काव्य : स्वरूप, इतिहास, परिभाषा, दर्शन और महत्व

मानव जीवन के आरम्भ से ही भावनाएँ, अनुभूतियाँ और कल्पनाएँ उसकी चेतना का अभिन्न हिस्सा रही हैं। जब मनुष्य ने अपनी भावनाओं और अनुभवों को शब्दों में पिरोने का प्रयास किया, तभी साहित्य का उदय हुआ। साहित्य की विभिन्न विधाओं में काव्य (Poetry/Kavya) सबसे प्राचीन और प्रभावशाली विधा है। काव्य मात्र शब्दों का खेल नहीं है, बल्कि यह भावनाओं की कलात्मक अभिव्यक्ति है, जो हृदय को स्पर्श करती है और सौन्दर्यानुभूति कराती है।

काव्य की शक्ति यह है कि यह तर्क या विज्ञान की तरह केवल बुद्धि को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि हृदय को भी आंदोलित करता है। यह कल्पना, संवेदना और रसात्मकता के माध्यम से मानव जीवन के सत्य, शिव और सुंदर की ओर ले जाता है।

मानव जीवन में साहित्य का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। साहित्य केवल ज्ञान और विचारों का संकलन ही नहीं है, बल्कि वह मनुष्य की भावनाओं, कल्पनाओं और जीवनानुभूतियों का कलात्मक अभिव्यक्त रूप भी है। साहित्य की अनेक विधाओं में काव्य को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। काव्य केवल छन्दबद्ध रचना नहीं है, बल्कि यह हृदय की भावनाओं और कल्पना की उड़ान का संगम है, जो पाठक और श्रोता दोनों को रस और आनन्द की अनुभूति कराता है।

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काव्य की परिभाषा और स्वरूप

काव्य मूलतः पद्यात्मक एवं छन्द-बद्ध रचना होती है। इसमें भावनाओं की प्रधानता रहती है और इसका उद्देश्य सौन्दर्य का अनुभव कराते हुए आनन्द की प्राप्ति करना है। तर्क और युक्ति की अपेक्षा इसमें हृदय की रसानुभूति प्रधान होती है।

काव्य की सामान्य परिभाषा

सामान्य रूप से कहा जाए तो काव्य पद्यात्मक एवं छन्द-बद्ध रचना होती है, जिसमें भावनाओं की प्रधानता होती है और जिसका उद्देश्य आनन्द की प्राप्ति और सौन्दर्य की अनुभूति कराना होता है।

काव्य में कवि वास्तविकता का प्रत्यक्ष चित्रण नहीं करता, बल्कि वह यथार्थ को अपने दृष्टिकोण और अनुभव के अनुरूप प्रस्तुत करता है। इसीलिए काव्य का सत्य सामान्य सत्य से भिन्न दिखाई देता है। कवि कभी-कभी अतिशयोक्ति का सहारा भी लेता है और यही अतिशयोक्ति काव्य का दोष न होकर उसका अलंकार बन जाती है।

विद्वानों द्वारा दी गई काव्य की परिभाषाएँ

भारतीय आचार्यों और विद्वानों ने समय-समय पर काव्य की विभिन्न परिभाषाएँ दी हैं।

  1. भामह – “शब्दार्थों सहितं काव्यम।”
    → अर्थात् शब्द और उसके अर्थ का समन्वय ही काव्य है।
  2. रुद्रट – “ननु शब्दार्थों काव्यम।”
    → अर्थात् अर्थ के संक्षिप्त समन्वयन को ही काव्य कहते हैं।
  3. मम्मट – “तद्रदोष शब्दार्थों गुणवाल कृति पुनः क्वापि।”
    → अर्थात् दोष रहित, गुणयुक्त और कहीं-कहीं अलंकार युक्त शब्द ही काव्य कहलाते हैं।
  4. विश्वनाथ (साहित्यदर्पण) – “रसात्मकं वाक्यं काव्यम।”
    → अर्थात् रसयुक्त वाक्य को काव्य कहा जाता है।
  5. पंडित जगन्नाथ – “रामणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम।”
    → अर्थात रमणीय अर्थ का प्रतिपादन करने वाले शब्द ही काव्य हैं।

इन परिभाषाओं में सबसे अधिक प्रसिद्ध और ग्राह्य परिभाषा विश्वनाथ की परिभाषा मानी जाती है, जिसमें काव्य को ‘रसात्मक वाक्य’ कहा गया है।

इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि काव्य केवल शब्दों का संकलन मात्र नहीं, बल्कि शब्द और अर्थ के रमणीय संयोग का वह रूप है, जो हृदय को स्पर्श करता है और मनोवेगों का संचार करता है।

काव्य का उद्देश्य

काव्य का मूल उद्देश्य केवल मनोरंजन करना नहीं है, बल्कि –

  1. रसानुभूति कराना – पाठक या श्रोता के हृदय में किसी रस का संचार करना।
  2. सौन्दर्य का बोध कराना – शब्दों और अर्थ की कलात्मकता के माध्यम से सौन्दर्य का अनुभव कराना।
  3. हृदय की मुक्ति – अहंकार से परे जाकर शुद्ध अनुभूति की ओर ले जाना।
  4. भाषा की समृद्धि – काव्य भाषा को और अधिक संवेदनशील, कलात्मक और प्रभावशाली बनाता है।
  5. जीवन दर्शन प्रस्तुत करना – काव्य के माध्यम से कवि समाज, संस्कृति, प्रकृति और मानव जीवन के अनुभवों को प्रकट करता है।
  6. काव्य में “सत्यं शिवं सुंदरम्” की भावना निहित रहती है।

काव्य का दार्शनिक पक्ष

काव्य केवल साहित्यिक रचना नहीं, बल्कि एक गहन दार्शनिक अनुभव है।

  • मानव हृदय जगत की नाना रूपताओं और व्यापारों में उलझा रहता है, परन्तु जब वह अहंभाव से मुक्त होकर शुद्ध अनुभूति की अवस्था में पहुँचता है, तभी वह सच्चे काव्यानुभव को प्राप्त करता है।
  • काव्य मनुष्य के हृदय को मुक्त करता है और उसे रसात्मक अनुभव प्रदान करता है।
  • इसमें अतिशयोक्ति भी दोष नहीं बल्कि अलंकार बन जाती है, क्योंकि कवि अपने सत्य को सामान्य सत्य से भिन्न रूप में प्रस्तुत करता है।

काव्य में भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ सत्यं, शिवं, सुंदरम् की अवधारणा भी छिपी होती है।

  • सत्यं – यथार्थ या सत्य का चित्रण।
  • शिवं – मंगलकारी और उपयोगी विचार।
  • सुंदरम् – सौन्दर्य का अनुभव।

जब काव्य में ये तीनों तत्त्व एक साथ आते हैं, तब वह उत्तम काव्य कहलाता है।

काव्य और रस का संबंध

भारतीय काव्यशास्त्र में रस को काव्य की आत्मा माना गया है। रस के बिना काव्य केवल शब्दों का समूह रह जाता है। जब कविता हृदय को आनन्दित करती है और उसमें किसी भाव (श्रृंगार, करुण, वीर, हास्य आदि) का संचार करती है, तभी वह पूर्ण काव्य बनती है।

भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में 9 रसों का उल्लेख किया है –

  1. श्रृंगार रस
  2. हास्य रस
  3. करुण रस
  4. रौद्र रस
  5. वीर रस
  6. भयानक रस
  7. वीभत्स रस
  8. अद्भुत रस
  9. शान्त रस

काव्य का मुख्य उद्देश्य इन्हीं रसों के माध्यम से श्रोता या पाठक को आनन्द देना है।

  • काव्य की आत्मा रस है। रस का अर्थ है – भावनाओं और मनोवेगों का सुखद संचार।
  • भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में रस-सिद्धांत प्रस्तुत किया।
  • काव्य में रस की अनुभूति के बिना उसका उद्देश्य अधूरा रह जाता है।
  • रस ही वह शक्ति है जो पाठक या श्रोता को आनन्द और तृप्ति प्रदान करती है।

काव्य में अतिशयोक्ति का महत्व

सामान्य भाषा में यदि कोई वस्तु यथार्थ से अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कही जाए तो उसे ‘अतिशयोक्ति’ कहा जाता है। परंतु काव्य में यही अतिशयोक्ति दोष नहीं मानी जाती, बल्कि अलंकार बन जाती है।
उदाहरण – “राम बाण लगे रावण के, गिरा जैसे गिरि भारी।”

काव्य और कविता का अंतर

यद्यपि अक्सर कविता और काव्य शब्दों का समानार्थी प्रयोग होता है, फिर भी विद्वान इन दोनों में सूक्ष्म अंतर बताते हैं –

  • कविता – किसी विशेष रचना को कहते हैं।
  • काव्य – साहित्य की वह सम्पूर्ण विधा है, जिसमें कविताएँ सम्मिलित होती हैं।

अर्थात् कविता, काव्य का अंग है।

काव्य और कविता में अंतर की सारणी

आधारकाव्यकविता
परिभाषाकाव्य वह साहित्यिक विधा है जिसमें छंद, अलंकार, रस और भाव के माध्यम से जीवन की अनुभूतियों को कलात्मक ढंग से व्यक्त किया जाता है।कविता काव्य की इकाई है; यह किसी विशेष भाव, विचार या अनुभव का छंदबद्ध अथवा मुक्त रूप में किया गया काव्यात्मक अभिव्यक्ति है।
स्वरूपकाव्य व्यापक रूप है जिसमें अनेक कविताएँ, महाकाव्य, खंडकाव्य, गीत, ग़ज़ल आदि सम्मिलित होते हैं।कविता एक संक्षिप्त रचना होती है, जिसमें काव्य का अंश या रूप प्रकट होता है।
सीमाकाव्य की सीमा विस्तृत होती है — इसमें महाकाव्य, प्रबंधकाव्य, लघुकाव्य, गीतिकाव्य आदि सब आते हैं।कविता की सीमा छोटी होती है; यह प्रायः किसी विशेष भाव या विषय तक सीमित रहती है।
प्रकृतिकाव्य में दर्शन, नीति, रस और शास्त्रीय नियम अधिक स्पष्ट रहते हैं।कविता में भावनात्मकता, संवेदनशीलता और व्यक्तिगत अनुभूति प्रमुख होती है।
संबंधकाव्य संपूर्ण साहित्यिक विधा है।कविता काव्य का अंश या स्वरूप है।
उदाहरणतुलसीदास का रामचरितमानस, वाल्मीकि का रामायण, महाभारत, कालिदास के कुमारसम्भव — ये सब काव्य हैं।“कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है…” (कुमार विश्वास), “वह तोड़ती पत्थर…” (निराला) — ये कविताएँ हैं।

👉 सरल शब्दों में:
काव्य = संपूर्ण साहित्यिक विधा (बड़ा रूप)
कविता = उसकी इकाई (छोटा रूप)

काव्य का इतिहास

भारतीय साहित्य में काव्य की परम्परा बहुत प्राचीन है।

  1. वैदिक काल: ऋग्वेद के सूक्तों में काव्य का प्रारम्भिक रूप मिलता है। ऋषियों ने अपने भाव और अनुभव को छन्दबद्ध किया। ऋग्वेद को विश्व का सबसे प्राचीन काव्य माना जाता है।
  2. महाकाव्य काल – रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों ने काव्य परम्परा को सुदृढ़ किया।
  3. संस्कृत काव्य परम्परा: कालिदास, भास, भारवि, माघ जैसे कवियों ने संस्कृत साहित्य को काव्य की उँचाइयों तक पहुँचाया।
  4. प्राकृत और अपभ्रंश काव्य – जैन आचार्यों और अन्य कवियों ने क्षेत्रीय भाषाओं (प्राकृत और अपभ्रंश आदि) में काव्य रचना की।
  5. हिन्दी काव्य परम्परा: अपभ्रंश और प्राकृत से विकसित हिन्दी में आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक अनेक श्रेष्ठ कवि हुए।
    • आदिकालीन काव्य इस काल की रचनाओं में वीरता, साहस और युद्ध के दृश्यों का विस्तृत वर्णन है। इसको वीरगाथा काल भी कहा जाता है। चंदबरदाई द्वारा रचित पृथ्वीराज रासो, नरपति नाल्ह द्वारा रचित बीसलदेव रासो, जगनिक द्वारा रचित परमाल रासो (आल्हा खंड) और दलपत विजय द्वारा रचित खुमान रासो इस काल की प्रमुख रचनाएँ हैं। चंदबरदाई, नरपति नाल्ह, जगनिक, जल्हण, नल्ल सिंह, दलपति विजय, और अमीर खुसरो इस काल के प्रमुख कवि हैं। 
    • भक्तिकालीन काव्य – कबीर, सूर, तुलसीदास, मीरा आदि ने भक्ति भाव से परिपूर्ण काव्य की रचना की।
    • रीतिकालीन काव्य – इसमें शृंगार और नायिका-भेद का चित्रण प्रमुख रहा।
    • आधुनिक काव्य – भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत और दिनकर जैसे कवियों ने राष्ट्रीयता, मानवता और सामाजिक चेतना को काव्य के माध्यम से प्रकट किया।

काव्य और भाषा का संबंध

काव्य ने सदैव भाषा को परिष्कृत, समृद्ध और अभिव्यंजक बनाया है। संस्कृत, हिंदी, बंगला, तमिल, उर्दू आदि सभी भाषाओं का साहित्य अपने काव्य पर गर्व करता है। काव्य के कारण ही भाषा में लय, मधुरता और सौन्दर्य का संचार होता है।

काव्य के जनक

काव्य के ‘जनक’ के विषय में विद्वानों में मतभेद है।

  • भरतमुनि को नाट्यशास्त्र और रस सिद्धांत का प्रवर्तक माना जाता है, इसलिए काव्यशास्त्र का मूल उनसे जोड़ा जाता है।
  • भामह, वामन, मम्मट, विश्वनाथ और कुंतक आदि आचार्यों ने काव्य की परिभाषाएँ दीं और इसके स्वरूप को स्पष्ट किया।

इसलिए किसी एक को काव्य का जनक कहना कठिन है। परंतु इसका प्रारंभ भरतमुनि से समझा जा सकता है।

काव्य के प्रमुख आचार्य

  • आचार्य मम्मट : काव्यप्रकाश में काव्य के स्वरूप, गुण, दोष और अलंकारों का विवेचन।
  • भामह : काव्यालंकार के रचयिता।
  • दंडी : काव्यादर्श
  • विश्वनाथ : साहित्य दर्पण में रसात्मक वाक्य की व्याख्या।
  • कुंतक : वक्रोक्ति सिद्धांत के प्रतिपादक।

काव्य का स्वरूप : यथार्थ और कल्पना

काव्य में यथार्थ का यथारूप चित्रण नहीं मिलता, बल्कि कवि अपनी दृष्टि से प्रभावित होकर यथार्थ को प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि काव्य सामान्य यथार्थ से भिन्न और अधिक प्रभावकारी प्रतीत होता है।

  • कवि अपनी भावनाओं और कल्पना के सहारे यथार्थ का रूपान्तरण करता है।
  • इसी रूपान्तरण में अतिशयोक्ति, अलंकार और कल्पना की उड़ान शामिल होती है।
  • यही विशेषता काव्य को गद्य से अलग करती है।

काव्य के अंग

काव्य को पूर्णता प्रदान करने वाले मुख्य तीन अंग माने गए हैं –

  1. रस
  2. छंद
  3. अलंकार

इन्हीं तीनों अंगों के समन्वय से काव्य में सौन्दर्य, लय और आकर्षण उत्पन्न होता है। आइए इन्हें विस्तार से समझें –

1. रस – काव्य की आत्मा

‘रस’ का शाब्दिक अर्थ है आनन्द। काव्य को पढ़ने या सुनने से पाठक या श्रोता को जो आनन्द प्राप्त होता है, वही रस कहलाता है।
भारतीय काव्यशास्त्र में रस को काव्य की आत्मा माना गया है। यदि रस का संचार न हो तो काव्य निरर्थक और नीरस माना जाता है।

रस के अंग

रस के चार मुख्य अंग बताए गए हैं –

  1. विभाव – भाव उत्पन्न करने वाले कारण।
  2. अनुभाव – भाव की बाह्य अभिव्यक्ति।
  3. संचारी भाव – अस्थायी भाव।
  4. स्थायी भाव – हृदय में स्थायी रूप से रहने वाले भाव।

रस के प्रकार

प्राचीन काल में रसों की संख्या आठ मानी गई थी, परंतु आधुनिक युग में इन्हें ग्यारह माना गया है –

  1. श्रृंगार रस
  2. करुण रस
  3. हास्य रस
  4. रौद्र रस
  5. वीर रस
  6. अद्भुत रस
  7. वात्सल्य रस
  8. वीभत्स रस
  9. भयानक रस
  10. शान्त रस
  11. भक्ति रस

2. छंद – काव्य की लय

‘छंद’ शब्द ‘चद्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है – आह्लादित करना या खुश करना
साहित्य में वर्णों और मात्राओं की नियमित संख्या तथा उनके विन्यास से जो लयात्मकता और आनन्द उत्पन्न होता है, उसे छंद कहा जाता है। छंद को काव्य का लयात्मक पक्ष कहा जा सकता है।

छंद के अंग

छंद को व्यवस्थित करने के पाँच अंग माने गए हैं –

  1. मात्रा
  2. यति
  3. गति
  4. तुक
  5. गण

छंद के प्रकार

छंद को मुख्यतः चार प्रकारों में विभाजित किया गया है –

  1. मात्रिक छंद
  2. वर्णिक छंद
  3. वर्णिक वृत्त छंद
  4. मुक्त छंद

3. अलंकार – काव्य का आभूषण

‘अलंकार’ का शाब्दिक अर्थ है – आभूषण
जिस प्रकार आभूषण स्त्री की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार अलंकार काव्य की शोभा बढ़ाते हैं। अलंकार काव्य को आकर्षक, प्रभावशाली और रमणीय बनाते हैं।

अलंकार के प्रकार

अलंकार तीन प्रकार के माने गए हैं –

  1. शब्दालंकार – जहाँ सौन्दर्य शब्दों की विशेषता से उत्पन्न होता है।
  2. अर्थालंकार – जहाँ सौन्दर्य अर्थ की रमणीयता से उत्पन्न होता है।
  3. उभयालंकार – जहाँ सौन्दर्य शब्द और अर्थ दोनों से उत्पन्न होता है।

👉 इस प्रकार रस, छंद और अलंकार – ये तीनों मिलकर काव्य को पूर्णता और सौन्दर्य प्रदान करते हैं।

काव्य के भेद (प्रकार)

विद्वानों ने काव्य के भेद दो आधारों पर किए हैं –

  1. इन्द्रिय ग्राह्यता (Senses Acceptance) के आधार पर
  2. रचना शैली या स्वरूप (Writing Style or Structure) के आधार पर

1. इन्द्रिय ग्राह्यता के आधार पर काव्य के भेद

इन्द्रिय ग्राह्यता के अनुसार काव्य दो प्रकार का होता है –

  1. श्रव्य काव्य
  2. दृश्य काव्य

(क) श्रव्य काव्य

श्रव्य काव्य वह है, जिसे कानों से सुनकर या स्वयं पढ़कर रसास्वादित किया जाता है। जैसेरामायण और महाभारत

श्रव्य काव्य के भेद

श्रव्य काव्य के दो भेद बताए गए हैं –

  1. प्रबन्ध काव्य
  2. मुक्तक काव्य

1. प्रबन्ध काव्य

प्रबन्ध काव्य वह होता है जिसमें एक प्रमुख कथा आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। मुख्य कथा के साथ गौण कथाएँ सहायक रूप से आती हैं।
उदाहरणरामचरितमानस

प्रबन्ध काव्य के भेद

प्रबन्ध काव्य तीन प्रकार का होता है –

  1. महाकाव्य
  2. खण्डकाव्य
  3. आख्यानक गीतियाँ

(i) महाकाव्य

महाकाव्य में किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महापुरुष की संपूर्ण जीवन कथा का आद्योपांत वर्णन होता है।

महाकाव्य की विशेषताएँ –

  • कथा जीवन के व्यापक रूप को दर्शाती है।
  • कथा इतिहास-प्रसिद्ध या लोकमान्य होती है।
  • नायक उदात्त और महान चरित्र वाला होता है।
  • इसमें वीर, श्रृंगार या शान्त रस प्रमुख होता है।
  • महाकाव्य सर्गबद्ध होता है और इसमें कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए।
  • कथा में धारावाहिकता और मार्मिक प्रसंगों का समावेश होता है।

महाकाव्य : प्राचीन और आधुनिक दृष्टि

प्राचीन काल में महाकाव्य प्रायः ऐतिहासिक घटनाओं और महान् पुरुषों के जीवन पर आधारित होते थे। इनका उद्देश्य किसी वीर पुरुष की महिमा का गान करना था। परन्तु आधुनिक युग में महाकाव्य की अवधारणा में परिवर्तन हुआ है।

  • अब इतिहास के स्थान पर मानव-जीवन की कोई भी घटना या समस्या महाकाव्य का विषय हो सकती है।
  • महान् पुरुष के स्थान पर समाज का कोई भी साधारण व्यक्ति इसका नायक हो सकता है।
  • किन्तु यह आवश्यक है कि उस पात्र में विशेष क्षमताएँ और गहरी मानवीय संवेदनाएँ हों।

इस प्रकार आधुनिक महाकाव्य केवल ऐतिहासिकता तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक समस्याओं, व्यक्तिगत संघर्षों और व्यापक मानवीय सरोकारों को भी अपने भीतर समाहित करता है।

उदाहरणपृथ्वीराज रासो (हिंदी का प्रथम महाकाव्य), रामचरितमानस, पद्मावत, साकेत, प्रियप्रवास, कामायनी, उर्वशी, लोकायतन आदि।

  • रामायण संस्कृत में महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित है।
  • महाभारत संस्कृत में महर्षि व्यास द्वारा रचित है।

रामायण और महाभारत दोनों भारत के प्राचीनतम संस्कृत महाकाव्य हैं, जिन्हें आदिकाव्य और महाकाव्य का आधार माना जाता है।

(ii) खण्डकाव्य

खण्डकाव्य में नायक के जीवन के किसी एक पक्ष या घटना का वर्णन होता है। यह महाकाव्य का संक्षिप्त रूप नहीं होता, बल्कि अपने आप में पूर्ण होता है।

विशेषताएँ –

  • इसमें एक ही छंद का प्रयोग होता है।
  • कथा सीमित दायरे में भी पूर्णता प्राप्त करती है।

उदाहरणपंचवटी, जयद्रथ-वध, नहुष, सुदामा-चरित, पथिक, गंगावतरण, हल्दीघाटी, जय हनुमान आदि।

महाकाव्य और खण्डकाव्य में अंतर

प्रबन्ध काव्य के अन्तर्गत आने वाले महाकाव्य और खण्डकाव्य – दोनों ही काव्य के महत्वपूर्ण रूप हैं। यद्यपि इन दोनों में कई समानताएँ हैं, फिर भी इनकी संरचना, विषय-वस्तु और उद्देश्य में कुछ मूलभूत अंतर पाए जाते हैं। नीचे दी गई सारणी में इन दोनों काव्य रूपों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है –

क्रममहाकाव्यखण्डकाव्य
1.महाकाव्य में जीवन का समग्र रूप का वर्णन किया जाता है।खण्डकाव्य में जीवन की किसी एक घटना या प्रसंग का वर्णन होता है।
2.महाकाव्य में आठ या उससे अधिक सर्ग (वर्ग) होते हैं।खण्डकाव्य एक ही सर्ग में होता है, जो अपने आप में पूर्ण होता है।
3.महाकाव्य में अनेक छन्दों का प्रयोग किया जाता है।खण्डकाव्य में प्रायः एक ही छंद का प्रयोग होता है, परन्तु यह अनिवार्य नहीं है।
4.महाकाव्य में शान्त, वीर या श्रृंगार रस में से किसी एक रस की प्रधानता होती है।खण्डकाव्य में प्रायः श्रृंगार और करुण रस की प्रधानता होती है।
5.महाकाव्य का उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थों की प्राप्ति होता है।खण्डकाव्य का उद्देश्य भी उच्च और प्रेरक होता है, किंतु केंद्रित व सीमित होता है।
6.प्रमुख महाकाव्य – रामचरितमानस, साकेत, पद्मावत, कामायनी आदि।प्रमुख खण्डकाव्य – पंचवटी, जयद्रथ-वध, सुदामा चरित आदि।

👉 इस प्रकार स्पष्ट है कि महाकाव्य और खण्डकाव्य दोनों ही अपने-अपने स्वरूप में साहित्यिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
महाकाव्य जहाँ जीवन के व्यापक आयामों को प्रस्तुत करता है, वहीं खण्डकाव्य किसी एक मार्मिक प्रसंग को केन्द्र बनाकर अपनी पूर्णता प्राप्त करता है।

(iii) आख्यानक गीतियाँ

महाकाव्य और खण्डकाव्य से भिन्न, पद्यबद्ध कहानी को आख्यानक गीति कहा जाता है।

विशेषताएँ –

  • इसमें वीरता, साहस, पराक्रम, बलिदान, प्रेम और करुणा जैसे प्रसंगों का चित्रण होता है।
  • भाषा सरल, स्पष्ट और रोचक होती है।
  • गीतात्मकता और नाटकीयता इसकी प्रमुख विशेषता है।

उदाहरणझाँसी की रानी, रंग में भंग, विकट भद आदि।

2. मुक्तक काव्य

मुक्तक काव्य वे रचनाएँ होती हैं जो स्वतंत्र रूप से पूर्ण होती हैं और किसी लम्बी कथा से सम्बद्ध नहीं होतीं। मुक्तक काव्य महाकाव्य और खण्डकाव्य से भिन्न प्रकार का होता है। इसमें किसी एक अनुभूति, भाव या कल्पना का चित्रण किया जाता है। इसमें महाकाव्य या खण्डकाव्य जैसी कथा-धारावाहिकता नहीं होती, फिर भी वर्ण्य-विषय अपने आप में पूर्ण होता है।
मुक्तक काव्य में प्रत्येक छन्द स्वतन्त्र होता है। जैसे – कबीर, बिहारी, रहीम के दोहे तथा सूर और मीरा के पद।

मुक्तक काव्य के भेद

मुक्तक काव्य के मुख्यतः दो भेद माने गए हैं –

  1. पाठ्य-मुक्तक
  2. गेय-मुक्तक

1. पाठ्य-मुक्तक

इस प्रकार के मुक्तक में विषय की प्रधानता रहती है।

  • किसी मुक्तक में किसी प्रसंग को लेकर भावानुभूति का चित्रण होता है।
  • किसी मुक्तक में किसी विचार अथवा रीति का वर्णन किया जाता है।

उदाहरण – कबीर, तुलसी, रहीम के भक्ति एवं नीति के दोहे; बिहारी, मतिराम, देव आदि की रचनाएँ।

2. गेय-मुक्तक

गेय-मुक्तक को गीतिकाव्य या प्रगीति भी कहा जाता है। यह अंग्रेजी के Lyric का समानार्थी है।
इसमें निम्न विशेषताएँ पाई जाती हैं –

  • भावप्रवणता
  • आत्माभिव्यक्ति
  • सौन्दर्यमयी कल्पना
  • संक्षिप्तता
  • संगीतात्मकता

👉 इस प्रकार मुक्तक काव्य जीवन के भावनात्मक, दार्शनिक और सौंदर्यमय पक्षों को संक्षिप्त और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने का माध्यम है।

(ख) दृश्य काव्य

दृश्य काव्य वह है जिसे मंचन या अभिनय के माध्यम से देखा और सुना जा सके। जिस काव्य या साहित्य को आँखों से देखकर, प्रत्यक्ष दृश्यों का अवलोकन कर रस-भाव की अनुभूति की जाती है, उसे दृश्य काव्य कहा जाता है।
इस आधार पर दृश्य काव्य की अवस्थिति मंच और मंचीय होती है।

उदाहरण – नाटक।

दृश्य काव्य के भेद

दृश्य काव्य के दो भेद माने गए हैं –

  1. रूपक
  2. उपरूपक

1. रूपक काव्य

रूपक की परिभाषा इस प्रकार दी गई है – “तदूपारोपात तु रूपम्”
अर्थात वस्तु, नायक तथा रस के तारतम्य, वैभिन्न्य और वैविध्य के आधार पर रूपक की रचना की जाती है।

भारतीय आचार्यों ने रूपक के दस भेद स्वीकार किए हैं –

  • नाटक
  • प्रकरण
  • भाषा
  • प्रहसन
  • डिम
  • व्यायोग
  • समवकार
  • वीथी
  • अंक
  • ईहामृग

इन भेदों में नाटक को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। प्रायः नाटक को ही रूपक की संज्ञा दी जाती है। नाट्यशास्त्र में भी रूपक के लिए “नाटक” शब्द का प्रयोग किया गया है।

👉 अग्नि पुराण में दृश्य काव्य (रूपक) के 28 भेद बताए गए हैं – नाटक, प्रकरण, डिम, ईहामृग, समवकार, प्रहसन, व्यायोग, भाव, वीथी, अंक, त्रोटक, नाटिका, सदृक, शिल्पक, विलासीका, दुर्मल्लिका, प्रस्थान, भाणिक, भाणी, गोष्ठी, हल्लीशका, काव्य, श्रीनिगदित, नाट्यरूपक, रासक, उल्लाव्यक और प्रेक्षण।

2. उपरूपक काव्य

अग्नि पुराण में उपरूपक के 18 भेद बताए गए हैं –
नाटिका, त्रोटक, गोष्ठी, सदृक, नाट्यरासक, प्रस्थान, उल्लासटय, काव्य, प्रेक्षणा, रासक, संलापक, श्रीगदित, शिंपल, विलासीका, दुर्मल्लिका, परकणिका, हल्लीशा और भणिका।

कुछ विद्वान उपरूपक काव्य के अंतर्गत गद्य, पद्य और चंपू को भी सम्मिलित मानते हैं।

👉 इस प्रकार दृश्य काव्य मुख्यतः मंचीय प्रस्तुति पर आधारित है और इसका उद्देश्य दर्शकों को प्रत्यक्ष रसाभिव्यक्ति के माध्यम से आनंदित करना होता है।

2. रचना शैली या स्वरूप के आधार पर काव्य के भेद

रचना शैली या स्वरूप के आधार पर काव्य को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया है –

  1. पद्य काव्य
  2. गद्य काव्य
  3. चंपू (मिश्र) काव्य

1. पद्य काव्य

पद्य काव्य साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कथा या मनोभाव को कलात्मक ढंग से रस, छंद, अलंकार, गति और लय के साथ अभिव्यक्त किया जाता है।
उदाहरण – रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कृति “गीतांजलि”

पद्य काव्य के भेद

पद्य काव्य दो प्रकार का होता है–

  1. प्रबंध काव्य – इसे पुनः तीन भागों में विभाजित किया गया है –
    • महाकाव्य
    • खण्डकाव्य
    • आख्यानक गीतियाँ
  2. मुक्तक काव्य – इसके भी दो प्रकार हैं –
    • गीति काव्य
    • पाठ्य काव्य

(इन सबका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है।)

2. गद्य काव्य

गद्य काव्य वह है जिसमें कथा का वर्णन साधारण छंद-विहीन भाषा में किया जाता है। इसमें रस, छंद, अलंकार, गति और लय का बंधन नहीं होता।
उदाहरण – जयशंकर प्रसाद की “कामायनी”

3. चंपू (मिश्र) काव्य

जिस काव्य में गद्य और पद्य दोनों का समावेश होता है उसे चंपू या मिश्र काव्य कहा जाता है।
उदाहरण – मैथिलीशरण गुप्त की “यशोधरा”

इस प्रकार शैली के आधार पर काव्य का यह वर्गीकरण अध्ययन की सुविधा प्रदान करता है और काव्य के स्वरूप को स्पष्ट करता है।

👉 इस प्रकार काव्य के भेद दो दृष्टिकोणों से देखे जाते हैं – अनुभूति के आधार पर (श्रव्य व दृश्य) और रचना की शैली के आधार पर (पद्य, गद्य और चम्पू)। दोनों ही वर्गीकरण काव्य की विविधता और उसकी साहित्यिक सम्पदा को स्पष्ट करते हैं।

विभिन्न विद्वानों द्वारा काव्य का वर्गीकरण

1. आचार्य भामह का वर्गीकरण

आचार्य भामह ने काव्य के स्वरूप भेद का आधार छंद को माना।

  • वृत्त अथवा छंदबद्ध काव्यों को उन्होंने पद्यकाव्य कहा।
  • वृत्तमुक्त या छंदमुक्त काव्यों को गद्यकाव्य कहा।

2. आचार्य दण्डी का वर्गीकरण

आचार्य दण्डी ने पद्यकाव्य और गद्यकाव्य के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार के काव्य की कल्पना की।

  • इसे उन्होंने मिश्र काव्य कहा, जिसमें गद्य और पद्य दोनों का समावेश होता है।

3. आचार्य वामन का वर्गीकरण

आचार्य वामन ने पद्य की अपेक्षा गद्य को अधिक महत्त्व दिया और गद्य को ही सच्चे कवि का मानदण्ड माना।
उन्होंने काव्य के तीन भेद बताए –

  1. पद्य काव्य
  2. गद्य काव्य
  3. मिश्र काव्य

उनके भेद–

  • पद्य काव्य – सर्गबंध, मुक्तक, कुलक, संघातक, कोषादि
  • गद्य काव्य – कथा, आख्यायिका
  • चंपू / मिश्र काव्य – नाटक, प्रकरण, भाण आदि

4. ध्वनिवादियों का दृष्टिकोण

ध्वनिवादियों ने उपर्युक्त भेदों को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने ध्वनि तत्व को ही सर्वस्व माना और उसी आधार पर काव्य भेद किए।

  • अलंकारवादी एवं रीतिवादी विद्वानों ने रचना के बाह्य सौंदर्य पर बल दिया।
  • ध्वनिवादियों ने अंतःसौंदर्य पर बल दिया।

आचार्य अभिनवगुप्त का वर्गीकरण

आचार्य अभिनवगुप्त ने ध्वन्यालोक लोचन में अनेक भेद बताए, जैसे–

  1. मुक्तक काव्य (संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश में निबद्ध)
  2. सदानितक
  3. विशेषक
  4. कलापक
  5. कुलक एवं पर्यायबन्ध
  6. परिकथा
  7. खण्डकथा
  8. सकल तथा सर्गबंध
  9. अभिनेयार्थ
  10. आख्यायिका
  11. कथा
  12. चंपू

5. काव्यप्रकाश का वर्गीकरण

काव्यप्रकाश में काव्य को तीन प्रकार का कहा गया है –

  1. ध्वनि – जिसमें छिपा हुआ अभिप्राय (व्यंग्य) प्रधान हो।
  2. गुणीभूत व्यंग्य – जिसमें व्यंग्य गौण हो।
  3. चित्र या अलंकार – जिसमें बिना व्यंग्य के केवल चमत्कार हो।

👉 इन्हें क्रमशः उत्तम, मध्यम और अधम भी कहा जाता है।

6. महाकाव्य और खंडकाव्य का स्वरूप

  • महाकाव्य – सर्गबद्ध होता है, नायक देवता या वीर गुणों से सम्पन्न राजा होता है। इसमें शृंगार, वीर या शान्त रस की प्रधानता रहती है। इसमें कम से कम आठ सर्ग होने चाहिए।
  • खंडकाव्य – इसमें ऋतु, पर्वत, वन, सागर, संयोग-विप्रलम्भ, यज्ञ, रणप्रयाण, विवाह आदि प्रसंगों का सन्निवेश होता है।

7. दृश्य और श्रव्य काव्य

कुछ विद्वानों ने काव्य को दो प्रकार का माना –

  1. दृश्य काव्य – जो अभिनय द्वारा मंच पर दिखाया जाए (जैसे नाटक, प्रहसन)।
  2. श्रव्य काव्य – जिसे पढ़ा या सुना जा सके।

👉 श्रव्य काव्य दो प्रकार का होता है –

  • पद्य (महाकाव्य और खंडकाव्य)
  • गद्य (कथा और आख्यायिका)

8. अन्य भेद

कुछ विद्वानों ने काव्य के अन्य प्रकार भी माने हैं–

  • चंपू
  • विरुद
  • कारंभक

👉 इस प्रकार विभिन्न आचार्यों और विचारधाराओं ने काव्य के भिन्न-भिन्न स्वरूप प्रस्तुत किए, जिनसे काव्यशास्त्र की परंपरा समृद्ध हुई।

पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार काव्य का वर्गीकरण

पश्चिम में काव्य संबंधी प्रकरण अपेक्षाकृत शिथिल है। वहाँ खंडकाव्य जैसी विधा स्थिर नहीं की गई, बल्कि कवि व्यक्तित्व, विषय और शैली आदि की मिश्रित दृष्टि से काव्य के भेद किए गए हैं।

1. प्लेटो का वर्गीकरण

यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने काव्य को तीन प्रकारों में विभाजित किया–

  1. अनुकरणात्मक काव्य – नाटक
  2. प्रकथनात्मक काव्य – आख्यान
  3. मिश्र काव्य – अनुकरण और प्रकथन दोनों का सम्मिलित रूप

2. अरस्तू का वर्गीकरण

प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने काव्य का वर्गीकरण पाँच आधारों पर किया–

  1. कवि व्यक्तित्व
    • वीरकाव्य – देवसूक्त, महाकाव्य, त्रासदी
    • व्यंग्य काव्य – कामदी, अवगीति
    परन्तु केवल कवि व्यक्तित्व ही काव्य रचना का कारण नहीं होता; देशकाल, वातावरण एवं प्रतिभा की भी भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।
  2. विषय
    • उदात्त काव्य – महाकाव्य, त्रासदी, देवसूक्त
    • यथार्थ काव्य – जीवन-आधारित चित्रण करने वाले काव्य
    • क्षुद्र काव्य – कामदी, अवगीति
    अरस्तू का यह वर्गीकरण पूरी तरह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि यथार्थ काव्य में भी उदात्तता हो सकती है।
  3. मिश्र
    • इसमें कवि व्यक्तित्व और विषय दोनों का मिश्रण है।
    • यह वर्गीकरण अधूरा माना गया क्योंकि मिश्र आधार से सम्पूर्ण विभाजन नहीं हो पाता।
  4. अनुकरण-रीति
    • समाख्यान काव्य
    • दृश्य काव्य
  5. माध्यम
    • गद्य
    • पद्य

👉 अरस्तू का यह वर्गीकरण अपने समय के साहित्य को आधार बनाकर किया गया था। इसमें भारतीय काव्य वर्गीकरण से भी कुछ समानताएँ मिलती हैं। उदाहरणस्वरूप दृश्य और श्रव्य तथा प्रबंध और मुक्तक की झलक इसमें देखी जा सकती है।

3. विलियम हेनरी हडसन का वर्गीकरण

पाश्चात्य समीक्षक हडसन ने काव्य का वर्गीकरण अधिक स्पष्ट और तर्कपूर्ण ढंग से किया।

उन्होंने काव्य को दो वर्गों में विभाजित किया–

  1. विषयी–प्रधान काव्य – जिसमें कवि व्यक्तित्व की प्रधानता होती है। इसे प्रगीत (Lyrics) कहा गया।
  2. विषय–प्रधान काव्य – जिसमें वस्तु या घटना की प्रधानता होती है। इसे एपिक (Epic) कहा गया।

हडसन द्वारा एपिक के प्रकार

  1. Epic of Growth
  2. Epic of Art
  3. Mock Epic (लघु रूप)

👉 हडसन ने Mock Epic की विशेष चर्चा की है। यद्यपि इसका लघु रूप भारतीय खंडकाव्य से मिलता-जुलता प्रतीत होता है, परन्तु समानता से अधिक विषमता इसमें पाई जाती है।

इस प्रकार पश्चिमी विद्वानों ने काव्य का वर्गीकरण भारतीय परंपरा की भाँति निश्चित रूप से व्यवस्थित नहीं किया, परंतु उनके विचार काव्यशास्त्र के वैश्विक विकास में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुए।

काव्य के उदाहरण

1. काव्यमीमांसा से उद्धरण

काव्य की विशेषताओं को स्पष्ट करने वाला एक प्रसिद्ध श्लोक –

“स्वास्थ्यं प्रतिभाभ्यासो भक्तिर्विद्वत्कथा बहुश्रुतता।
स्मृतिदाढर्यमनिर्वेदश्च मातरोऽष्टौ कवित्वस्य॥”

2. श्रव्य काव्य के उदाहरण

  • रामायण
  • महाभारत

3. प्रबंध काव्य का उदाहरण

  • रामचरितमानस

4. महाकाव्य के उदाहरण

  • पद्मावत
  • रामचरितमानस
  • कामायनी
  • साकेत

5. खंडकाव्य के उदाहरण

  • पंचवटी
  • सुदामा चरित्र
  • हल्दीघाटी
  • पथिक
  • मेघदूतम्
  • ऋतु संहार

6. मुक्तक काव्य के उदाहरण

  • विभिन्न कवियों के दोहे, जैसे–
    • रहीम के दोहे
    • सूरदास के पद
    • कबीर के दोहे

7. चंपू काव्य के उदाहरण

  • साहित्य देवता – माखनलाल चतुर्वेदी
  • विश्वधर्म – श्री वियोगी हरि
  • साधना – श्री राय कृष्ण दास
  • प्रवाल – श्री राय कृष्ण दास

इस प्रकार विभिन्न उदाहरणों से काव्य की विविध विधाएँ और उनके स्वरूप स्पष्ट रूप से समझे जा सकते हैं।

काव्य का विषय

मूलतः मानव ही काव्य का विषय है। जब कवि पशु-पक्षी अथवा प्रकृति का वर्णन करता है, तब भी वह मानव-भावनाओं का ही चित्रण करता है। व्यक्ति और समाज के जीवन का कोई भी पक्ष काव्य का विषय बन सकता है।

आधुनिक कवि का ध्यान अब जीवन के सामान्य एवं उपेक्षित पक्ष की ओर भी गया है। उसके विषय केवल महापुरुषों तक ही सीमित नहीं रहे, अपितु वह छिपकली, केंचुआ जैसे साधारण प्राणियों पर भी काव्य-रचना करने लगा है।

काव्य के उन्नत विषय, भाव, विचार, आदर्श-जीवन और उसमें निहित संदेश ही उसे स्थायी, महत्त्वपूर्ण और प्रभावकारी बनाते हैं।

काव्य की शब्द-शक्ति

शब्द का अर्थ बोध कराने वाली शक्ति ही शब्द-शक्ति कहलाती है। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध ही शब्द-शक्ति है।

शब्द-शक्ति के तीन भेद हैं –

  1. अभिधा – मुख्यार्थ का बोध कराने वाली।
  2. लक्षणा – जब मुख्यार्थ में बाधा होती है तो लक्ष्यार्थ का बोध कराने वाली।
  3. व्यंजना – ध्वनि पर आधारित, जिसमें छिपा हुआ अर्थ ध्वनित होता है।

कवि का अभिप्रेत अर्थ केवल मुख्यार्थ तक सीमित नहीं रहता। काव्यानन्द प्राप्त करने हेतु पाठक को लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ तक पहुँचना आवश्यक है।

उदाहरण के लिए – कवि फूलों को हँसता हुआ और मुख को मुरझाया हुआ कहता है। सामान्यतः हँसना मनुष्य से और मुरझाना फूल से संबद्ध है, परन्तु काव्य में यह अर्थान्तर लक्षणा और व्यंजना के आधार पर ही समझा जा सकता है।

कवि शब्द-चयन में अत्यंत सावधानी बरतता है, ताकि कविता का प्रभाव सहज रूप से पाठक या श्रोता पर पड़े।

काव्य की भाषा

काव्य-भाषा सामान्य भाषा से भिन्न होती है। उसमें निम्नलिखित विशेषताएँ पाई जाती हैं –

  • रागात्मकता
  • प्रतीकात्मकता
  • लाक्षणिकता
  • नादात्मकता

काव्य-भाषा सामान्य भाषा की तुलना में –

  • अधिक परिमार्जित और सुसंस्कृत,
  • स्वच्छंद और लचीली,
  • जीवंत और प्रभावी होती है।

कवि अपनी अनुभूति को प्रेषणीय बनाने के लिए भाषा में नए-नए प्रयोग करता है। वह ऐसे शब्दों का चयन करता है जो उसकी अनुभूति को सर्वाधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त कर सकें।

काव्य-भाषा की विशेषताएँ –

  • उसमें चित्रोपम एवं बिम्ब-विधायिनी शक्ति होती है, जिससे दृश्य पाठकों की कल्पना के सामने सजीव हो उठता है।
  • उसमें सुकुमारता, कोमलता और नाद-सौन्दर्य निहित रहता है।
  • सफल कवि वही है जो शब्दों और वर्ण-योजना से भाषा को रसानुकूल बना सके।

काव्य का प्रयोजन

आचार्य मम्मट ने काव्य के छः प्रयोजन बताए हैं –

काव्यं यशसे अर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे॥

इस श्लोक के आधार पर काव्य के प्रयोजन निम्नलिखित हैं –

  1. यश प्राप्ति – काव्य रचना से कवि को समाज में ख्याति और मान-सम्मान मिलता है।
  2. अर्थार्जन – काव्य के माध्यम से जीविका और धन की प्राप्ति संभव है।
  3. व्यवहार शिक्षा – काव्य से लोक-व्यवहार और जीवन-प्रणाली की शिक्षा मिलती है।
  4. अमंगल निवारण – काव्य श्रवण से अमंगल या अशुभ प्रभाव दूर होते हैं।
  5. परम शांति – काव्य से पाठक और श्रोता को गहन आत्मिक शांति प्राप्त होती है।
  6. उपदेश – काव्य, प्रिय कामिनी के समान, सहज और मनोहर ढंग से उपदेश देने का कार्य करता है।

काव्य का महत्व

  1. आनन्द प्रदान करना : काव्य आत्मा और हृदय को तृप्त करता है।
  2. भाषा को समृद्ध करना : काव्य के माध्यम से भाषा में अलंकार, रस और विविध प्रयोग संभव होते हैं।
  3. संवेदनाओं का विकास : यह मनुष्य को अधिक संवेदनशील और मानवीय बनाता है।
  4. समाज का मार्गदर्शन : कई बार कवियों ने काव्य के माध्यम से सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक जागरण किया।
  5. सांस्कृतिक धरोहर : काव्य किसी भी संस्कृति का जीवित प्रमाण होता है।

निष्कर्ष

काव्य केवल छन्द या पद्य की रचना मात्र नहीं है, बल्कि यह मानव हृदय की भावनाओं, संवेदनाओं और कल्पनाओं का कलात्मक रूप है। इसमें “रस” ही आत्मा है और “आनन्द” इसका मूल उद्देश्य। काव्य के माध्यम से न केवल भाषा और साहित्य का विकास होता है, बल्कि यह मानव जीवन को भी ऊँचाइयों तक ले जाता है। काव्य केवल शब्दों का जाल नहीं, बल्कि हृदय की गहनतम अनुभूति है। काव्य वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य अपनी भावनाओं को व्यक्त करता है, समाज को प्रेरणा देता है और सौन्दर्यानुभूति कराता है।

भारतीय साहित्य की समृद्ध परम्परा में काव्य को विशेष स्थान प्राप्त है। रस, अलंकार, कल्पना और शब्दों की कलात्मकता मिलकर काव्य को जीवंत बनाते हैं। “सत्यं शिवं सुंदरम्” की भावना को अभिव्यक्त करने वाला काव्य मानव जीवन को नई दिशा देता है। इसी कारण भारतीय परम्परा में काव्य को “साहित्य की आत्मा” कहा गया है।

इस प्रकार, काव्य वह वाक्य है जो रसात्मक हो, सौन्दर्य का बोध कराए और मानव हृदय को आनन्दित करे। यही कारण है कि आज भी काव्य मानव जीवन का अभिन्न अंग है और रहेगा।


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