सिमिलीपाल को मिला राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा

24 अप्रैल 2025 का दिन ओडिशा के लिए एक ऐतिहासिक क्षण बन गया, जब बहुप्रतीक्षित निर्णय के तहत सिमिलीपाल को आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा प्रदान किया गया। ओडिशा सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, सिमिलीपाल अब भारत का 107वां राष्ट्रीय उद्यान और राज्य का भितरकनिका के बाद दूसरा राष्ट्रीय उद्यान बन गया है। यह निर्णय न केवल राज्य के समृद्ध जैव विविधता को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने वाला कदम है, बल्कि सतत विकास और पारिस्थितिकीय संरक्षण के क्षेत्र में भी एक बड़ी छलांग है।

सिमिलीपाल का क्षेत्रफल और भौगोलिक स्थिति

सिमिलीपाल राष्ट्रीय उद्यान अब 845.70 वर्ग किलोमीटर के विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है। यह क्षेत्र सिमिलीपाल दक्षिण और उत्तर डिवीजनों के अंतर्गत आता है, जो कि कुल 11 रेंजों में विभाजित है। इन रेंजों में पीठाबाटा उत्तर, पीठाबाटा दक्षिण, नवाना, जेनाबिल, अपर बारहकमुड़ा, भांजबासा, बरेहीपानी, चाहला, नवाना उत्तर, और तालाबंधा जैसे प्रमुख क्षेत्र शामिल हैं। सिमिलीपाल की भौगोलिक स्थिति इसे भारत के सबसे समृद्ध वनों में से एक बनाती है, जहाँ विविध प्रकार की जलवायु, स्थलाकृति और पारिस्थितिकी तंत्र का अद्वितीय मिश्रण देखने को मिलता है।

जैव विविधता का भंडार

सिमिलीपाल जैव विविधता के मामले में एक अमूल्य धरोहर है। यहाँ पाए जाने वाली वन्यजीव प्रजातियाँ इसे एक अंतरराष्ट्रीय महत्व का पारिस्थितिकीय क्षेत्र बनाती हैं।
यहाँ के आंकड़े वाकई प्रभावशाली हैं:

  • 55 स्तनधारी प्रजातियाँ
  • 361 पक्षी प्रजातियाँ
  • 62 सरीसृप प्रजातियाँ
  • 21 उभयचर प्रजातियाँ

साथ ही, सिमिलीपाल को भारत के प्रमुख टाइगर रिज़र्व्स में भी गिना जाता है। यहाँ पर दुर्लभ सफेद बाघ भी पाए जाते हैं, जो इसे विशिष्ट बनाते हैं। इसके अलावा, हाथी, गौर, चीतल, सांभर, चार सिंगों वाला हिरण और कई प्रकार के सरीसृप व उभयचर यहां के पारिस्थितिकी तंत्र को समृद्ध बनाते हैं। सिमिलीपाल की घनी वनों से आच्छादित घाटियाँ, जलप्रपात, नदियाँ और पर्वतीय क्षेत्र इसे जैव विविधता के लिए एक आदर्श निवास स्थान बनाते हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सिमिलीपाल का संरक्षण यात्रा का इतिहास भी बेहद प्रेरणादायक रहा है।

  • 1973 में इसे आधिकारिक रूप से वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया गया था।
  • 1980 में इसे राष्ट्रीय उद्यान के रूप में प्रस्तावित किया गया था।
  • 2007 में सिमिलीपाल को क्रिटिकल टाइगर हैबिटेट के रूप में मान्यता प्राप्त हुई।

हालांकि, विभिन्न प्रशासनिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कारणों से राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा पाने में इसे कई दशक लग गए। अंततः, 24 अप्रैल 2025 को जारी आधिकारिक अधिसूचना के साथ यह सपना साकार हुआ। यह उपलब्धि सरकार, वन विभाग, वैज्ञानिक समुदाय और स्थानीय समुदायों के संयुक्त प्रयासों का प्रतिफल है।

मानव बस्तियों का पुनर्वास और संरक्षण चुनौती

राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा प्राप्त करने के लिए एक आवश्यक शर्त थी — कोर क्षेत्र को पूरी तरह से मानव निवास और घरेलू पशुओं की आवाजाही से मुक्त करना।
सिमिलीपाल के मूल क्षेत्र में पहले छह गांव — जमुनागड़ा, कबटघाई, बाकुआ, बारहकमुड़ा और बहाघर आदि बसे हुए थे।

इनमें से चार गांवों को सफलतापूर्वक पुनर्वासित कर दिया गया है।

  • बाकुआ गांव में अब भी लगभग 61 परिवार रह रहे हैं, इसलिए इस क्षेत्र को राष्ट्रीय उद्यान के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा गया है।
  • इस पुनर्वास प्रक्रिया में सरकार द्वारा बेहतर आवास, बुनियादी सुविधाएं, आजीविका के विकल्प और सामाजिक समावेशन की नीति अपनाई गई है।

यह प्रयास न केवल मानव अधिकारों का सम्मान करता है, बल्कि वन्यजीव संरक्षण के मूलभूत सिद्धांतों के भी अनुरूप है।

संरक्षण में नया युग

राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिलने के साथ सिमिलीपाल अब और अधिक कड़े संरक्षण कानूनों के तहत आ गया है। इसके प्रमुख प्रभाव होंगे:

  • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के अंतर्गत सख्त संरक्षण उपाय लागू किए जाएंगे।
  • पार्क क्षेत्र में वनों की अंधाधुंध कटाई, अवैध शिकार और अन्य मानवजनित खतरों पर रोक लगेगी।
  • विशेष रूप से बाघ संरक्षण के लिए अतिरिक्त राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फंडिंग प्राप्त होगी।
  • अनुसंधान, पारिस्थितिकी अध्ययन और सतत पारिस्थितिकी पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा।
  • सिमिलीपाल की जैव विविधता को युनेस्को विश्व धरोहर स्थल का दर्जा दिलाने के लिए भी अभियान तेज़ हो सकता है।

वन विभाग अब पार्क के बफर क्षेत्र में भी स्थायी संरक्षण मॉडल अपनाने की दिशा में कार्य करेगा, जिससे स्थानीय समुदायों के साथ सहयोग और समन्वय बढ़ेगा।

स्थानीय जनजातीय समुदायों के लिए नई संभावनाएँ

सिमिलीपाल क्षेत्र में आदिवासी संस्कृति की गहरी जड़ें हैं। मांकड़िया, हो, संथाल, भूमिज जैसे कई जनजातीय समुदाय पारंपरिक रूप से इस क्षेत्र से जुड़े रहे हैं। राष्ट्रीय उद्यान के रूप में क्षेत्र के पुनर्गठन से:

  • पुनर्वासित गांवों के लोगों को नए क्षेत्रों में सुरक्षित आवास, स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा, और आजीविका के वैकल्पिक साधन प्रदान किए जा रहे हैं।
  • “इको-डेवलपमेंट प्रोग्राम्स” के जरिए समुदाय आधारित पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा।
  • जनजातीय हस्तशिल्प, सांस्कृतिक विरासत और पारंपरिक ज्ञान को संरक्षण तथा बढ़ावा देने के प्रयास होंगे।

इस प्रकार, यह परिवर्तन जनजातीय समुदायों के लिए भी नए अवसर और सम्मानजनक जीवन स्तर का द्वार खोलता है।

राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएं

सिमिलीपाल को राष्ट्रीय उद्यान बनाए जाने के निर्णय ने राजनीतिक और सामाजिक हलकों में व्यापक समर्थन प्राप्त किया है।

  • मुख्यमंत्री मोहन चरण मांझी ने इसे “विकसित ओडिशा और विकसित भारत की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम” करार दिया।
  • प्रमुख मुख्य वन संरक्षक (PCCF) प्रेम कुमार झा ने कहा कि यह घोषणा न केवल राज्य की संरक्षण विरासत को सशक्त बनाती है, बल्कि स्थानीय जनजातीय समुदायों की आकांक्षाओं को भी ऊंचाई देती है।
  • कई पर्यावरणविदों और संरक्षण विशेषज्ञों ने भी इस पहल का स्वागत करते हुए कहा कि यह भारत की वन्यजीव संरक्षण नीति के इतिहास में एक मील का पत्थर है।

स्थानीय लोगों में भी खुशी की लहर है, क्योंकि उन्हें पर्यटन, रोजगार और सामाजिक विकास की नई संभावनाएँ दिख रही हैं।

भविष्य की राह | चुनौतियाँ और अवसर

हालाँकि राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिलना एक बड़ी उपलब्धि है, लेकिन अब भी कई चुनौतियाँ सामने हैं:

  • पार्क के आसपास के क्षेत्रों में अवैध शिकार और वन्यजीव-मानव संघर्ष को नियंत्रित करना होगा।
  • स्मार्ट संरक्षण तकनीकों — जैसे ड्रोन निगरानी, कैमरा ट्रैप्स, डेटा एनालिटिक्स को अपनाना जरूरी होगा।
  • स्थानीय समुदायों को सतत विकास में सहभागी बनाना अत्यावश्यक होगा।
  • जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के कारण बदलते पर्यावरणीय परिदृश्य के प्रति लचीलापन विकसित करना होगा।

यदि इन चुनौतियों का कुशलतापूर्वक समाधान किया जाए, तो सिमिलीपाल न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर संरक्षण का एक आदर्श मॉडल बन सकता है।

सिमिलीपाल का राष्ट्रीय उद्यान बनना केवल एक प्रशासनिक घोषणा नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक, पारिस्थितिकीय और सामाजिक आंदोलन का प्रतीक है। यह निर्णय भारत के वन्यजीव संरक्षण की दिशा में बढ़ते कदमों को दर्शाता है। साथ ही यह यह भी सिद्ध करता है कि विकास और पर्यावरण संरक्षण साथ-साथ चल सकते हैं।

ओडिशा ने सिमिलीपाल के संरक्षण के माध्यम से विश्व को यह संदेश दिया है कि जब इच्छाशक्ति, वैज्ञानिक सोच, और समुदायों की भागीदारी होती है, तो कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं है।
आने वाले वर्षों में सिमिलीपाल न केवल जैव विविधता का गढ़ रहेगा, बल्कि मानव और प्रकृति के बीच सामंजस्य का भी प्रतीक बनेगा।

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