वीरसिंह बुन्देला के पुत्र जुझार सिंह ने प्रजा पर कड़ाई कर बहुत-सा धन एकत्र कर लिया था। एकत्र धन की जाँच न करवाने के कारण शाहजहाँ ने उसके ऊपर 1628 ई. में आक्रमण कर दिया। 1629 ई. में जुझार सिंह ने शाहजहाँ के सामने आत्मसमर्पण कर माफी माँग ली। लगभग 5 वर्ष की मुग़ल वफादरी के बाद जुझार सिंह ने गोंडवाना पर आक्रमण कर वहाँ के शासक प्रेम नारायण की राजधानी ‘चैरागढ़’ पर अधिकार कर लिया। 

औरंगज़ेब के नेतृत्व में एक विशाल मुग़ल सेना ने जुझार सिंह को परास्त कर भगतसिंह के लड़के देवीसिंह को ओरछा का शासक बना दिया। इस तरह यह विद्रोह 1635 ई. में समाप्त हो गया। चम्पतराय एवं छत्रसाल जैसे महोबा शासकों ने बुन्देलों के संघर्ष को जारी रखा।

ख़ानेजहाँ लोदी का विद्रोह (1628-1631 ई.)

पीर ख़ाँ ऊर्फ ख़ानेजहाँ लोदी एक अफ़ग़ान सरदार था। इसे शाहजहाँ के समय में मालवा की सूबेदारी मिली थी। 1629 ई. में मुग़ल दरबार में सम्मान न मिलने के कारण अपने को असुरक्षित महसूस कर ख़ानेजहाँ अहमदनगर के शासक मुर्तजा निज़ामशाह के दरबार में पहुँचा। निज़ामशाह ने उसे ‘बीर’ की जागीरदारी इस शर्त पर प्रदान की, कि वह मुग़लों के क़ब्ज़े से अहमदनगर के क्षेत्र को वापस कर दें।

1629 ई. में शाहजहाँ के दक्षिण पहुँच जाने पर ख़ानेजहाँ को दक्षिण में कोई सहायता न मिल सकी, अतः निराश होकर उसे उत्तर-पश्चिम की ओर भागना पड़ा। अन्त में बाँदा ज़िले के ‘सिंहोदा’ नामक स्थान पर ‘माधोसिंह’ द्वारा उसकी हत्या कर दी गई। इस तरह 1631 ई. तक ख़ानेजहाँ का विद्रोह समाप्त हो गया।

पुर्तग़ालियों के बढ़ते प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से शाहजहाँ ने 1632 ई. में उनके महत्त्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र ‘हुगली’ पर अधिकार कर लिया। शाहजहाँ के समय में (1630-32) दक्कन एवं गुजरात में भीषण दुर्भिक्ष (अकाल) पड़ा, जिसकी भयंकरता का उल्लेख अंग्रेज़ व्यापारी ‘पीटर मुंडी’ ने किया है। शाहजहाँ के शासन काल में ही सिक्ख पंथ के छठें गुरु हरगोविंद सिंह से मुग़लों का संघर्ष हुआ, जिसमें सिक्खों की हार हुई।

साम्राज्य विस्तार

दक्षिण भारत में शाहजहाँ के साम्राज्य विस्तार का क्रम इस प्रकार है-

अहमदनगर

जहाँगीर के राज्य काल में मुग़लों के आक्रमण से अहमदनगर की रक्षा करने वाले मलिक अम्बर की मृत्यु के उपरान्त सुल्तान एवं मलिक अम्बर के पुत्र फ़तह ख़ाँ के बीच आन्तरिक कलह के कारण शाहजहाँ के समय महावत ख़ाँ को दक्कन एवं दौलताबाद प्राप्त करने में सफलता मिली। 1633 ई. में अहमदनगर का मुग़ल साम्राज्य में विलय किया गया और नाममात्र के शासक हुसैनशाह को ग्वालियर के क़िले में कारावास में डाल दिया गया।

इस प्रकार निज़ामशाही वंश का अन्त हुआ, यद्यपि शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले ने 1635 ई. में मुर्तजा तृतीय को निज़ामशाही वंश का शासक घोषित कर संघर्ष किया, किन्तु सफलता हाथ न लगी। चूंकि शाहजी की सहायता अप्रत्यक्ष रूप से गोलकुण्डा एवं बीजापुर के शासकों ने की थी, इसलिए शाहजहाँ इनको दण्ड देने के उद्देश्य से दौलताबाद पहुँचा। गोलकुण्डा के शासक ‘अब्दुल्लाशाह’ ने डर कर शाहजहाँ से निम्न शर्तों पर संधि कर ली-

  1. बादशाह को 6 लाख रुपयें का वार्षिक कर देने मंज़ूर किया।
  2. बादशाह के नाम से सिक्के ढलवाने एवं ख़ुतबा (उपदेश या प्रशंसात्मक रचना) पढ़वाने की बात मान ली।
  3. साथ ही बीजापुर के विरुद्व मुग़लों की सैन्य कार्रवाई में सहयोग की बात को मान लिया।
  4. गोलकुण्डा के शासक ने अपने पुत्री का विवाह औरंगज़ेब के पुत्र मुहम्मद से कर दिया।
  5. मीर जुमला (फ़ारस का प्रसिद्ध व्यापारी) जो गोलकुण्डा का वज़ीर था, मुग़लों की सेना में चला गया और उसने शाहजहाँ को विसो प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा भेट किया।

बीजापुर

बीजापुर के शासक आदिलशाह द्वारा सरलता से अधीनता न स्वीकार करने पर शाहजहाँ ने उसके ऊपर तीन ओर से आक्रमण किया। बचाव का कोई भी मार्ग न पाकर आदिलशाह ने 1636 ई. में शाहजहाँ की शर्तों को स्वीकार करते हुए संधि कर ली। संधि की शर्तों में बादशाह को वार्षिक कर देना, गोलकुण्डा को परेशान न करना, शाहजी भोंसले की सहायता न करना आदि शामिल था। इस तरह बादशाह शाहजहाँ 11 जुलाई, 1636 ई. को औरंगज़ेब को दक्षिण का राजप्रतिनिधि नियुक्त कर वापस आ गया।

दक्षिणी मुग़ल प्रदेश का विभाजन

औरंगज़ेब 1636-1644 ई. तक दक्षिण का सूबेदार रहा। इस बीच उसने औरंगबाद को मुग़लों द्वारा दक्षिण में जीते गये प्रदेशों की राजधानी बनाया। इसने दक्षिण के मुग़ल प्रदेश को निम्न सूबों में विभाजित किया-

  1. ख़ानदेश- इसकी राजधानी ‘बुरहानपुर’ थी। इसके पास असीरगढ़ का शक्तिशाली क़िला था।
  2. बरार- इसकी राजधानी ‘इलिचपुर’ थी।
  3. तेलंगाना- इसकी राजधानी नन्देर थी।
  4. अहमदनगर- इसके अन्तर्गत अहमदनगर के जीते गये क्षेत्र शामिल थे।

1644 ई. में औरंगज़ेब को विवश होकर दक्कन के राजप्रतिनिधि पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। इसका कारण उसके प्रति दारा शिकोह का निरंतर विरोध या दारा शिकोह के प्रति शाहजहाँ का पक्षपात था। तदुपरांत औरंगज़ेब 1645 ई. में गुजरात का शासक हुआ। बाद में वह बल्ख, बदख़्शाँ तथा कंधार पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया, पर ये आक्रमण असफल रहे। 1652 ई. में पुनः उसे दूसरी बार दक्कन का राजप्रतिनिधि बना कर भेजा गया। तबसे दौलताबाद या औरंगाबाद उसकी सरकार का प्रधान कार्यालय रहा।

1652-1657 ई. में दक्षिण की सूबेदारी के अपने दूसरे कार्यकाल में औरंगज़ेब ने दक्षिण में मुर्शिदकुली ख़ाँ के सहयोग से लगान व्यवस्था एवं अर्थव्यवस्था को व्यवस्थित करने का प्रयास किया। अपने इन सुधार कार्यों में औरंगज़ेब ने टोडरमल एवं मलिक अम्बर की लगान व्यवस्था को आधार बनाया।

औरंगज़ेब ने अपने द्वितीय कार्यकाल (दक्कन की सूबेदारी) के दौरान में सम्पन्न सैनिक अभियान के अन्तर्गत गोलकुण्डा के शासक कुतुबशाह को 1636 ई. में सम्पन्न संधि की अवहेलना करने एवं मीर जुमला के पुत्र मोहम्मद अमीन को क़ैद करने के अपराध में दण्ड देने के इरादे से फ़रवरी, 1656 ई. में गोलकुण्डा के दुर्ग पर घेरा डाल दिया। सुल्तान अब्दुल्ला कुतुबशाह औरंगज़ेब के आक्रमण से इतना भयभीत हो गया कि, राजकुमार हर शर्त मानने को तैयार हो गया। परिणामस्वरूप एक और संधि सम्पन्न हुई। सुल्तान ने मुग़ल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली। मुग़ल आधिपत्य के समय गोलकुण्डा विश्व के सबसे बड़े हीरा विक्रेता बाज़ार के रूप में प्रसिद्ध था।

मध्य एशिया

शाहजहाँ ने मध्य एशिया को विजित करने के लिए 1645 ई. में शाहज़ादा मुराद एवं 1647 ई. में शाहज़ादा औरंगज़ेब को भेजा, पर उसे सफलता प्राप्त नहीं हो सकी।

कंधार

कंधार मुग़लों एवं फ़ारसियों के मध्य लम्बे समय तक संघर्ष का कारण बना रहा। 1628 ई. में कंधार का क़िला वहाँ के क़िलेदार अली मर्दान ख़ाँ ने मुग़लों को दे दिया। 1648 ई. में इसे पुनः फ़ारसियों ने अधिकार में कर लिया। 1649 ई. एवं 1652 ई. में कंधार को जीतने के लिए दो सैन्य अभियान किए गए, परन्तु दोनों में असफलता हाथ लगी। 1653 ई. में दारा शिकोह द्वारा कंधार जीतने की कोशिश नाकाम रही। इस प्रकार शाहजहाँ के शासन काल में कंधार ने मुग़ल अधिपत्य को नहीं स्वीकारा।

शाहजहाँ की बीमारी

सन 1657 ई. में शाहजहाँ बहुत बीमार हो गया था। उस समय उसने दारा को अपना विधिवत उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। दारा सिकोह भी राजधानी में रह कर अपने पिता की सेवा−सुश्रुषा और शासन की देखभाल करने लगा। बर्नियर ने लिखा है –

‘मैंने सूरत में आकर यह भी मालूम किया कि शाहजहाँ की उम्र इस समय सत्तर वर्ष के लगभग है और उसके चार पुत्र तथा दो पुत्रियाँ हैं और कई वर्ष हुए उसने अपने चारों पुत्रों को भारतवर्ष के बड़े-बड़े चार प्रदेशों का, जिनको राज्य का एक-एक भाग कहना चाहिए, संपूर्ण अधिकार प्रदान कर दिया है। मुझे यह भी विदित हुआ है कि एक वर्ष से कुछ अधिक काल से बादशाह ऐसा बीमार है, कि उसके जीवन में भी संदेह है और उसकी ऐसी अवस्था देखकर शाहज़ादों ने राज्य-प्राप्ति के लिए मंसूबे बांधने और उद्योग करने आरंभ कर दिए हैं।’ अंत में भाइयों में लड़ाई छिड़ी और वह पाँच वर्ष तक चली।

उत्तराधिकार का युद्ध

शाहजहाँ के बीमार पड़ने पर उसके चारों पुत्र दारा शिकोह, शाहशुजा, औरंगज़ेब एवं मुराद बख़्श में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष प्रारम्भ हो गया। शाहजहाँ की मुमताज़ बेगम द्वारा उत्पन्न 14 सन्तानों में 7 जीवित थीं, जिनमें 4 लड़के तथा 3 लड़कियाँ – जहान आरा, रौशन आरा एवं गोहन आरा थीं। जहान आरा ने दारा का, रोशन आरा ने औरंगज़ेब का एवं गोहन आरा ने मुराद का समर्थन किया। शाहजहाँ के चारों पुत्रों में दारा सिकोह सर्वाधिक उदार, शिक्षित एवं सभ्य था।

शाहजहाँ |1592 ई. - 1666 ई.

शाहजहाँ ने दारा सिकोह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और उसे ‘शाहबुलन्द इक़बाल’ की उपाधि दी। उत्तराधिकारी की घोषणा से ही ‘उत्तराधिकार का युद्ध’ प्रारम्भ हुआ। युद्धों की इस श्रंखला का प्रथम युद्ध शाहशुजा एवं दारा के लड़के सुलेमान शिकोह तथा आमेर के राजा जयसिंह के मध्य 24 फ़रवरी, 1658 ई. को बहादुरपुर में हुआ, इस संघर्ष में शाहशुजा पराजित हुआ। दूसरा युद्ध औरंगज़ेब एवं मुराद बख़्श तथा दारा की सेना, जिसका नेतृत्व महाराज जसवन्त सिंह एवं कासिम ख़ाँ कर रहे थे, के मध्य 25 अप्रैल, 1658 ई. को ‘धरमट’ नामक स्थान पर हुआ, इसमें दारा सिकोह की पराजय हुई।

औरंगज़ेब ने इस विजय की स्मृति में ‘फ़तेहाबाद’ नामक नगर की स्थापना की। तीसरा युद्ध दारा एवं औरंगज़ेब के मध्य 8 जून, 1658 ई. को ‘सामूगढ़’ में हुआ। इसमें भी दारा को पराजय का सामना करना पड़ा। 5 जनवरी, 1659 को उत्तराधिकार का एक और युद्ध खजुवा नामक स्थान पर लड़ा गया, जिसमें जसवंत सिंह की भूमिका औरंगज़ेब के विरुद्ध थी, किन्तु औरंगज़ेब सफल हुआ। 

शाहजहां के शासनकाल के समय हुए कुछ चर्चित विद्रोह (संक्षिप्त विवरण)

वैसे तो मुगल बादशाह शाहजहां के शासनकाल में शांतिपूर्ण माहौल था, लेकिन उनके शासन में कुछ विद्रोह भी हुए जो कि इस प्रकार है –

  • शाहजहां के शासनकाल में साल 1628 से 1636 के बीच बुंदेलखण्ड का पहला विद्रोह भड़का। 1628ई. में बुंदेला नायक और वीरसिंह बुंदेला के पुत्र जुझार सिंह ने अपनी लालची प्रवृत्ति के चलते धोखाधड़ी से प्रजा का धन इकट्ठा कर लिया, जिसके बाद  शाहजहां ने  उसकी ऊपर आक्रमण कर दिया, फिर जुझार सिंह ने शाहजहां के सामने आत्मसमर्पण कर माफी मांग ली फिर कुछ समय के बाद यह विद्रोह पूरी तरह ठंडा पड़ गया।
  • पांचवे मुगल सम्राट शाहजहां के शासनकाल के समय अफगान सरदार खाने – जहाँ लोदी  जो मालबा की सूबेदारी संभाल रहा था, उसने मुगल दरबार में आदर-सम्मान नहीं मिलने की वजह से विद्रोह कर दिया था।
  • शाहजहां के शासनकाल के समय एक छोटी सी घटना की वजह से सिक्खों के गुरु हरगोविंद सिंह का मुगलों के साथ विद्रोह हुआ, जिसमें सिक्खों को हार का सामना करना पड़ा था।
  • मुगल सम्राटों ने पुर्तगालियों को नमक के व्यापार का एकाधिकार दे दिया था, लेकिन पुर्तगाली अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे थे, और पुर्तगालियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था, जिसको खत्म करने के लिए 1632 में मुगल बादशाह शाहजहां ने पुर्तगालियों के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र हुगली पर अधिकार कर लिया था।
  • मुगल शहंशाह शाहजहां के समय में साल 1630-1632 में ही दक्कन एवं गुजरात में भीषण अकाल पड़ा था, जिससे न सिर्फ कई लोगों की सूखे की चपेट में आकर मौत हो गई थी, बल्कि गुजरात और दक्कर वीरान पड़ गया था।

दारा सिकोह की हत्या

उत्तराधिकार की अन्तिम लड़ाई दारा एवं औरंगज़ेब के मध्य 12 से 14 अप्रैल, 1659 ई. को ‘देवरई की घाटी’ में लड़ी गई। इस युद्ध में पराजित होने के उपरांत दारा हताश होकर राजधानी से भाग गया; किंतु उसे शीघ्र ही पकड़ कर औरंगज़ेब के सामने लाया गया। उसके दोनों बेटों सुलेमान और सिपहर को गिरफ़्तार कर क़ैदी बना लिया गया। इस प्रकार औरंगज़ेब की छल−फरेब भरी कुटिल नीति के कारण दारा राजगद्दी से ही वंचित नहीं हुआ, वरन् अपने पुत्रों सहित असमय ही मार डाला गया।

दारा को मारने से पहिले बड़ा अपमानित किया गया था। दारा का सबसे बड़ा अपराध यह था, कि वह उदार धार्मिक विचारों का था; इसलिए वह काफ़िर था और काफ़िर की सज़ा मौत होती है। फलत: उसे क़त्ल किया गया और उसका सिर काट कर औरंगज़ेब की सेवा में भेज दिया गया। औरंगज़ेब ने हुक्म दिया कि इस अभागे को हुमायूँ के मक़बरे में दफ़ना दो। इस प्रकार औरंगज़ेब ने अपने सभी भाई−भतीजों को मारा और अपने वृद्ध पिता को ‘तख्त-ए- ताऊस’ से हटा कर आगरा के क़िले में क़ैद कर लिया और ख़ुद सन् 1658 में मुग़ल सम्राट बन बैठा।

शाहजहाँ की मृत्यु

शाहजहाँ 8 वर्ष तक आगरा के क़िले के शाहबुर्ज में क़ैद रहा। उसका अंतिम समय बड़े दु:ख और मानसिक क्लेश में बीता था। उस समय उसकी प्रिय पुत्री जहाँआरा उसकी सेवा के लिए साथ रही थी। शाहजहाँ ने उन वर्षों को अपने वैभवपूर्ण जीवन का स्मरण करते और ताजमहल को अश्रुपूरित नेत्रों से देखते हुए बिताये थे। अंत में जनवरी, सन् 1666 ई. में उसका देहांत हो गया। उस समय उसकी आयु 74 वर्ष की थी। उसे उसकी प्रिय बेगम के पार्श्व में ताजमहल में ही दफ़नाया गया था।

इतिहासकार अब्दुल हमीद लाह

अब्दुल हमीद लाहौरी बादशाह शाहजहाँ का सरकारी इतिहासकार था। राज दरबार में भी उसे काफ़ी मान-सम्मान और प्रतिषठा प्राप्त थी। उसने जिस महत्त्वपूर्ण कृति की रचना की, उसका नाम ‘पादशाहनामा’ है। ‘पादशाहनामा’ को शाहजहाँ के शासन का प्रामाणिक इतिहास माना जाता है। इसमें शाहजहाँ का सम्पूर्ण वृतांत लिखा हुआ है।

शाहजहाँ द्वारा किये गए कुछ कार्य

  • शाहजहाँ ने सिजदा और पायबोस प्रथा को समाप्त किया।
  • इलाही संवत के स्थान पर हिजरी संवत का प्रयोग आरम्भ किया।
  • गोहत्या पर से प्रतिबन्ध उठा लिया। हिन्दुओं को मुस्लिम दास रखने पर पाबन्दी लगा दी।
  • अपने शासन के सातवें वर्ष तक आदेश जारी किया, जिसके अनुसार अगर कोई हिन्दू स्वेच्छा से मुसलमान बन जाय, तो उसे अपने पिता की सम्पत्ति से हिस्सा प्राप्त होगा।
  • हिन्दुओं को मुसलमान बनाने के लिए एक पृथक् विभाग खोला।
  • पुर्तग़ालियों से युद्ध का ख़तरा होने पर उसने आगरा के गिरिजाघर को तुड़वा दिया।
  • मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला की दृष्टि से शाहजहाँ ने अनेकों भव्य इमारतों का निर्माण करवाया था, जिस कारण से उसका शासनकाल मध्यकालीन भारत के इतिहास का ‘स्वर्ण काल’ कहा जाता है।

शाहजहाँ के शासन काल में अनेक विदेशी यात्रियों ने मुग़लकालीन भारत की यात्रा की। इन विदेशी यात्रियों में दो यात्री फ़्राँसीसी थे। जीन बपतिस्ते टेवर्नियर, जो एक जौहरी था, ने शाहजहाँ और औरंगज़ेब के शासन काल में छह बार मुग़ल साम्राज्य की यात्रा की।

दूसरा यात्री फ्रेंसिस बर्नियर था, जो एक फ्राँसीसी चिकित्सक था। इस काल में आने वाले दो इतालवी यात्री पीटर मुंडी और निकोलो मनूची थे। मनूची अनेक घटनाओं विशेषतः उत्तराधिकार युद्ध प्रत्यक्षदर्शी था। उसने ‘स्टोरियो डी मोगोर’ नामक अपने यात्रा वृत्तांत में समकालीन इतिहास का बहुत सुन्दर वर्णन किया है।

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