आपातकाल के 50 वर्ष | भारत के सबसे काले अध्याय की पुनर्समीक्षा

यह लेख भारत में लागू आपातकाल (1975–1977) की 50वीं वर्षगांठ के अवसर पर उस ऐतिहासिक घटना का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसे भारतीय लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय काल माना जाता है। लेख में बताया गया है कि किस प्रकार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सत्ता बचाने की कोशिश में संवैधानिक मूल्यों, मौलिक अधिकारों और लोकतांत्रिक संस्थाओं को कुचल डाला। इसमें 1970 के दशक की आर्थिक अस्थिरता, जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में उभरे जनांदोलन, जॉर्ज फर्नांडिस की रेलवे हड़ताल, और इलाहाबाद हाईकोर्ट के ऐतिहासिक फैसले से लेकर 25 जून 1975 की रात आपातकाल की घोषणा तक की घटनाओं को क्रमबद्ध और सजीव रूप में प्रस्तुत किया गया है।

लेख में मीडिया सेंसरशिप, राजनीतिक गिरफ्तारियों, संजय गांधी के जबरन नसबंदी कार्यक्रम, 42वें संविधान संशोधन जैसे मुद्दों को गहराई से उजागर किया गया है। साथ ही, 1977 में हुए आम चुनाव, इंदिरा गांधी की पराजय, और जनता पार्टी की ऐतिहासिक विजय से लेकर 44वें संशोधन और मंडल आयोग जैसे संवैधानिक एवं सामाजिक सुधारों का प्रभाव विस्तारपूर्वक बताया गया है।

यह लेख न केवल आपातकाल के दमनकारी स्वरूप को उजागर करता है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की पुनर्स्थापना, जनता की शक्ति, और भविष्य के लिए सीखी गई लोकतांत्रिक सतर्कता की महत्ता को भी रेखांकित करता है। यह पढ़ने योग्य ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक दस्तावेज है जो पाठकों को भारत की राजनीतिक चेतना की जड़ों तक पहुँचाता है।

Table of Contents

प्रस्तावना

25 जून 1975 की रात भारतीय गणराज्य के इतिहास में एक ऐसा मोड़ बन गई जिसे आज 50 वर्षों बाद भी “लोकतंत्र पर हमला” माना जाता है। यह वह रात थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू किया और अगले 21 महीनों तक देश ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संवैधानिक संस्थाओं, प्रेस, और नागरिक अधिकारों के अभूतपूर्व दमन का अनुभव किया। यह घटना न केवल भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं पर आघात थी, बल्कि इससे उपजे राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन देश की दिशा को स्थायी रूप से प्रभावित कर गए।

1970 का दशक: असंतोष, संकट और आक्रोश

1971 में इंदिरा गांधी ने भारी बहुमत से चुनाव जीतकर सत्ता में वापसी की थी। लेकिन जल्द ही उनकी सरकार कई मोर्चों पर संकट में घिर गई। 1971 के भारत-पाक युद्ध ने उन्हें “बांग्लादेश की रचयिता” का गौरव दिलाया, परंतु युद्ध का आर्थिक बोझ देश की जर्जर अर्थव्यवस्था के लिए भारी साबित हुआ।

1973 में आए वैश्विक तेल संकट ने पहले से धीमी अर्थव्यवस्था को और अधिक संकटग्रस्त कर दिया। महंगाई, बेरोजगारी और खाद्य संकट ने आम जनता के जीवन को कठिन बना दिया। देश में भ्रष्टाचार और नौकरशाही की नाकामी से जन-आक्रोश बढ़ता गया, जिसने सरकार की वैधता पर प्रश्न खड़े कर दिए।

छात्र आंदोलन: नई क्रांति की आहट

इसी अशांति के बीच फरवरी 1974 में गुजरात में ‘नव निर्माण आंदोलन’ शुरू हुआ। इस छात्र आंदोलन ने राज्य सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाई और मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल को इस्तीफा देना पड़ा। गुजरात की सफलता ने बिहार में भी उबाल ला दिया, जहाँ छात्रों और युवाओं ने व्यापक आंदोलन छेड़ दिया।

बिहार आंदोलन में पहली बार समाजवादी, दक्षिणपंथी और वामपंथी ताकतें एक साथ आईं और “छात्र संघर्ष समिति” के बैनर तले कांग्रेस सरकार के विरुद्ध संगठित विरोध शुरू किया। यह विरोध न केवल राजनीतिक था, बल्कि सामाजिक न्याय और पारदर्शिता की मांग का प्रतीक भी बना।

जयप्रकाश नारायण और संपूर्ण क्रांति का आह्वान

बिहार आंदोलन को नैतिक बल तब मिला जब गांधीवादी नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जयप्रकाश नारायण (जेपी) ने इसमें नेतृत्व संभाला। उन्होंने 5 जून 1974 को पटना के गांधी मैदान में “संपूर्ण क्रांति” का आह्वान किया और युवाओं को राजनीति से जुड़ने की प्रेरणा दी।

जेपी आंदोलन में राष्ट्रव्यापी प्रभाव की क्षमता थी। उन्होंने “सिंहासन खाली करो, जनता आती है” का नारा देकर लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने का जनांदोलन शुरू किया। जेपी की लोकप्रियता और नैतिक ताकत ने इंदिरा गांधी की सरकार को गहराई से झकझोर दिया।

श्रमिक आंदोलन और रेलवे हड़ताल

जेपी आंदोलन के समानांतर मई 1974 में जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में भारतीय रेलवे की ऐतिहासिक हड़ताल हुई, जिससे देश की आर्थिक जीवनरेखा कहे जाने वाले रेलवे यातायात को तीन सप्ताह तक रोक दिया गया। यह हड़ताल सरकार के लिए एक और चेतावनी थी कि संगठित मजदूर वर्ग भी विरोध में उतर चुका है।

रेलवे हड़ताल ने यह स्पष्ट कर दिया कि असंतोष केवल छात्र और राजनीतिक स्तर पर ही नहीं था, बल्कि श्रमिक वर्ग भी सरकार के विरुद्ध हो चुका था। इससे इंदिरा गांधी सरकार की स्थिरता पर और प्रश्नचिह्न लग गया।

इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला: एक निर्णायक क्षण

12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को 1971 के चुनाव में सरकारी साधनों के दुरुपयोग का दोषी ठहराया और उनका चुनाव रद्द कर दिया। इस फैसले ने प्रधानमंत्री पद पर उनकी वैधता को सीधे चुनौती दी।

जबकि विपक्ष ने उनके इस्तीफे की मांग शुरू कर दी, इंदिरा गांधी ने अपने पद पर बने रहने का निश्चय किया। उन्हें डर था कि सत्ता खोने से उनके और उनके पुत्र संजय गांधी के राजनीतिक भविष्य पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। यही भय अंततः उन्हें आपातकाल लागू करने की ओर ले गया।

25 जून 1975: आपातकाल की घोषणा

25 जून 1975 की रात राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर किए। उसी रात दिल्ली के प्रमुख अखबारों की बिजली काट दी गई ताकि अगले दिन आपातकाल की खबर को सेंसर किया जा सके।

सुबह 8 बजे इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो पर घोषणा की:
“देश की एकता और अखंडता खतरे में है… आपातकाल घोषित किया गया है।”

इस कदम से यह स्पष्ट हो गया कि सरकार पहले से सूचना नियंत्रण, विपक्ष के दमन और असहमति को कुचलने की योजना बना चुकी थी।

संविधान और लोकतंत्र का क्षरण

आपातकाल की अवधि में भारतीय संविधान को कार्यपालिका के अधीन लाकर लोकतांत्रिक संस्थाओं की आत्मा को कुचल दिया गया। संसद, न्यायपालिका, मीडिया और नागरिक अधिकार – सब कुछ केंद्र सरकार के नियंत्रण में आ गया।

राज्य सरकारें भंग किए बिना केंद्र की कठपुतली बन गईं। संसद ने राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बनाए, और राष्ट्रपति ने वित्तीय प्रावधानों में संशोधन कर संघीय ढांचे की जड़ों को हिला दिया।

विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी और दमनचक्र

आपातकाल के दौरान करीब 1.12 लाख से अधिक लोगों को बिना मुकदमे गिरफ्तार किया गया। इनमें जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस, मोरारजी देसाई और रामविलास पासवान जैसे प्रमुख नेता शामिल थे।

इन गिरफ्तारियों के लिए मुख्य रूप से MISA (Maintenance of Internal Security Act), COFEPOSA और डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स जैसे कठोर कानूनों का इस्तेमाल किया गया। इन कानूनों के तहत न्यायिक हस्तक्षेप लगभग असंभव था।

प्रेस सेंसरशिप और मीडिया का गला घोंटना

आपातकाल में सबसे पहले जिस अधिकार को निलंबित किया गया वह था — अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत प्रेस पर पूर्ण सेंसरशिप लागू कर दी गई। संपादकों को पहले से सेंसरशिप अधिकारी की अनुमति लेनी होती थी।

‘द स्टेट्समैन’ और ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे कुछ अखबारों ने प्रतिरोध का साहस दिखाया। द इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रामनाथ गोयनका ने एक खाली एडिटोरियल कॉलम छाप कर विरोध जताया।

संजय गांधी और अधिनायकवादी प्रयोग

इंदिरा गांधी के छोटे पुत्र संजय गांधी को सत्ता में कोई संवैधानिक पद प्राप्त नहीं था, फिर भी उन्होंने आपातकाल में असाधारण प्रभाव जमा लिया। उनका पांच सूत्रीय कार्यक्रम – परिवार नियोजन, वृक्षारोपण, झुग्गी हटाओ, बाल विवाह उन्मूलन और साक्षरता अभियान – जबरदस्ती लागू किया गया।

सबसे अमानवीय पहलू था जबरन नसबंदी अभियान। सरकारी कार्यालयों और जन सेवाओं को नसबंदी लक्ष्य से जोड़ दिया गया। पुलिस द्वारा लोगों को जबरन नसबंदी शिविरों में ले जाया गया। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और दिल्ली के तुर्कमान गेट पर हुए नरसंहारों में सरकारी हिंसा का वीभत्स चेहरा सामने आया।

42वां संवैधानिक संशोधन: लोकतंत्र की रीढ़ पर प्रहार

1976 में पारित 42वें संविधान संशोधन को भारत के लोकतंत्र पर सबसे गंभीर हमला माना जाता है। इस संशोधन में:

  • संसद को असीमित अधिकार दे दिए गए,
  • न्यायिक समीक्षा की शक्ति सीमित कर दी गई,
  • संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए,
  • और नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों की नई परिभाषा दी गई।

इस संशोधन ने सत्ता के केंद्र में अद्वितीय केंद्रीकरण कर दिया और न्यायपालिका को लगभग निष्प्रभावी बना दिया।

चुनावी प्रक्रिया का हेरफेर: लोकतांत्रिक इच्छाशक्ति की अवहेलना

आपातकाल लागू होने के पश्चात एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया—चुनाव—को टालने के लिए केंद्र सरकार ने लोकसभा का कार्यकाल, जो 1976 में समाप्त होना था, एक संवैधानिक संशोधन के माध्यम से एक वर्ष के लिए बढ़ा दिया। यह निर्णय स्पष्ट रूप से सत्ता को बनाए रखने की मंशा से प्रेरित था, जिससे आम जनता को अपने मताधिकार के प्रयोग से वंचित किया जा सके।

सत्ता पक्ष का यह तर्क था कि देश की “आंतरिक स्थिति” चुनाव कराने के अनुकूल नहीं है, परंतु वास्तविकता यह थी कि सरकार को अपनी लोकप्रियता के गिरते स्तर का भान हो चुका था। इस निर्णय ने एक बार फिर यह स्पष्ट कर दिया कि इंदिरा गांधी नेतृत्व वाली सरकार लोकतंत्र की मूल भावना से अधिक सत्ता की निरंतरता को प्राथमिकता दे रही थी।

अप्रत्याशित निर्णय: आपातकाल की समाप्ति और आम चुनाव की घोषणा

हालांकि सत्ता बनाए रखने के हरसंभव प्रयासों के बावजूद, जनवरी 1977 में इंदिरा गांधी ने अचानक आपातकाल हटाने और मार्च में आम चुनाव कराने की घोषणा कर दी। यह निर्णय जितना अप्रत्याशित था, उतना ही राजनीतिक रूप से जोखिम भरा भी।

इस निर्णय के पीछे कई अटकलें थीं। कुछ का मानना था कि संजय गांधी और इंदिरा गांधी को यह विश्वास था कि सरकारी प्रचार, प्रेस नियंत्रण और विपक्षी नेताओं की अनुपस्थिति के चलते वे एक बार फिर सत्ता में लौट आएंगे। वहीं कुछ इतिहासकारों का मत है कि अंतर्राष्ट्रीय दबाव, विशेष रूप से पश्चिमी लोकतंत्रों की आलोचना, और देश के भीतर बढ़ते असंतोष ने उन्हें यह कदम उठाने पर मजबूर कर दिया।

1977 का आम चुनाव: जनता का जनादेश और सत्ता परिवर्तन

मार्च 1977 में हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी के आत्मविश्वास का भ्रम टूट गया। देश की जनता, विशेष रूप से उत्तर भारत, ने इस चुनाव को अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के पुनः स्थापना के अवसर के रूप में लिया।

कांग्रेस पार्टी को ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा। स्वयं इंदिरा गांधी और संजय गांधी तक अपनी सीट नहीं बचा सके। जनता पार्टी, जिसमें भारतीय लोक दल, जनसंघ, कांग्रेस (ओ) और समाजवादी समूह शामिल थे, को स्पष्ट बहुमत मिला। मोरारजी देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने और लोकतंत्र ने पुनः विजय प्राप्त की।

संवैधानिक सुधार और लोकतंत्र की पुनर्स्थापना

जनता पार्टी सरकार ने आपातकाल के दौरान किए गए कई विवादास्पद संवैधानिक संशोधनों को निरस्त करने का कार्य किया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण था 44वां संविधान संशोधन (1978), जिसने आपातकाल लागू करने की प्रक्रिया को कठिन बना दिया।

इस संशोधन के अंतर्गत:

  • अब आंतरिक अव्यवस्था (internal disturbance) के आधार पर आपातकाल नहीं लगाया जा सकता था। इसे केवल “सशस्त्र विद्रोह” (armed rebellion) की स्थिति में ही लागू किया जा सकता था।
  • आपातकाल की घोषणा के लिए संसद की विशेष बहुमत से अनुमोदन आवश्यक कर दिया गया।
  • नागरिक अधिकारों को बिना न्यायिक समीक्षा के समाप्त नहीं किया जा सकता था।

इन सुधारों ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को एक बार फिर सशक्त बनाया और कार्यपालिका की निरंकुशता पर संवैधानिक अंकुश लगाए।

दीर्घकालिक राजनीतिक प्रभाव: सामाजिक न्याय और नए गठबंधनों की शुरुआत

आपातकाल और उसके पश्चात के घटनाक्रमों ने भारतीय राजनीति में दीर्घकालिक बदलावों की नींव रखी। जनता पार्टी सरकार में पहली बार भारतीय राजनीति में वृहद सामाजिक गठबंधनों की आवश्यकता और शक्ति को पहचाना गया।

  • भारतीय जनसंघ (जो बाद में भारतीय जनता पार्टी बनी), समाजवादी दल, किसान संगठनों, और पिछड़े वर्गों के नेताओं ने एक साझा मंच पर काम करना शुरू किया।
  • इसी सरकार ने मंडल आयोग (1979) का गठन किया, जो बाद में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए आरक्षण की सिफारिशों के कारण ऐतिहासिक बना।
  • यह दौर क्षेत्रीय पार्टियों, पिछड़े वर्गों और दलित नेतृत्व के राजनीतिक उभार की शुरुआत भी बना।

नई पीढ़ी के नेताओं का उभार

आपातकाल के दौरान जेल गए और विपक्ष के संघर्ष में भाग लेने वाले कई युवा नेताओं ने भारतीय राजनीति में अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज की। इनमें प्रमुख नाम थे:

  • लालू प्रसाद यादव – जिन्होंने बाद में बिहार की राजनीति पर गहरा प्रभाव डाला।
  • रामविलास पासवान – सामाजिक न्याय की राजनीति के प्रमुख स्तंभ बने।
  • जॉर्ज फर्नांडिस – श्रमिक आंदोलनों और राष्ट्रवाद के संयोजन का प्रतीक बने।
  • अरुण जेटली – युवा छात्र नेता के रूप में उभरे और बाद में राष्ट्रीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण पदों पर रहे।

इन नेताओं ने आने वाले दशकों में भारतीय राजनीति की दिशा और विमर्श को प्रभावित किया।

स्थायी विरासत: लोकतंत्र की नाजुकता और जनबल की ताकत

आपातकाल के अनुभव ने भारत को दो स्पष्ट शिक्षाएँ दीं:

  1. लोकतंत्र की नाजुकता: यदि संवैधानिक संस्थाएं सतर्क न हों और नागरिक समाज निष्क्रिय हो जाए, तो लोकतंत्र पर हमला कोई दूर की बात नहीं रह जाती।
  2. जनता का निर्णायक बल: भले ही सत्ता के सारे साधन केंद्र सरकार के पास हों, लेकिन अंतिम निर्णय जनता का होता है, जो अपने मत से अधिनायकवादी शासन को उखाड़ फेंक सकती है।

इसने भारतीय राजनीति में कांग्रेस के एकदलीय प्रभुत्व को हमेशा के लिए तोड़ने की प्रक्रिया शुरू कर दी, जिसकी परिणति 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत में देखी जा सकती है।

आपातकाल और उसका उत्तरकाल केवल इतिहास की घटनाएँ नहीं हैं, वे चेतावनियाँ हैं – वर्तमान और भविष्य के लिए। लोकतंत्र का मूल्य केवल चुनावों से नहीं, बल्कि नागरिक अधिकारों, स्वतंत्र प्रेस, निष्पक्ष न्यायपालिका, और सक्रिय विपक्ष से निर्धारित होता है।

आज जब इस घटना के 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं, यह आवश्यक है कि हम केवल याद न करें, बल्कि चेतें और यह सुनिश्चित करें कि लोकतंत्र के नाम पर कोई फिर ऐसा दुस्साहस न कर सके।

निष्कर्ष

आपातकाल केवल एक राजनीतिक गलती नहीं थी, यह लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों पर सीधा हमला था। आज, जब हम इसके 50 वर्ष पूरे होने पर विचार करते हैं, यह जरूरी हो जाता है कि हम न केवल इतिहास को याद करें, बल्कि लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए सजग भी रहें।

  • लोकतंत्र नाजुक है – यदि सत्ता की भूख असीमित हो, तो संविधान भी बाधा नहीं बन पाता।
  • लेकिन जनता सर्वोपरि है – जनता जाग जाए, तो अधिनायकवाद भी टिक नहीं पाता।

अंततः —
लोकतंत्र कोई दीवारों में बंद व्यवस्था नहीं, यह जागरूक नागरिकों की सतत चेतना है।

Polity – KnowledgeSthali
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