भारतीय संविधान की प्रस्तावना को “संविधान की आत्मा” कहा गया है। यह विचार प्रसिद्ध न्यायविद ठाकुर दास भार्गव ने प्रस्तुत किया था, जो भारतीय संविधान सभा के सदस्य थे। भारतीय संविधान की प्रस्तावना न केवल संविधान का दर्शन प्रस्तुत करती है, बल्कि यह हमारे राष्ट्रीय उद्देश्यों और आकांक्षाओं का प्रतिबिंब भी है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना की रचना जवाहरलाल नेहरू के उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है, जिसे 1946 में संविधान सभा में प्रस्तुत किया गया था।
प्रस्तावना का महत्व और विकास
संविधान की प्रस्तावना हमारे संविधान का मूलभूत सिद्धांत और दर्शन प्रस्तुत करती है। संविधान सभा के सदस्य के. एम. मुंशी ने इसे “संविधान सभा की जन्मकुण्डली” कहा। प्रस्तावना में “हम भारत के लोग” शब्द अमेरिका के संविधान से लिया गया है, जिसका अर्थ है कि अंतिम सत्ता भारतीय जनता में निहित है। यह शब्द हमारे लोकतंत्र के आधार को मजबूत करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता का स्रोत जनता है।
सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न (सम्प्रभुता)
सम्प्रभुता का अर्थ है कि भारत आन्तरिक और बाहरी रूप से निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र है। यह शब्द यह सुनिश्चित करता है कि भारत किसी भी विदेशी शक्ति के नियंत्रण से मुक्त है और अपनी आंतरिक और बाहरी नीतियों को स्वयं निर्धारित कर सकता है।
समाजवादी
समाजवादी शब्द संविधान के 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया। इसका अर्थ है कि राज्य के सभी आर्थिक और भौतिक संसाधनों पर अन्तिम रूप से राज्य का अधिकार होगा। ये संसाधन किसी एक व्यक्ति के हाथ में केन्द्रित नहीं होंगे, बल्कि राज्य के माध्यम से समान रूप से वितरित किए जाएंगे। यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों को एक समान जीवन स्तर प्राप्त हो और किसी भी प्रकार की आर्थिक असमानता न हो।
पंथ निरपेक्षता (धर्मनिरपेक्षता)
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य का कोई अपना धर्म नहीं होगा और सभी धर्मों का समान आदर किया जाएगा। भारत में कोई भी आधिकारिक धर्म नहीं है और राज्य सभी धर्मों के प्रति समान व्यवहार करता है। यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिक अपने धर्म का पालन, प्रचार और उपासना करने के लिए स्वतंत्र हैं।
लोकतंत्र और गणराज्य
लोकतंत्र का अर्थ है कि सत्ता जनता के हाथ में होती है और सभी नागरिकों को समान रूप से सरकार में भाग लेने का अधिकार है। भारत में लोकतंत्र का आधार “सर्वे भुवन्त सुखिन सर्वे सुन्त निराभया” के आदर्श वाक्य पर आधारित है। इसके साथ ही, गणराज्य का अर्थ है कि राष्ट्राध्यक्ष जनता द्वारा निश्चित समय के लिए अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है और पद वंशानुगत नहीं होता।
प्रस्तावना में वर्णित अन्य तत्व
प्रस्तावना में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता को भाग-3 में वर्णित किया गया है। इसी प्रकार, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता भी भाग-3 में वर्णित है। इसके अलावा, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता भी प्रस्तावना में शामिल हैं।
संविधान की प्रस्तावना का न्यायिक मूल्यांकन
संविधान सभा द्वारा संविधान को 26 जनवरी 1949 के दिन अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मासात किया गया। हालाँकि, संविधान की प्रस्तावना को न्यायालय में प्रवर्तित नहीं किया जा सकता। 1952 में शंकरी प्रसाद बनाम बिहार राज्य में यह कहा गया कि संविधान की प्रस्तावना इसका अंग नहीं है, और ऐसा ही निर्णय 1965 में सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य में आया।
1967 के गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य विवाद में न्यायालय ने कहा कि संसद प्रस्तावना सहित मौलिक अधिकारों को परिवर्तित नहीं कर सकती। इसके विरोध में 24वें और 25वें संविधान संशोधन 1971 लाए गए, जिसके कारण न्यायपालिका और कार्यपालिका में विवाद उत्पन्न हुआ।
1973 में केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का अंग है। संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन ऐसा संशोधन मान्य नहीं होगा जो संविधान की मूल आत्मा को नष्ट करता है। इसे “मूल ढांचे का सिद्धांत” कहा जाता है।
मूल ढांचे में शामिल तत्व
मूल ढांचे में निम्नलिखित तत्व शामिल हैं –
- सम्प्रभुता
- पंथ निरपेक्षता
- गरिमा पूर्ण जीवन
- संसदीय शासन प्रणाली
- मौलिक अधिकार
- राष्ट्रपति की निर्वाचन पद्धति
1980 के मिनर्वा मिल्क केस में भी सर्वोच्च न्यायालय ने मूल ढांचे को प्रतिस्थापित और व्याख्या की।
प्रस्तावना के आधारभूत विशेषताएँ
भारतीय संविधान के प्रस्तावना के अनुसार, भारत एक सम्प्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है।
सम्प्रभुता
सम्प्रभुता का अर्थ है सर्वोच्च या स्वतंत्र। भारत किसी भी विदेशी और आंतरिक शक्ति के नियंत्रण से पूर्णतः मुक्त है। यह सीधे लोगों द्वारा चुने गए एक मुक्त सरकार द्वारा शासित है और यही सरकार कानून बनाकर लोगों पर शासन करती है।
समाजवाद
समाजवादी शब्द संविधान के 1976 में हुए 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया। यह अपने सभी नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित करता है। जाति, रंग, नस्ल, लिंग, धर्म या भाषा के आधार पर कोई भेदभाव किए बिना सभी को बराबर का दर्जा और अवसर देता है। सरकार केवल कुछ लोगों के हाथों में धन जमा होने से रोकेगी और सभी नागरिकों को एक अच्छा जीवन स्तर प्रदान करने की कोशिश करेगी। भारत ने एक मिश्रित आर्थिक मॉडल को अपनाया है और समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कई कानून बनाए हैं, जैसे अस्पृश्यता उन्मूलन, जमींदारी अधिनियम, समान वेतन अधिनियम और बाल श्रम निषेध अधिनियम।
धर्मनिरपेक्षता
धर्मनिरपेक्ष शब्द संविधान के 1976 में हुए 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया। यह सभी धर्मों की समानता और धार्मिक सहिष्णुता सुनिश्चित करता है। भारत का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है और यह ना तो किसी धर्म को बढ़ावा देता है, ना ही किसी से भेदभाव करता है। यह सभी धर्मों का सम्मान करता है और एक समान व्यवहार करता है। हर व्यक्ति को अपने पसंद के किसी भी धर्म का उपासना, पालन और प्रचार का अधिकार है। सभी नागरिकों, चाहे उनकी धार्मिक मान्यता कुछ भी हो, कानून की नजर में बराबर होते हैं। सरकारी या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों में कोई धार्मिक अनुदेश लागू नहीं होता।
संविधान की सर्वोच्चता
संविधान के उपबंध संघ और राज्य सरकारों पर समान रूप से बाध्यकारी होते हैं। केंद्र और राज्य शक्ति विभाजित करने वाले अनुच्छेद निम्नलिखित हैं:
- अनुच्छेद 54, 55, 73, 162, 241
- भाग -5 सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, राज्य और केंद्र के मध्य वैधानिक संबंध
- अनुच्छेद 7 के अंतर्गत कोई भी सूची
- राज्यों का संसद में प्रतिनिधित्व
- संविधान में संशोधन की शक्ति अनुच्छेद 368
इन सभी अनुच्छेदों में संसद अकेले संशोधन नहीं ला सकती है; उसे राज्यों की सहमति भी चाहिए।
लोकतंत्र और गणराज्य
लोकतंत्र का अर्थ है कि भारत एक स्वतंत्र देश है और सभी नागरिकों को वोट देने की आजादी है। संसद में अनुसूचित सामाजिक समूहों और अनुसूचित जनजातियों को विशिष्ट सीटें आरक्षित की गई हैं। स्थानीय निकाय चुनाव में महिला उम्मीदवारों के लिए एक निश्चित अनुपात में सीटें आरक्षित की जाती हैं। सभी चुनावों में महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने का एक विधेयक लंबित है। भारत का चुनाव आयोग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के लिए जिम्मेदार है।
गणराज्य का अर्थ है कि राष्ट्राध्यक्ष जनता द्वारा निश्चित समय के लिए अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है और पद वंशानुगत नहीं होता। भारत के राष्ट्रपति पांच वर्ष की अवधि के लिए एक चुनावी कॉलेज द्वारा चुने जाते हैं।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना हमारे संविधान का मूलभूत सिद्धांत और दर्शन प्रस्तुत करती है। यह हमारे राष्ट्रीय उद्देश्यों और आकांक्षाओं का प्रतिबिंब है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना को “संविधान की आत्मा” कहा गया है और यह हमारे संविधान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह हमारे लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और गणराज्य के सिद्धांतों को मजबूत करता है और यह सुनिश्चित करता है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर प्राप्त हों। भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक संपूर्ण और संतुलित दस्तावेज है, जो हमारे देश की विविधता और एकता को सम्मानित करता है।
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