मानव के लिए आवश्यकताओं की पूर्ति में संसाधनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। जब कोई वस्तु मानव के उपयोग में आती है, तब उसे संसाधन के रूप में परिभाषित किया जाता है। इस संदर्भ में अनेक विद्वानों ने संसाधन की अलग-अलग परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि संसाधन वे साधन हैं, जो मानव के उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं, सामाजिक विकास में सहायक होते हैं, तथा जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि करते हैं।
विद्वानों द्वारा संसाधन की परिभाषाएँ | Definition of Resources
संसाधन को अलग-अलग विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तरह से परिभाषित किया है। कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्न प्रकार है :-
1. प्रो. जिम्मरमेन (Zimmerman) के अनुसार
“संसाधन से आशय किसी उद्देश्य की पूर्ति करना है। यह उद्देश्य व्यक्तिगत आवश्यकता या सामाजिक लक्ष्य की प्राप्ति करना हो सकता है।” इस परिभाषा में जिम्मरमेन ने इस तथ्य पर जोर दिया है कि संसाधन उपयोगिता आधारित होते हैं।
“Resources is a means of attaining given ends, the ends being satisfaction of individual wants and attainment of all social objective”
-Zimmerman, E.W., An Introduction to World Resources, 1951
2. सामाजिक विज्ञान कोष (Encyclopedia of the Social Sciences) के अनुसार
“संसाधन मानवीय पर्यावरण के वे पक्ष हैं, जिनके द्वारा मानव की आवश्यकताओं की पूर्ति में सुविधा होती है तथा सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति होती है।”
3. जोहन्स्टन (Johnston) के अनुसार
“संसाधन एक संकल्पना है, जो मानवीय संतुष्टि, सम्पन्नता तथा शक्ति प्रदान करने वाले स्रोतों को निर्दिष्ट करती है। श्रम, उद्यमी कौशल, पूँजी, तकनीक, सामाजिक स्थिरता तथा सांस्कृतिक विशेषताएँ, सभी एक देश के संसाधनों में शामिल होते हैं।”
4. जेम्स फिशर (Fisher J.S.) के अनुसार
“संसाधन ऐसी कोई भी वस्तु है जो मानवीय आवश्यकताओं तथा इच्छाओं की पूर्ति करती है।” (Resources are anything that can be)
संसाधन की विशेषताएँ
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर, संसाधन में निम्न विशेषताएँ होना आवश्यक है:
- उपयोगिता (Utility) — जिस वस्तु में उपयोगिता है वही संसाधन है।
- रूपांतरण योग्य — परिष्कृत करने, संशोधित करने तथा संयोजन से वस्तु की उपयोगिता बढ़ती है।
- उद्देश्य की पूर्ति — संसाधन किसी विशिष्ट लक्ष्य या आवश्यकता की पूर्ति करते हों।
- दोहने योग्य — मानव की पहुँच में होना चाहिए ताकि इसका उपभोग किया जा सके।
- कार्यात्मकता (Functionability) — कार्य करने की क्षमता होनी चाहिए।
इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राकृतिक संसाधनों में उन सब वस्तुओं को शामिल किया जाता है जो मानव के भौतिक पर्यावरण में मौजूद है और जिनसे वह किसी न किसी आवश्यकता की पूर्ति करता है। इस व्यापक अर्थ में संसाधनों के अन्तर्गत भूमि को भी सम्मिलित किया जाता है, क्योंकि मनुष्य भूमि पर खेती करता है। पिछड़े एवं विकासशील देशों में भूमि का सर्वाधिक उपयोग होता है। इसके साथ ही, हजारों वर्षों से वन एवं पशु ऐसे साधन है जिनका प्रयोग मानव करता आया है। आज भी विकासशील एवं अल्प-विकसित देशों की अधिकांश जनसंख्या कृषि, वन एवं पशुपालन पर आश्रित है।
प्राकृतिक संसाधनों की विविधता
पृथ्वी पर उपलब्ध सभी भौतिक तत्व, जिनका मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपयोग करता है, प्राकृतिक संसाधनों के अंतर्गत आते हैं। इस व्यापक परिभाषा में भूमि, वन, जल, खनिज, ऊर्जा के स्रोत, साथ ही विभिन्न जीव-जंतु एवं वनस्पतियों को शामिल किया जाता है। विशेष रूप से कृषि आधारित अर्थव्यवस्थाओं में भूमि एक प्रमुख संसाधन है, क्योंकि अधिकांश विकासशील और अल्पविकसित देशों में भूमि पर खेती, पशुपालन और वनों से प्राप्त उत्पाद आज भी मुख्य आजीविका के साधन बने हुए हैं। अनुमान है कि इन देशों की लगभग दो-तिहाई जनसंख्या कृषि, वनों तथा पशुपालन पर निर्भर है।
आधुनिक औद्योगीकरण के युग में खनिज पदार्थ और ऊर्जा के स्रोत — जैसे कोयला, पेट्रोलियम, गैस तथा यूरेनियम — विशेष महत्व रखते हैं, क्योंकि ये ऊर्जा उत्पन्न करने के प्राथमिक साधन हैं। इसके अलावा, जल संसाधन — चाहे वे सतह पर स्थित हों या भूमिगत — जीवन के लिए अपरिहार्य हैं। पानी केवल मानव उपयोग के लिए ही नहीं बल्कि कृषि, वनस्पति, पशुपालन तथा अन्य जीवों के अस्तित्व के लिए भी आवश्यक है।
वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ मानव को प्राकृतिक संसाधनों के महत्व का गहरा एहसास हुआ है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जल से विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करने की तकनीक विकसित हुई, और आज भी सौर ऊर्जा जैसी स्वच्छ ऊर्जा के नए स्रोतों पर निरंतर शोध किया जा रहा है ताकि मानव की भविष्य की ऊर्जा आवश्यकताओं को सतत रूप से पूरा किया जा सके।
ये सभी संसाधन मिलकर एक जटिल पारिस्थितिक तंत्र का निर्माण करते हैं, जिसमें सभी जीवधारी — पशु, पौधे, सूक्ष्मजीव — परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इस परस्पर निर्भरता से ही प्रकृति में संतुलन बना रहता है। उदाहरण के लिए, जंगलों में अवैध शिकार और अनियंत्रित दोहन के कारण कई वन्य जीव प्रजातियाँ लुप्तप्राय हो चुकी हैं। इसी प्रकार, अत्यधिक मत्स्यन के कारण कुछ नस्लें, जैसे व्हेल मछली, समाप्त हो गई हैं।
अतः यह स्पष्ट है कि प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता के बीच संतुलन बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। इस संतुलन में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी मानव जीवन के लिए भयावह परिणाम उत्पन्न कर सकती है। इसीलिए, आज आवश्यकता है कि हम इन संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करें ताकि वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रह सकें।
प्राकृतिक संसाधनों का महत्व
भूमि, वन एवं पशुपालन
मानव के लिए भूमि एक मुख्य संसाधन है। विशेष रूप से विकासशील और अल्पविकसित देशों में अधिकांश आबादी कृषि, वन तथा पशुपालन पर निर्भर है। भूमि कृषि योग्य है, जिस पर खेती कर मानव अपनी भोजन, कपड़ा तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।
वन भी एक महत्वपूर्ण संसाधन है। वन्य संसाधनों से लकड़ी, औषधियां, कंद-मूल, फल-फूल, तथा अन्य वन्य उपज प्राप्त होती है। साथ ही, वन जलवायु संतुलन बनाए रखने में सहायक होते हैं।
पशुपालन प्राचीन काल से ही मानव के जीवनयापन में सहायक रहा है। दूध, मांस, ऊन, खाल तथा अन्य उपादान पशुओं से प्राप्त होते हैं।
खनिज एवं ऊर्जा स्रोत
कोयला, पेट्रोलियम, गैस तथा यूरेनियम जैसे खनिज और ऊर्जा स्रोत आधुनिक औद्योगीकरण के आधार हैं। इनका उपयोग ऊर्जा उत्पन्न करने, परिवहन तथा अन्य उद्योगों में किया जाता है।
जल संसाधन
जल न केवल मानव के लिए बल्कि वनस्पति तथा अन्य जीव-जंतुओं के जीवन के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। धरातलीय जल तथा भूमिगत जल मानव सभ्यता के लिए अनिवार्य है।
विज्ञान व तकनीक के विकास से संसाधनों का महत्व
जैसे-जैसे मानव का ज्ञान बढ़ा, उसने प्राकृतिक संसाधनों से अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के नए-नए तरीकों को खोजा। उदाहरणार्थ, 19वीं सदी के उत्तरार्ध में जल से ऊर्जा उत्पन्न करने की तकनीक विकसित हुई। आज सौर ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों पर शोध जारी है ताकि भविष्य में ऊर्जा संकट से निपटा जा सके।
जैव विविधता और पारिस्थितिक संतुलन
संसाधनों के सतत उपयोग में जैव विविधता की महत्वपूर्ण भूमिका है। प्रकृति में पौधे, जीव-जंतु, वन्यजीव तथा अन्य प्राणी परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इस परस्पर निर्भरता से ही पारिस्थितिक संतुलन बना रहता है।
दुर्भाग्यवश, अत्यधिक शिकार तथा वन कटाई के कारण कई वन्य जीव प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। उदाहरण के लिए, व्हेल मछली की कुछ नस्लें अत्यधिक शिकार से समाप्त हो चुकी हैं। इस असंतुलन से न केवल जैव विविधता प्रभावित होती है बल्कि मानव अस्तित्व के लिए भी खतरे उत्पन्न हो सकते हैं।
संसाधनों के सतत विकास का महत्व
प्राकृतिक संसाधनों के सतत विकास के लिए हमें जिम्मेदार व्यवहार अपनाना होगा। सतत विकास वह प्रक्रिया है जिसमें वर्तमान पीढ़ी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के लिए संसाधनों को सुरक्षित रखे।
इस दिशा में सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है, ताकि संसाधनों का उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से हो और पारिस्थितिक तंत्र संतुलित बना रहे।
अंत में कहा जा सकता है कि संसाधन केवल भौतिक तत्व नहीं बल्कि सामाजिक-आर्थिक विकास के आधारभूत अंग हैं। प्रत्येक वस्तु में तब तक संसाधन बनने की क्षमता है जब तक उसमें उपयोगिता है और वह किसी लक्ष्य की पूर्ति कर सके। जैव विविधता, जल, वन, ऊर्जा स्रोत, भूमि तथा अन्य प्राकृतिक संसाधनों के महत्व को समझना तथा उनका संरक्षण करना प्रत्येक मानव का दायित्व है।
संसाधनों के असंतुलित उपयोग से उत्पन्न पर्यावरणीय संकट आज हमारे लिए एक चुनौती है। इस चुनौती से निपटने के लिए हमें अपनी जिम्मेदारियों को समझना होगा ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ, सुरक्षित और संतुलित पर्यावरण उपलब्ध रह सके।
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