सहायता प्राप्त मृत्यु विधेयक | गरिमा के साथ जीवन का अंत या नैतिक चुनौती?

ब्रिटेन की संसद में हाल ही में पारित हुआ “सहायता प्राप्त मृत्यु विधेयक” (Assisted Dying Bill) आधुनिक चिकित्सा नैतिकता, मानवाधिकारों और मृत्यु के अधिकार को लेकर वैश्विक विमर्श को एक नई दिशा प्रदान करता है। यह कानून न केवल पीड़ित मरीजों को गरिमा के साथ मृत्यु का अधिकार देने का प्रयास करता है, बल्कि यह भी सवाल खड़ा करता है कि क्या समाज को ऐसे मामलों में जीवन की रक्षा करनी चाहिए या व्यक्ति की पीड़ा को समाप्त करने के लिए जीवन के अंत की अनुमति देनी चाहिए?

इस लेख में हम इस विधेयक की पृष्ठभूमि, प्रमुख प्रावधानों, अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और भारत की स्थिति पर विस्तृत चर्चा करेंगे।

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सहायता प्राप्त मृत्यु (Assisted Dying) क्या है?

सहायता प्राप्त मृत्यु एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें किसी गंभीर, असाध्य और अंतःस्थित बीमारी से पीड़ित व्यक्ति को जानबूझकर मृत्यु की ओर अग्रसर करने में सहायता दी जाती है। इसका उद्देश्य उस व्यक्ति की असहनीय पीड़ा को समाप्त करना होता है।

मुख्य रूप से यह दो प्रकार की होती है:

(1) सहायता प्राप्त आत्महत्या (Assisted Suicide):

यह वह स्थिति होती है जब एक व्यक्ति, जो असाध्य बीमारी से पीड़ित है, किसी अन्य व्यक्ति (अधिकतर डॉक्टर या करीबी) की सहायता से स्वयं को मारने का निर्णय लेता है। इसमें आमतौर पर डॉक्टर रोगी को मृत्यु लाने वाली दवाएं प्रदान करता है, लेकिन अंतिम कदम रोगी खुद उठाता है।

उदाहरण: एक कैंसर से पीड़ित मरीज को डॉक्टर द्वारा दी गई घातक दवा जिससे वह स्वयं सेवन कर आत्महत्या करता है।

(2) सक्रिय इच्छामृत्यु (Active Euthanasia):

इसमें कोई तीसरा व्यक्ति (अधिकतर डॉक्टर) ही सक्रिय रूप से किसी रोगी का जीवन समाप्त करता है। उदाहरण के लिए – इंजेक्शन द्वारा जानबूझकर रोगी की मृत्यु कराना।

यह प्रक्रिया उन मरीजों के लिए होती है जिनकी शारीरिक या मानसिक स्थिति इतनी बिगड़ चुकी होती है कि वे स्वयं मृत्यु की दिशा में कोई कदम नहीं उठा सकते।

ब्रिटेन में पारित सहायता प्राप्त मृत्यु विधेयक

ब्रिटेन की संसद के निचले सदन हाउस ऑफ कॉमन्स ने वर्ष 2025 में एक ऐतिहासिक विधेयक पारित किया है, जिसमें असाध्य बीमारी से ग्रसित वयस्क नागरिकों को वैधानिक रूप से सहायता प्राप्त मृत्यु की अनुमति दी गई है। यह विधेयक इंग्लैंड और वेल्स में लागू होगा (स्कॉटलैंड और उत्तरी आयरलैंड की अपनी कानूनी प्रणालियाँ हैं)।

विधेयक के प्रमुख प्रावधान:

(1) पात्रता (Eligibility):

  • व्यक्ति की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए।
  • उसे मानसिक रूप से सक्षम (Mentally Competent) होना चाहिए – अर्थात वह अपनी स्थिति और निर्णयों को समझ सकने में सक्षम हो।
  • वह इंग्लैंड या वेल्स में कम से कम 12 महीनों से निवास कर रहा हो।
  • उसके पास कोई असाध्य बीमारी (Terminal Illness) हो जिससे अगले 6 महीनों के भीतर मृत्यु की संभावना हो।
  • केवल मानसिक बीमारी या शारीरिक अक्षमता से पीड़ित लोग इसके पात्र नहीं माने जाएंगे।

(2) चिकित्सा सत्यापन:

  • दो स्वतंत्र चिकित्सकों की सहमति अनिवार्य है जो रोग की अवस्था और उसकी असाध्यता की पुष्टि करेंगे।
  • मानसिक स्थिति का मूल्यांकन किसी मनोचिकित्सक द्वारा किया जाएगा।
  • रोगी को निर्णय लेने से पहले विकल्पों की जानकारी दी जाएगी – जैसे कि पलिएटिव केयर (palliative care) या अन्य उपचार।

(3) प्रक्रिया:

  • रोगी को अपनी मंशा स्पष्ट रूप से लिखित में प्रस्तुत करनी होगी।
  • इस निवेदन के 14 दिन बाद रोगी को मृत्यु लाने वाली दवा दी जा सकती है, यदि सभी शर्तें पूरी हों।
  • मृत्यु लाने वाली दवा का सेवन स्वयं रोगी द्वारा किया जाएगा – चिकित्सक केवल पर्यवेक्षक की भूमिका में होगा।

क्यों लाया गया यह विधेयक?

इस विधेयक के पीछे कई मानवीय, नैतिक और व्यवहारिक कारण हैं:

(1) गरिमा के साथ मृत्यु का अधिकार:

कई लोग मानते हैं कि जैसे व्यक्ति को गरिमा के साथ जीने का अधिकार है, वैसे ही उसे गरिमा के साथ मृत्यु का भी अधिकार मिलना चाहिए – खासकर जब जीवन केवल दर्द और विवशता में बदल जाए।

(2) पारिवारिक बोझ और मानसिक पीड़ा:

गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति न केवल खुद पीड़ित होता है, बल्कि उसका पूरा परिवार मानसिक, भावनात्मक और वित्तीय दबाव में आ जाता है।

(3) अवैध मृत्यु की प्रवृत्तियाँ:

ऐसे कई मामले सामने आए हैं जब रोगी को पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए परिवार या चिकित्सक ने गैरकानूनी तरीके अपनाए। विधेयक से इन घटनाओं पर पारदर्शिता आएगी।

(4) चिकित्सकों की मांग:

ब्रिटेन के मेडिकल जगत के कुछ वर्गों ने लंबे समय से यह मांग की थी कि असाध्य रोगों के मामले में मरीजों को गरिमा से मरने की कानूनी सुविधा दी जानी चाहिए।

अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य

सहायता प्राप्त मृत्यु या इच्छामृत्यु की अवधारणा विश्व के कई देशों में पहले से ही वैध है। परन्तु इसकी शर्तें, प्रक्रियाएं और नैतिक दृष्टिकोण विविध हैं।

जिन देशों में यह कानूनी है:

देशस्थितिप्रमुख शर्तें
नीदरलैंड्ससक्रिय इच्छामृत्यु और सहायता प्राप्त आत्महत्या दोनों वैधचिकित्सीय असाध्यता और मरीज की सहमति आवश्यक
बेल्जियमसबसे उदार कानूनयहां मानसिक रोग के मामलों में भी इच्छामृत्यु संभव
कनाडाMAID (Medical Assistance in Dying) कार्यक्रम के तहत वैधरोगी को गंभीर, अपूरणीय पीड़ा होनी चाहिए
स्विट्जरलैंडकेवल सहायता प्राप्त आत्महत्या वैधकिसी संगठन या डॉक्टर द्वारा सहायता संभव
अमेरिका (ओरेगन, वॉशिंगटन आदि राज्य)राज्य विशेष कानूनकेवल असाध्य रोग वाले मरीज पात्र

इन देशों में यह कानून पारदर्शिता, जवाबदेही और गरिमा को प्राथमिकता देता है। हालांकि नैतिक और धार्मिक असहमतियाँ अब भी बनी हुई हैं।

भारत की स्थिति: क्या भारत तैयार है?

भारत में सहायता प्राप्त आत्महत्या और सक्रिय इच्छामृत्यु अभी भी अवैध हैं। परंतु 2018 में भारत की सर्वोच्च अदालत ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु को वैधानिक रूप से मान्यता दी थी।

सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक निर्णय (Common Cause बनाम भारत संघ, 2018):

  • यह फैसला एक जनहित याचिका के संदर्भ में आया था जिसमें यह मांग की गई थी कि गंभीर रोग से पीड़ित व्यक्ति को जीवन समाप्त करने का अधिकार मिलना चाहिए।
  • अदालत ने कहा कि अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) में “गरिमा के साथ मरने का अधिकार” भी निहित है।
  • न्यायालय ने लिविंग विल (Living Will) की अनुमति दी – यानी कोई व्यक्ति पहले से यह लिखकर रख सकता है कि वह किन परिस्थितियों में जीवन रक्षक उपचार नहीं लेना चाहता।

निष्क्रिय इच्छामृत्यु क्या है?

  • इसमें रोगी के जीवन रक्षक उपकरणों (जैसे वेंटिलेटर) को हटाकर मृत्यु की प्रक्रिया को स्वाभाविक रूप से होने दिया जाता है।
  • यह केवल तभी लागू होता है जब रोगी को होश नहीं हो और चिकित्सकीय रूप से पुनः स्वस्थ होने की कोई संभावना न हो।

सक्रिय इच्छामृत्यु या सहायता प्राप्त आत्महत्या – अवैध क्यों?

  • भारतीय दंड संहिता की धारा 306 – आत्महत्या में सहायता को अपराध मानती है।
  • भारतीय समाज में जीवन और मृत्यु को धर्म, परंपरा और नैतिकता से जोड़ा जाता है।
  • चिकित्सकों और नीति निर्माताओं में इस विषय पर व्यापक असहमति है।

प्रमुख चिंताएँ और विरोध

भले ही यह कानून मानवीय दृष्टिकोण से उचित प्रतीत हो, फिर भी इसके विरोध में कई तर्क प्रस्तुत किए जाते हैं:

(1) नैतिक और धार्मिक चिंताएँ:

  • हिंदू, मुस्लिम और ईसाई धर्मों में जीवन को ईश्वर का वरदान माना जाता है और आत्महत्या को पाप।
  • ऐसे में मृत्यु को जानबूझकर आमंत्रित करना नैतिक रूप से आपत्तिजनक माना जाता है।

(2) दुरुपयोग की संभावना:

  • वृद्ध, मानसिक रूप से कमजोर, या अकेले जीवन जी रहे लोगों पर दबाव डाला जा सकता है कि वे समाज या परिवार पर बोझ बनने के बजाय मृत्यु चुनें।

(3) पॉलिएटिव केयर की अनदेखी:

  • कई विशेषज्ञ मानते हैं कि बेहतर देखभाल, मानसिक सहायता और दर्द नियंत्रण से रोगियों की पीड़ा को कम किया जा सकता है – बजाय मृत्यु की ओर बढ़ाने के।

(4) गरीब और असाक्षर वर्गों का शोषण:

  • भारत जैसे देश में जहां शिक्षा, स्वास्थ्य और जागरूकता की कमी है, वहां यह कानून गलत हाथों में शोषण का उपकरण बन सकता है।

भारत के लिए आगे का मार्ग

भारत जैसे विविधतापूर्ण और सामाजिक रूप से जटिल देश के लिए सहायता प्राप्त मृत्यु पर कोई भी कदम अत्यंत सोच-विचार और चरणबद्ध तरीके से उठाया जाना चाहिए।

संभावित सुझाव:

  • सार्वजनिक विमर्श को प्रोत्साहित किया जाए – चिकित्सक, समाजशास्त्री, धार्मिक नेता और आम जनता की राय ली जाए।
  • पायलट योजनाएं शुरू की जाएं, जहाँ उच्च मानकों के तहत सीमित मामलों में परीक्षण किया जा सके।
  • पॉलिएटिव केयर सेवाओं का विस्तार किया जाए ताकि रोगियों को गरिमा से जीने और मरने – दोनों विकल्प मिल सकें।
  • कानूनी और नैतिक प्रशिक्षण चिकित्सा संस्थानों में दिया जाए।

सहायता प्राप्त मृत्यु का मुद्दा केवल कानून का नहीं, बल्कि जीवन के अंतिम क्षणों से जुड़े मानवीय मूल्यों, करुणा और गरिमा का है। ब्रिटेन द्वारा यह कदम उठाना एक साहसी और दूरदर्शी प्रयास माना जा सकता है। भारत को भी इस विषय पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है – न केवल एक संवेदनशील समाज के रूप में, बल्कि ऐसे राष्ट्र के रूप में जो अपने नागरिकों को अंतिम क्षणों में भी गरिमा और विकल्प देने की परिपक्वता रखता है।

क्या हम मृत्यु को भी उतनी ही गरिमा दे सकते हैं, जितनी हम जीवन को देते हैं? – यह प्रश्न आज के समय में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गया है।

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