हिंदी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के प्रथम चरण को ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है। यह काल 1850 ई. से 1900 ई. तक माना जाता है और इसे हिंदी साहित्य में आधुनिकता तथा पुनर्जागरण का प्रवेश द्वार कहा गया है। इस युग के प्रतिनिधि लेखक, संपादक, कवि, नाटककार एवं पत्रकार भारतेंदु हरिश्चंद्र थे। उन्होंने न केवल साहित्य को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना से जोड़ा, बल्कि भारतीय जनमानस में नवजागरण की अलख भी जगाई। इस युग में साहित्यकारों की एक ऐसी टोली तैयार हुई जो देश, समाज और भाषा के प्रति समर्पित थी।
भारतेंदु युग का परिचय
भारतेंदु युग (1850 ई. – 1900 ई.) को हिंदी साहित्य के नवजागरण काल और आधुनिक युग के प्रथम चरण के रूप में जाना जाता है। यह वह काल है जब हिंदी साहित्य ने पारंपरिक रुढ़ियों को तोड़कर आधुनिक चेतना, सामाजिक सरोकारों और राष्ट्रीय भावनाओं से प्रेरित होकर एक नए मार्ग पर अग्रसर होना प्रारंभ किया। इस युग का केन्द्रीय व्यक्तित्व भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850–1885 ई.) हैं, जिनकी रचनात्मकता, संपादकीय नेतृत्व, नाटक लेखन, कविता, आलोचना और पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हिंदी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया।
भारतेंदु युग का आरंभ प्रायः भारतेंदु हरिश्चंद्र के साहित्यिक पदार्पण (1850 या 1857 ई.) से माना जाता है और इसकी समाप्ति 1900 ई. तक मानी जाती है। कुछ विद्वान इसकी समय-सीमा 1868 से 1902 ई. तक भी मानते हैं, परंतु सर्वमान्य सीमा 1850 से 1900 ई. है।
इस युग में रचनात्मक साहित्य के साथ-साथ हिंदी गद्य के विविध रूपों – जैसे निबंध, नाटक, पत्रकारिता, आलोचना, यात्रावृत्त, जीवनी और रिपोर्ताज आदि का विकास हुआ। इस युग में साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन न होकर समाज-सुधार, देशभक्ति, नारी-उत्थान, स्वदेशी भाव और राजनीतिक चेतना का प्रचार भी था।
भारतेंदु युग की मुख्य विशेषताएँ:
- राष्ट्रीय चेतना और सामाजिक सुधार का स्वर
- पत्रकारिता का विकास – कविवचनसुधा, हरिश्चंद्र चंद्रिका, नागरी प्रचारिणी पत्रिका जैसी प्रमुख पत्रिकाओं का प्रकाशन
- भाषा आंदोलन और खड़ी बोली का समर्थन
- ब्रजभाषा में भावमय काव्य और खड़ी बोली में गद्य का विकास
- साहित्यिक संस्थाओं का गठन – जैसे कवितावर्धिनी सभा, रसिक समाज, नागरी प्रचारिणी सभा
- अनुवाद, व्याकरण, आलोचना और नाट्य साहित्य का आरंभिक विकास
भारतेंदु युग में अनेक कवि और लेखक सक्रिय थे, जिनमें बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, प्रतापनारायण मिश्र, अंबिकादत्त व्यास, राधाकृष्णदास, ठाकुर जगमोहन सिंह आदि प्रमुख हैं।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि भारतेंदु युग हिंदी साहित्य में नवजागरण, राष्ट्रचेतना और आधुनिकता का प्रारंभिक चरण था, जिसकी नींव पर आगे चलकर द्विवेदी युग और छायावाद जैसे साहित्यिक आंदोलनों का निर्माण हुआ।
भारतेंदु युग की समय-सीमा
भारतेंदु हरिश्चंद्र के साहित्यिक योगदान और उनके प्रभाव से प्रेरित रचनात्मक चेतना के आधार पर भारतेंदु युग की समय-सीमा सामान्यतः 1850 ई. से 1900 ई. तक मानी जाती है।
कुछ विद्वान भारतेंदु की साहित्यिक सक्रियता और 1857 की राष्ट्रीय जागरण से जुड़ी घटनाओं को ध्यान में रखते हुए 1857 से 1900 ई. तथा कुछ अन्य 1868 से 1902 ई. तक भी मानते हैं।
परंतु सर्वमान्य और सबसे अधिक स्वीकृत समय-सीमा है: 1850 ई. से 1900 ई.
भारतेंदु हरिश्चंद्र का व्यक्तित्व और योगदान
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 को वाराणसी में हुआ था। वे एक बहुआयामी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। वे लेखक, कवि, नाटककार, निबंधकार, पत्रकार और समाज सुधारक थे। उन्हें हिंदी साहित्य में ‘आधुनिकता का प्रवर्तक’ और ‘हिंदी नाटक का जनक’ कहा जाता है। उनके व्यक्तित्व में ओजस्विता, संगठन क्षमता, नेतृत्व गुण और समाज सुधार की प्रबल चेतना थी। वे उस समय के युवाओं के प्रेरणास्रोत थे।
डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के अनुसार, “प्राचीन से नवीन के संक्रमण काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र भारतवासियों की नवोदित आकांक्षाओं और राष्ट्रीयता के प्रतीक थे; वे भारतीय नवोत्थान के अग्रदूत थे।” उन्होंने राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद और राजा लक्ष्मण सिंह की परस्पर भिन्न लेखन शैलियों में समन्वय स्थापित कर मध्यम मार्ग अपनाया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने साहित्य को जनमानस से जोड़ते हुए काव्य को दरबारी वातावरण से निकालकर सामाजिक यथार्थ और जनचेतना से जोड़ा। उन्होंने ब्रजभाषा को काव्य भाषा के रूप में बनाए रखा और खड़ी बोली के विकास की दिशा में भी प्रयास किए।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ
भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रमुख काव्य एवं गद्य कृतियाँ इस प्रकार हैं:
- काव्य कृतियाँ: “वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति”, “भारत दुर्दशा”, “अंधेर नगरी”, “सत्य हरिश्चंद्र नाटक”।
- नाट्य रचनाएँ: “भारत दुर्दशा”, “अंधेर नगरी चौपट राजा” (लोकप्रिय व्यंग्य नाटक)
- पत्र-पत्रिकाएँ: ‘कवि वचन सुधा’ (1868), ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’ (1873), ‘बालबोधिनी’ (1874) – विशेष रूप से नारी शिक्षा हेतु।
इनके माध्यम से उन्होंने समाज की समस्याओं, धार्मिक पाखंडों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक दासता के विरुद्ध आवाज उठाई।
भारतेंदु युग की प्रमुख प्रवृत्तियाँ
भारतेंदु युग में साहित्य में अनेक नवीन प्रवृत्तियाँ दिखाई देती हैं। इस युग की प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं:
- राष्ट्रीयता का उदय: भारतेंदु युग की सबसे बड़ी विशेषता राष्ट्रीय चेतना का विकास था। इस काल में अंग्रेजी शासन की आलोचना, स्वदेशी भावना, भारतीय सांस्कृतिक गौरव और देशप्रेम जैसे तत्व साहित्य में उभर कर सामने आए।
- सामाजिक चेतना: जातीय असमानता, अंधविश्वास, नारी अशिक्षा, बाल विवाह जैसे मुद्दों पर लेखकों ने कलम चलाई और समाज सुधार की दिशा में साहित्य को साधन बनाया।
- देशानुराग-व्यंजक भक्ति भावना: इस युग की भक्ति भावना केवल धार्मिक नहीं रही, अपितु उसमें देश के प्रति समर्पण की झलक देखने को मिलती है।
- भक्ति एवं श्रृंगार रस की प्रधानता: रीति काल की परंपरा में श्रृंगार प्रधान रचनाएँ भी इस युग में दिखाई देती हैं। साथ ही भक्ति रस की भी अनेक रचनाएँ रची गईं।
- प्रकृति चित्रण: यद्यपि यह प्रवृत्ति बाद के युगों में परिपक्व हुई, परंतु भारतेंदु युग में भी प्राकृतिक सौंदर्य का चित्रण देखा जा सकता है।
- हास्य-व्यंग्य रचनाएँ: सामाजिक कुरीतियों, राजनैतिक भ्रष्टाचार और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य इस युग की एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति थी।
- रीति निरूपण और समस्यापूर्ति: पारंपरिक काव्यशास्त्रीय विधियों का भी प्रयोग हुआ, विशेषतः दरबारी कवियों के बीच समस्यापूर्ति की प्रवृत्ति प्रचलित रही।
- ब्रजभाषा का प्रयोग: इस युग में काव्य की भाषा मुख्यतः ब्रजभाषा रही, हालांकि खड़ी बोली में भी कुछ प्रयास हुए जो सीमित रहे।
- काव्यानुवाद: संस्कृत और अंग्रेजी काव्य कृतियों के अनुवादों का आरंभ इस युग में हुआ, जिससे भारतीय साहित्य का क्षितिज विस्तृत हुआ।
- मुक्तक काव्य रूप की प्रधानता: इस युग में प्रबंध की अपेक्षा मुक्तक काव्य की रचनाएँ अधिक हुईं, जिनमें तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन का चित्रण किया गया।
भारतेंदु युग में रीतिनिरूपक ग्रंथ और रचनाकार
भारतेंदु युग में परंपरागत रीति परंपरा का प्रभाव बना रहा, जिसका प्रमाण रीतिनिरूपक ग्रंथों की रचना में मिलता है। इस युग के रीतिकालीन स्वरूप में शृंगार, अलंकार, रस और छंद का व्यवस्थित विवेचन मिलता है। कुछ रचनाएँ तो गद्य में भी रची गईं, जो इस युग की विविधता को दर्शाती हैं।
प्रमुख रीतिनिरूपक कवि और उनके ग्रंथ:
क्रम | कवि | ग्रंथ | रीतिनिरूपण की विशेषता |
---|---|---|---|
1. | लछिराम (ब्रह्मभट्ट) | महेश्वर विलास | नायिका भेद एवं नवरस |
2. | लछिराम (ब्रह्मभट्ट) | रामचंद्र भूषण | अलंकार निरूपण |
3. | लछिराम (ब्रह्मभट्ट) | रावणेश्वर कल्पतर | सर्व-काव्यांग निरूपण |
4. | मुरारिदान | जसवंत जसोभूषण (1893) | अलंकार ग्रंथ |
5. | बालगोविंद मिश्र | भाषाछंद प्रकाश (1899) | छंद निरूपण |
6. | अयोध्या नरेश प्रतापनारायण सिंह | रस कुसुमाकर (1894) | गद्य रूप में रस निरूपण |
7. | कन्हैयालाल पोद्दार | अलंकार प्रकाश (1896) | गद्य में अलंकार निरूपण |
भारतेंदु युग में रामभक्ति काव्य और कवि
भारतेंदु युग में यद्यपि सामाजिक, राष्ट्रीय और व्यंग्य रचनाओं की प्रधानता रही, फिर भी भक्ति विशेषतः रामभक्ति काव्य की भी उल्लेखनीय उपस्थिति रही। कवियों ने रामकथा पर आधारित ग्रंथों की रचना की, जो तत्कालीन धार्मिक चेतना और सांस्कृतिक जुड़ाव को प्रकट करते हैं।
प्रमुख रामभक्ति काव्य और उनके रचनाकार:
क्रम | कवि | रचना |
---|---|---|
1. | हरिनाथ पाठक | श्री ललित रामायण |
2. | अक्षय कुमार ‘रसिक’ | विलास रामायण |
3. | बाबू तोताराम | राम रामायण |
4. | घनारंग दुबे | कृष्ण रामायण (1894) |
5. | गुणमंजरीदास | श्रीयुगलछद्म, रहस्यपद |
गुणमंजरीदास, जो राधाचरण गोस्वामी के पिता थे, ने भक्तिपरक रचनाओं द्वारा इस युग की धार्मिक साहित्यिक परंपरा को सशक्त किया।
भारतेंदु युग के प्रमुख कवि
भारतेंदु युग में अनेक कवि हुए जिन्होंने साहित्य को नये आयाम दिए। प्रमुख कवियों के नाम और संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित हैं:
- भारतेंदु हरिश्चंद्र – युग के प्रवर्तक, ओजपूर्ण राष्ट्रीय कवि।
- बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ – कोमल भावनाओं के कवि, ‘आनंद कादम्बिनी’ के संपादक।
- प्रतापनारायण मिश्र – व्यंग्य लेखन के लिए प्रसिद्ध, ‘ब्राह्मण’ पत्रिका के संपादक।
- ठाकुर जगमोहन सिंह – सामाजिक चेतना से युक्त कवि।
- अंबिकादत्त व्यास – धार्मिक और नैतिक मूल्यों पर आधारित काव्य रचनाएँ।
अन्य कवि:
- बाबू राधाकृष्ण दास
- लाला सीताराम बी.ए.
- बालमुकुंद गुप्त
- मिश्रबंधु
- जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’
- राय देवीप्रसाद पूर्ण
- वियोगी हरि
- सत्यनारायण ‘कविरत्न’
- श्रीनिवास दास
- राधाचरण गोस्वामी
- नवनीतलाल चतुर्वेदी
- बालकृष्ण भट्ट
इन कवियों की रचनाओं में तत्कालीन समाज की समस्याओं, सांस्कृतिक चेतना, देशप्रेम और सामाजिक सुधार के स्वर स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं।
भारतेंदु युग में सतसई साहित्य
भारतेंदु युग में सतसई लेखन की परंपरा भी प्रमुख रही। कई कवियों ने इस शैली में रचनाएँ कीं:
क्रम | सतसईकार | सतसई |
---|---|---|
1. | अंबिकादत्त व्यास | सुकवि सतसई |
2. | हरिऔध | कृष्ण शतक |
3. | वियोगी हरि | वीर सतसई |
4. | गुलाब सिंह | प्रेम सतसई |
भारतेंदु युग में रचित प्रबंध काव्य
क्रम | कवि | प्रबंध काव्य |
---|---|---|
1. | हरिनाथ पाठक | श्री ललित रामायण |
2. | बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ | जीर्ण जनपद, मयंक महिमा |
3. | अंबिकादत्त व्यास | कंसबध (अपूर्ण) |
4. | गुरुभक्त सिंह | नूरजहाँ |
भारतेंदु युग में समस्यापूर्ति परंपरा
इस युग में समस्यापूर्ति कविता लेखन की एक लोकप्रिय विधा बन गई थी। कई कवियों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया:
प्रमुख समस्यापूर्ति संग्रह और कवि:
कुछ चर्चित समस्यापूर्ति संग्रह और कवि के नाम इस प्रकार हैं-
क्रम | कवि | संग्रह नाम |
---|---|---|
1. | दुर्गादत्त व्यास | समस्यापूर्ति-प्रकाश |
2. | अंबिकादत्त व्यास | समस्यापूर्ति-सर्वस्व |
3. | गोविंद गिल्लाभाई | समस्यापूर्ति-प्रदीप |
4. | गंगाधर ‘द्विजगंग’ | समस्या-प्रकाश |
5. | नर्मदेश्वरप्रसाद सिंह | पंचरत्न |
कुछ प्रसिद्ध समस्यापूर्ति पंक्तियाँ:
कुछ चर्चित समस्यापूर्तियों की पंक्तियाँ व उनके कवि इस प्रकार हैं-
क्रम | कवि | पंक्ति |
---|---|---|
1. | प्रतापनारायण मिश्र | ‘पपीहा जब पूछिहै पीव कहाँ’ |
2. | बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ | ‘चरचा चलिबे की चलाइए ना’ |
3. | भारतेंदु हरिश्चंद्र | ‘पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना अंखियाँ दुखियाँ नहिं मानती है’ |
4. | अंबिकादत्त व्यास | ‘पूरी अमी की कटोरिया सी, चिरंजीवी रहौ विक्टोरिया रानी’ |
पत्रकारिता और साहित्य
भारतेंदु युग में अनेक कवि और लेखक पत्रकारिता से भी जुड़े रहे। उन्होंने साहित्य को जनचेतना का माध्यम बनाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया। प्रमुख साहित्यकार-पत्रकार इस प्रकार हैं:
- बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ – ‘आनंद कादम्बिनी’ (मिर्जापुर)
- प्रतापनारायण मिश्र – ‘ब्राह्मण’ (कानपुर)
- बालकृष्ण भट्ट – ‘हिंदी प्रदीप’ (प्रयाग)
- तोताराम – ‘भारत बंधु’ (अलीगढ़)
भारतेंदु स्वयं भी ‘कवि वचन सुधा’, ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’ और ‘बालबोधिनी’ जैसे पत्रों के संपादक रहे। पत्रकारिता को उन्होंने समाज सुधार और राष्ट्रीय चेतना के प्रचार का माध्यम बनाया।
भारतेंदु युग के साहित्यिक मंच और संस्थाएँ
भारतेंदु युग में साहित्यिक रचनात्मकता को संगठित करने के लिए विभिन्न मंचों और संस्थाओं की स्थापना हुई। प्रमुख मंच और उनके संस्थापक निम्न हैं:
क्रम | मंच/संस्था | संस्थापक | स्थान |
---|---|---|---|
1. | कवितावर्धिनी (1870) | भारतेंदु हरिश्चंद्र | काशी |
2. | तदीय समाज (1873) | भारतेंदु हरिश्चंद्र | काशी |
3. | पेनी रीडिंग क्लब (1873) | भारतेंदु हरिश्चंद्र | काशी |
4. | रसिक समाज | – | कानपुर |
5. | कवि समाज | बाबा सुमेर सिंह | निजामाबाद (आजमगढ़) |
इन संस्थाओं ने साहित्यिक विचारों, कविताओं के पाठ और सामाजिक चेतना के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारतेंदु युग के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ
भारतेंदु युग (1850–1900) हिंदी साहित्य के नवजागरण काल के रूप में जाना जाता है, जिसमें कवियों ने साहित्य को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना से जोड़ा। इस युग के प्रमुख कवियों में भारतेंदु हरिश्चंद्र, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, प्रतापनारायण मिश्र, अंबिकादत्त व्यास, ठाकुर जगमोहन सिंह, राधाकृष्णदास आदि शामिल हैं। इन कवियों ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली में रचनाएँ कर न केवल भाषा को समृद्ध किया, बल्कि राष्ट्रभक्ति, सामाजिक सुधार, हास्य-विनोद, भक्ति और श्रृंगार जैसे विषयों को भी साहित्य में स्थान दिया।
भारतेंदु युग के कवियों की रचनाओं में युगीन समस्याओं, राजभक्ति, राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक विडंबनाओं और परंपरा के साथ नवीनता का सुंदर समन्वय दिखाई देता है। इन कवियों के साहित्यिक योगदानों ने आधुनिक हिंदी काव्य की नींव रखी और हिंदी को एक सशक्त अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
नीचे भारतेंदु युग के प्रमुख कवियों और उनके रचनाओं का नाम एक सारणी के अंतर्गत दिया गया है —
1. भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएँ : एक विस्तृत दृष्टि
भारतेंदु हरिश्चंद्र की साहित्यिक रचनाएँ विषय, शैली और भाषा की दृष्टि से अत्यंत विविध और समृद्ध हैं। उन्होंने हिंदी साहित्य के अनेक रूपों—काव्य, नाटक, आलोचना, निबंध, व्यंग्य, संवाद, स्तोत्र, गीत—में योगदान दिया। उनकी रचनाओं में धार्मिक भक्ति, सामाजिक यथार्थ, राष्ट्रीय चेतना, हास्य-विनोद, भाषा प्रेम तथा नारी संवेदना की झलक मिलती है।
उनकी प्रमुख रचनाओं की सूची इस प्रकार है:
क्रम | रचना का नाम | क्रम | रचना का नाम | क्रम | रचना का नाम |
---|---|---|---|---|---|
1. | भक्ति सर्वस्व (1870) | 25. | श्री जीवनजी महाराज | 49. | प्रातः स्मरण स्तोत्र |
2. | प्रेम–मालिका (1871) | 26. | चतुरंग | 50. | हिन्दी की उन्नति पर व्याख्यान |
3. | कार्तिक स्नान | 27. | देवी छद्म लीला | 51. | अपवर्गदाष्टक |
4. | वैशाख माहात्म्य | 28. | प्रातःस्मरण मंगलपाठ | 52. | मनोमुकुल माला |
5. | प्रेम सरोवर | 29. | दैन्य प्रलाप | 53. | वेणु-गीति |
6. | प्रेमाश्रुवर्षण | 30. | उरेहना | 54. | श्रीनाथ स्तुति |
7. | जैन कुतूहल | 31. | तन्मय लीला | 55. | मूक प्रश्न |
8. | प्रेम-माधुरी (1875) | 32. | दान-लीला | 56. | अपवर्ग पंचक |
9. | प्रेमतरंग (1877) | 33. | रानी छद्म लीला | 57. | पुरुषोत्तम पंचक |
10. | उत्तरार्द्ध भक्तमाल (1876–77) | 34. | संस्कृत लावनी | 58. | भारत वीरत्व |
11. | प्रेम प्रलाप (1877) | 35. | वसन्त होली | 59. | श्री सीतावल्लभ स्तोत्र |
12. | गीत-गोविंदानंद (1877–78) | 36. | स्फुट समस्याएँ | 60. | श्री रामलीला |
13. | सतसई श्रृंगार | 37. | मुँह-दिखावनी | 61. | भीष्म स्तवराज |
14. | होली (1879) | 38. | उर्दू का स्यापा | 62. | मान लीला फूल-बुझौअल |
15. | मधु-मुकुल (1881) | 39. | प्रबोधिनी | 63. | बंदर सभा |
16. | राग-संग्रह (1880) | 40. | प्रात: समीरन | 64. | विजय वल्लरी |
17. | वर्षा-विनोद (1880) | 41. | बकरी-विलाप | 65. | विजयिनी-विजय-वैजयन्ती |
18. | विनय प्रेम पचासा (1881) | 42. | स्वरूप चिन्तन | 66. | नये जमाने की मुकरी |
19. | फूलों का गुच्छा (1882) | 43. | श्री राजकुमार शुभागमन वर्णन | 67. | जातीय संगीत |
20. | प्रेम फुलवारी (1883) | 44. | भारत भिक्षा | 68. | रिपुनाष्टक |
21. | कृष्णचरित (1883) | 45. | श्री पंचमी | 69. | स्फुट कविताएँ |
22. | श्री अलवरत-वर्णन | 46. | निवेदन पंचक | 70. | प्रिंस ऑफ वेल्स के पीड़ित होने पर कविता |
23. | श्री राजकुमार सुस्वागत-पत्र | 47. | मान सोपायन | — | — |
24. | सुमनोऽञ्जलिः | 48. | श्री सर्वोत्तम स्रोत | — | — |
इन रचनाओं से भारतेंदु के साहित्यिक विस्तार, रचनात्मक विविधता और सामाजिक-सांस्कृतिक गहराई का स्पष्ट बोध होता है।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की काव्य शैली और काव्य प्रयोग
भारतेंदु हरिश्चंद्र की काव्य-साधना विषय की विविधता, भाषा की सरलता और शैली की नवीनता के लिए विशेष रूप से जानी जाती है। उन्होंने पारंपरिक छंदों और शैलियों के साथ-साथ अनेक नवाचारी प्रयोग किए, जिससे हिंदी काव्य में आधुनिकता के बीज रोपे गए। भारतेंदु की कविताओं में पैरोडी, स्यापा, गाली, लावनी, प्रबंध गीति, निबंध काव्य, और मुकरी जैसे शिल्पगत प्रयोग विशेष उल्लेखनीय हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रसिद्ध कविताओं में प्रयुक्त शैलियाँ और छंद इस प्रकार हैं—
क्रम | कविता का नाम | शैली/छंद |
---|---|---|
1. | विजयिनी विजय वैजयंती | निबंध काव्य |
2. | हिन्दी भाषा | निबंध काव्य |
3. | प्रातः समीरन | पयार |
4. | बंदरसभा | पैरोडी |
5. | उर्दू का स्यापा | स्यापा |
6. | समधिन मधुमास | गाली |
7. | नये जमाने की मुकरी | मुकरी |
8. | रानी छद्मलीला | प्रबंध गीति |
9. | देवी छद्मलीला | प्रबंध गीति |
10. | तन्मय लीला | प्रबंध गीति |
11. | वर्षा-विनोद | लावनी |
इन शैलियों में रचित रचनाएँ न केवल काव्य सौंदर्य का बोध कराती हैं, बल्कि भारतेंदु की व्यंग्य दृष्टि, सामाजिक सरोकार, भावनात्मक गहराई और सौंदर्यबोध को भी उजागर करती हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र की अन्य प्रसिद्ध कविताएँ
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कुछ अन्य लोकप्रिय कविताएँ निम्नलिखित हैं, जो उनकी विविध रचनाशीलता का प्रमाण हैं—
- दशरथ विलाप
- फूलों का गुच्छा
- भारत भिक्षा
- विजयवल्लरी
- रिपनाष्टक
- प्रबोधिनी
- उत्तरार्द्ध भक्तमाल
- कार्तिक स्नान
- जैन कुतूहल
- बसंत होली
- यमुना छवि
इन रचनाओं में कहीं भक्ति का समर्पण भाव है, तो कहीं सामाजिक व्यंग्य और कहीं पर प्रकृति-संवेदना।
भारतेंदु द्वारा किए गए प्रमुख अनुवाद
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने केवल मौलिक लेखन ही नहीं किया, बल्कि संस्कृत भक्ति ग्रंथों का हिंदी में सरल और भावनात्मक अनुवाद भी प्रस्तुत किया, जिससे वे अधिक व्यापक पाठक वर्ग तक पहुँच सकें। उनके दो प्रमुख अनुवाद इस प्रकार हैं—
- नारद भक्ति सूत्र – अनुवाद शीर्षक: तदीय सर्वस्व (1874 ई.)
- शाण्डिल्य भक्ति सूत्र – अनुवाद शीर्षक: भक्ति सूत्र वैजयन्ती
इन अनुवादों से भारतेंदु की धार्मिक श्रद्धा, भाषा-संवेदना तथा वैचारिक गहराई का परिचय मिलता है।
2. बद्री नारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ (1855–1923 ई.)
प्रेमघन जी भारतेंदु युग के प्रसिद्ध कवियों में एक थे, जिनकी रचनाओं में सामाजिक चेतना, भक्तिभाव और भाषा की माधुर्यता का अद्भुत संयोग मिलता है। उन्होंने आख्यानक कविता से लेकर भक्ति और प्रकृति-चित्रण तक की रचनाएँ प्रस्तुत कीं।
प्रमुख काव्य कृतियाँ:
- जीर्ण जनपद (दुर्दशा दत्तापुर)
- आनन्द अरुणोदय
- हार्दिक हर्षोदर्श
- मयंक महिमा
- अलौकिक लीला (आख्यानक कविता)
- वर्षा बिन्दु
- लालित्य लहरी
- बृजचंद पंचक
- सूर्य: स्तोत्र (भक्तिपरक)
- दुर्दशा दत्तापुर
प्रमुख कविताएँ:
- आर्याभिनंदन
- स्वागत
3. प्रताप नारायण मिश्र (1856–1894 ई.)
प्रताप नारायण मिश्र हिंदी साहित्य में हास्य-व्यंग्य, भक्ति और राष्ट्रीयता के भाव को काव्य में समाहित करने वाले प्रमुख रचनाकारों में से एक थे। उनकी भाषा सरल, प्रवाहपूर्ण तथा व्यंग्यात्मक होती थी।
प्रमुख काव्य कृतियाँ:
- प्रेम पुष्पावली
- मन की लहर
- लोकोक्ति शतक
- तृप्यन्ताम्
- श्रृंगार विलास
- हर गंगा
- रसखान सतक
- प्रताप लहरी (प्रतिनिधि कविताओं का संकलन)
- दीवाने बरहम (उर्दू कविताओं का संग्रह)
प्रमुख कविताएँ:
- नवरात्र के पद
- होली है
- महापर्व
- नया संवत
- हिंदी की हिमायत
अनुवाद:
- संगीत शकुंतला (कालिदास कृत नाटक का हिंदी अनुवाद)
4. ठाकुर जगमोहन सिंह (1857–1899 ई.)
ठाकुर जगमोहन सिंह ब्रजभाषा के कुशल कवियों में गिने जाते हैं। उन्होंने विशेष रूप से श्रृंगार रस की प्रधानता वाली रचनाएँ कीं और संस्कृत से अनूदित काव्य साहित्य को ब्रजभाषा में प्रस्तुत किया।
प्रमुख काव्य कृतियाँ:
- प्रेम सम्पत्ति लता (1885)
- श्यामा लता (1885)
- श्यामा सरोजिनी (1886)
- देवयानी (1886)
अनुवाद:
- कालिदास कृत ऋतु संहार और मेघदूत का ब्रज भाषा में सुंदर अनुवाद
5. अम्बिका दत्त व्यास (1858–1900 ई.)
अम्बिका दत्त व्यास की रचनाओं में रीति और नवजागरण का सुगठित समन्वय देखने को मिलता है। उन्होंने छंदों का रचनात्मक प्रयोग करते हुए सामाजिक और धार्मिक विषयों पर कविताएँ लिखीं।
प्रमुख काव्य कृतियाँ:
- पावस पचासा (1880)
- सुकवि सतसई (1887)
- हो हो होरी (1891)
- बिहारी बिहार (बिहारी के दोहों का कुंडलिया छंद में भाव विस्तार)
- कंसवध
प्रमुख कविताएँ:
- भारत धर्म
- जटिल वणिक
6. राधाकृष्णदास (1865–1907 ई.)
राधाकृष्णदास की रचनाएँ देशभक्ति, सामाजिक चेतना और ब्रज साहित्य परंपरा से अनुप्राणित हैं। इन्होंने रहीम के दोहों पर आधारित कुंडलियाँ भी लिखीं जो भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से अत्यंत प्रभावशाली हैं।
प्रमुख काव्य कृतियाँ:
- भारत बारहमासा
- देश दशा
- रहीम के दोहों पर कुंडलियों की रचना
प्रमुख कविताएँ:
- विनय
- मेक्डानल्ड पुष्पांजलि
- जुबली
- विजयिनी विलाप
भारतेंदु युग के अन्य कवि और उनकी रचनाएँ
भारतेंदु युग में कई ऐसे कवि भी हुए, जो मुख्य धारा से भले ही थोड़ा अलग रहे हों, परंतु उनकी रचनाओं में भाषा, शैली और विषयवस्तु की दृष्टि से उल्लेखनीय साहित्यिक योगदान मिलता है। इन रचनाकारों ने भक्ति, श्रृंगार, नीति, सामाजिक बोध एवं विविध रसों को अपनी काव्यधारा में समाहित किया।
क्रम | कवि | प्रमुख रचनाएँ |
---|---|---|
1. | नवनीत चतुर्वेदी | कुब्जा पच्चीसी |
2. | गोविन्द गिल्लाभाई | श्रृंगार सरोजिनी, पावस पयोनिधि, राधामुख षोडसी, षड्ऋतु, नीति विनोद |
3. | दिवाकर भट्ट | नख शिख (1884), नवोढ़ा रत्न (1888) |
4. | रामकृष्ण वर्मा ‘बलवीर’ | बलवीर पचासा |
5. | राजेश्वरी प्रसाद सिंह ‘प्यारे’ | प्यारे प्रमोद |
6. | रावकृष्णदेव शरण सिंह ‘गोप’ | प्रेम संदेसा |
7. | दुर्गादत्त व्यास | अधमोद्धार शतक (1872) |
8. | राधाचरण गोस्वामी | नवभक्तमाल |
9. | गुलाब सिंह | प्रेम सतसई |
10. | लछिराम (ब्रह्मभट्ट) | मानसिंहाष्टक, प्रतापरत्नाकर, प्रेमरत्नाकर, लक्ष्मीश्वर रत्नाकर, रावणेश्वर कल्पतरु, कमलानंद कल्पतरु |
भारतेंदु युग के प्रमुख कवि और उनकी विशेषताएँ
1. भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850–1885)
- जन्म: काशी
- पिता: गोपालचंद
- गुरु: शिवप्रसाद सिंह ‘सितारे हिन्द’
- उपाधि: ‘भारतेंदु’ (1880 ई.)
- उपनाम: ‘रसा’ (उर्दू लेखन हेतु)
- सम्प्रदाय: बल्लभ सम्प्रदाय
- रचनाएँ: 175 ग्रंथ, जिनमें 70 काव्य ग्रंथ
- भाषा: मूलतः ब्रजभाषा; कुछ रचनाएँ खड़ी बोली में
- प्रमुख काव्य प्रवृत्तियाँ:
- भक्ति और श्रृंगार रस की प्रधानता
- प्रकृति चित्रण
- देशभक्ति व राष्ट्रीयता
- नवीन विषयों का समावेश
- हास्य एवं व्यंग्य
- उल्लेखनीय रचनाएँ:
- फूलों का गुच्छा, दशरथ विलाप (खड़ी बोली)
- बंदर सभा, बकरी का विलाप (हास्य)
- दान-लीला (भक्ति), सतसई श्रृंगार (श्रृंगार), प्रात: समीरन (पयार छंद), नये जमाने की मुकरी, विजयिनी विजय वैजयंती, प्रबोधिनी
- शैलीगत प्रयोग: पैरोडी, गाली, स्यापा, लावनी, मुकरी, पहेलियाँ आदि
2. बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ (1855–1923)
- जन्म: मिर्जापुर
- उपनाम: ‘अब्र’ (उर्दू लेखन हेतु)
- रचना-संग्रह: प्रेमघन सर्वस्व
- विशिष्टता:
- ‘दादा भाई नौरोजी’ को ‘काला’ कहे जाने पर व्यथित होकर काव्य-प्रतिक्रिया
- यति भंग की प्रवृत्ति
- ‘मयंक महिमा’ – खड़ी बोली में
- पत्रिकाएँ: आनंद कादम्बिनी (मासिक), नागरी नीरद (साप्ताहिक)
- विषयवस्तु: राजभक्ति, राष्ट्रीयता, सामाजिक चेतना
- भाषा: ब्रजभाषा व खड़ी बोली दोनों
3. प्रतापनारायण मिश्र (1856–1894)
- जन्म: बेलगाँव, जिला उन्नाव
- विशेष योगदान: ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ का नारा
- प्रमुख रचनाएँ: प्रताप लहरी, हर गंगा, तृप्यंताम्, बुढ़ापा, हिंदी की हिमायत
- उर्दू लेखन: कसीदा, शेर, मरसिया
- संस्थागत भूमिका: ‘रसिक समाज’ (कानपुर) के सदस्य, ब्राह्मण पत्र के संपादक
- भाषा: ब्रजभाषा
- विषयवस्तु: राजनीतिक चेतना, सामाजिक आलोचना
4. ठाकुर जगमोहन सिंह (1857–1899)
- जन्म: विजय राघवगढ़ रियासत (मध्यप्रदेश)
- प्रवृत्तियाँ: श्रृंगार एवं प्रकृति चित्रण
- विशेषता:
- विंध्य प्रदेश की प्राकृतिक विविधता का काव्यात्मक चित्रण
- अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग
- भावुकता से ओतप्रोत काव्य
- भाषा: ब्रजभाषा
5. अंबिकादत्त व्यास (1858–1900)
- जन्म: काशी
- आरंभ: कवितावर्धिनी सभा में समस्यापूर्ति से – “पूरी अमी की कटोरिया सी…”
- उपाधि: ‘सुकवि’
- नवाचार:
- ‘अतुकांत काव्य’ का प्रयोग
- बंगला छंद – ‘दीर्घललित’ का प्रयोग
- पत्रिका: पीयूष प्रवाह (संपादन)
- रचनाएँ:
- कंस वध (खड़ी बोली, अपूर्ण)
- दशरथ विलाप (फारसी छंद)
- सुकवि सतसई (700 दोहे, श्रीकृष्ण लीला पर आधारित)
6. राधाकृष्ण दास (1865–1907)
- जन्म: काशी
- सम्बन्ध: भारतेंदु हरिश्चंद्र के फुफेरे भाई
- विशिष्टता:
- रहीम के दोहों का कुंडलिया छंद में भाव विस्तार
- अध्यक्ष: काशी नागरी प्रचारिणी सभा
- विषयवस्तु: भक्ति, श्रृंगार एवं राजनैतिक चेतना
- भाषा: ब्रजभाषा व खड़ी बोली
7. नवनीत चतुर्वेदी (1868–1919)
- उल्लेखनीय तथ्य: जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ के गुरु
- प्रमुख काव्य: कुब्जा पच्चीसी
भारतेंदु युग से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण साहित्यिक तथ्य
- बहुभाषिक लेखन: भारतेंदु हरिश्चंद्र और बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ ने बंगला, गुजराती और मराठी में स्फुट कविताएँ लिखी।
- बिहारी के दोहों का भाव विस्तार: भारतेंदु और अंबिकादत्त व्यास ने बिहारी के दोहों को कुंडलिया छंद में पुनः प्रस्तुत किया।
- कजलियों की रचना: प्रेमघन और प्रतापनारायण मिश्र ने कजलियाँ भी लिखी।
- लावनी लेखन: भारतेंदु, ठाकुर जगमोहन सिंह, राधाचरण गोस्वामी और प्रतापनारायण मिश्र ने लावनियाँ लिखीं।
- प्रतीक शैली का प्रयोग: भारतेंदु और प्रतापनारायण मिश्र ने होली वर्णन में प्रतीक शैली का प्रयोग किया।
- व्याकरणिक सुधार की प्रवृत्ति: अंबिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, बालमुकुन्द गुप्त, और राधाकृष्णदास की रचनाओं में व्याकरणिक त्रुटियों के परिष्कार की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
- भाषा आंदोलन: भारतेंदु युग में ब्रजभाषा व खड़ी बोली के प्रयोग को लेकर आंदोलन प्रारंभ हुआ, जिसका मुख्य कारण था अयोध्या प्रसाद खत्री का ‘खड़ी बोली आंदोलन’ (1888), जिसमें ब्रज और अवधी को हिंदी साहित्य से बाहर रखने का आग्रह किया गया।
- अनुवाद कार्य:
- बाबू तोताराम – वाल्मीकि रामायण का अनुवाद ‘राम रामायण’ के नाम से किया।
- लाला सीताराम ‘भूप’ – मेघदूत, कुमारसंभव, रघुवंश, ऋतुसंहार का हिंदी अनुवाद किया।
निष्कर्ष
भारतेंदु युग हिंदी साहित्य के इतिहास में एक क्रांतिकारी युग के रूप में सामने आता है। यह वह काल था जब हिंदी साहित्य दरबारी भाषा से निकलकर जनसामान्य की भाषा बना। भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनके समकालीनों ने साहित्य को सामाजिक चेतना, राष्ट्रीयता, भक्ति, श्रृंगार और व्यंग्य का माध्यम बनाया। साहित्य केवल मनोरंजन नहीं, अपितु जन-जागरण और राष्ट्र निर्माण का साधन बन गया। यही कारण है कि भारतेंदु युग को आधुनिक हिंदी साहित्य का आधारस्तंभ कहा जाता है।
यह युग आज भी हमें यह प्रेरणा देता है कि साहित्य का उद्देश्य केवल सौंदर्यबोध नहीं, अपितु सामाजिक उत्तरदायित्व निभाना भी होना चाहिए।
इन्हें भी देखें –
- भारतेन्दु युग (1850–1900 ई.): हिंदी नवजागरण का स्वर्णिम प्रभात
- द्विवेदी युग (1900–1920 ई.): हिंदी साहित्य का जागरण एवं सुधारकाल
- हिंदी साहित्य का आधुनिक काल और उसका ऐतिहासिक विकास | 1850 ई. से वर्तमान तक
- हिंदी साहित्य का आदिकाल (वीरगाथा काल 1000 -1350 ई०) | स्वरूप, प्रवृत्तियाँ और प्रमुख रचनाएँ
- छायावादी युग (1918–1936 ई.): हिंदी काव्य का स्वर्णयुग और भावात्मक चेतना का उत्कर्ष
- मुक्तक काव्य: अर्थ, परिभाषा, भेद, प्रकार, उदाहरण एवं विशेषताएं
- छायावादोत्तर युग (शुक्लोत्तर युग: 1936–1947 ई.) | कवि और उनकी रचनाएँ
- प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और नई कविता: छायावादोत्तर युग के अंग या स्वतंत्र साहित्यिक प्रवृत्तियाँ?
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