हिन्दी की बोलियाँ : विकास, स्वरूप, उपभाषा, वर्गीकरण और साहित्यिक योगदान

भारत की भाषायी विविधता विश्व में अद्वितीय है। इसी बहुरंगी भाषा-संपदा के बीच हिन्दी एक ऐसी प्रमुख भाषा है, जो न केवल भारत के विशाल भू-भाग में बोली-समझी जाती है, बल्कि अनेक आंचलिक रूपों और बोलियों के कारण अत्यंत समृद्ध एवं बहुआयामी रूप ले चुकी है। हिन्दी की यही बोली-विविधता इसे राष्ट्रीय स्तर पर और अधिक जीवंत बनाती है। भारत के विभिन्न राज्यों, क्षेत्रों और सांस्कृतिक भू-भागों में हिन्दी अलग-अलग स्वर, लय, शब्दावली और व्याकरण के साथ दिखाई देती है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से हिन्दी की एक नहीं, बल्कि दर्जनों बोलियाँ हैं, जिनमें से कई साहित्यिक परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण आधार रही हैं।

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हिन्दी की प्रमुख बोलियाँ और उनका वर्गीकरण

हिन्दी एक विशाल जनसमुदाय की भाषा है, इसलिए इसकी बोलियों का समूह भी व्यापक है। इसके प्रमुख रूपों में अवधी, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुंदेली, बघेली, हड़ौती, भोजपुरी, हरयाणवी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, मालवी, नागपुरी, खोरठा, पंचपरगनिया, कुमाउँनी, मगही आदि शामिल हैं। भाषावैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार इन बोलियों को लेखन-शैली, उच्चारण, व्याकरण, भौगोलिक क्षेत्र और ऐतिहासिक विकास के आधार पर चार प्रमुख समूहों में बांटा जाता है—

  1. पश्चिमी हिन्दी
  2. पूर्वी हिन्दी
  3. उत्तरी हिन्दी (पहाड़ी हिन्दी)
  4. दक्षिणी हिन्दी (दक्खिनी)

नीचे इन चारों प्रमुख समूहों, उनकी बोलियों और उनके साहित्यिक योगदान का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत है।

1. पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ

पश्चिमी हिन्दी हिन्दी भाषा का अत्यंत महत्वपूर्ण और विकसित समूह है। इसका क्षेत्रीय विस्तार उत्तर-पश्चिमी भारत में हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली तथा राजस्थान के कुछ हिस्सों तक फैला हुआ है। यह क्षेत्र सदियों से हिन्दी साहित्य, कवियों और रचनाकारों का केंद्र रहा है।

पश्चिमी हिन्दी की प्रमुख बोलियाँ

इन बोलियों का विस्तार पंजाबी और राजस्थानी क्षेत्रों से प्रारंभ होकर पूर्व में अवधी और बघेली बोलियों तक देखा जाता है। पश्चिमी हिन्दी के बोलियों ने आधुनिक हिन्दी साहित्य के विकास में आधारभूत भूमिका निभाई है।

(क) ब्रजभाषा : मध्यकाल की सर्वश्रेष्ठ काव्यभाषा

हिन्दी साहित्य के इतिहास में ब्रजभाषा का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। मध्यकालीन भक्ति साहित्य का प्रमुख माध्यम ब्रजभाषा ही रही है। विशेष रूप से कृष्ण भक्ति की काव्य-धारा ब्रजभाषा में ही फली-फूली।

ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि—

  • सूरदास – सूरसागर
  • नन्ददास
  • रसखान
  • रहीम
  • केशवदास
  • बिहारी – सतसई
  • पद्माकर
  • मतिराम
  • भूषण आदि

इन महान कवियों ने ब्रजभाषा को भारतीय साहित्य की प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित कर दिया।

(ख) राजस्थानी और उसका साहित्य

राजस्थान की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा में राजस्थानी बोली का विशेष स्थान है। इसकी प्रमुख बोलियाँ—मारवाड़ी, ढूंढाड़ी, मालवी, मेवाती—राजपूताना की सांस्कृतिक आत्मा को जीवित रखती हैं।

राजस्थानी भाषा-साहित्य में मीराबाई का काव्य विशेष रूप से प्रसिद्ध है। भक्तिकाव्य और वैष्णव भक्ति-परंपरा में मीरा का साहित्य अतुलनीय है।

2. पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ

पूर्वी हिन्दी का भाषायी इतिहास अत्यंत प्राचीन है। इसका विकास अर्धमागधी प्राकृत से माना जाता है। यह क्षेत्र उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग से लेकर बिहार के मध्य और दक्षिण-पश्चिमी हिस्से तक फैला है। पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ आज भी बड़ी आबादी द्वारा बोली जाती हैं और इनका साहित्यिक योगदान भी उत्कृष्ट है।

पूर्वी हिन्दी की प्रमुख बोलियाँ

इन बोलियों ने हिन्दी भाषा को समृद्ध बनाने में अमूल्य भूमिका निभाई है।

(क) अवधी : हिन्दी का गौरवपूर्ण काव्य-भाषा रूप

अवधी भाषा में मध्यकाल से ही अत्युत्तम काव्य की परंपरा रही है।

अवधी साहित्य का स्वर्णयुग तुलसीदास और जायसी के रूप में दिखाई देता है।

  • गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस हिन्दी साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है।
  • मलिक मोहम्मद जायसी की पद्मावत अवधी काव्य की अनुपम रचना है।

अवधी में प्रबंध काव्य की परंपरा विशेष रूप से विकसित हुई है। उत्तर भारत में अवधी संस्कृति, लोकगीतों और कथाओं का प्रमुख आधार है।

(ख) मैथिली : प्राचीन साहित्यिक परंपरा की भाषा

मैथिली न केवल पूर्वी हिन्दी समूह की मुख्य बोली है, बल्कि इसे भारत की शास्त्रीय भाषाओं में भी स्थान प्राप्त है।

मैथिली में सर्वप्रसिद्ध कवि विद्यापति हुए, जिनकी पदावली आज भी भारतीय काव्य-संसार की अमर धरोहर है। विद्यापति को मैथिली काव्य का कोकिला कहा जाता है।

मैथिली साहित्य आत्मीयता, भावप्रवणता और सौंदर्यबोध के लिए विश्वप्रसिद्ध है।

(ग) भोजपुरी : पूर्वांचल की प्रमुख लोकभाषा

भोजपुरी भाषा पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के बहुसंख्यक क्षेत्रों में बोली जाती है। भोजपुरी में—

  • लोकगीत
  • लोककथाएँ
  • नाटक
  • आधुनिक गीत
  • फिल्में

विशेष रूप से लोकप्रिय हैं। भोजपुरी संस्कृति का प्रभाव भारत से लेकर नेपाल, फिजी, ट्रिनिडाड, मॉरिशस जैसे देशों तक फैला हुआ है।

(घ) छत्तीसगढ़ी, बघेली और मगही : लोकसंस्कृति की वाहक बोलियाँ

छत्तीसगढ़ी, बघेली और मगही बोलियाँ मध्य भारत और बिहार के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक क्षेत्र की पहचान हैं। मगही को मागधी प्राकृत का आधुनिक रूप माना जाता है। इन भाषाओं में भी समृद्ध लोक साहित्य मिलता है।

3. उत्तरी हिन्दी की बोलियाँ (पहाड़ी हिन्दी)

उत्तरी हिन्दी को पहाड़ी हिन्दी भी कहा जाता है, क्योंकि यह मुख्य रूप से हिमालयी क्षेत्रों—उत्तराखंड, हिमालय की तराई, गढ़वाल और कुमाऊँ—में बोली जाती है। इसका विकास खस प्राकृत से माना जाता है।

मुख्य बोलियाँ

पहाड़ी भाषाओं पर कई भाषाविदों ने विस्तृत शोध किया है। सर जार्ज ग्रियर्सन ने इसे “मध्य पहाड़ी” नाम से संबोधित किया।

ये भाषाएँ पर्वतीय संस्कृति, लोकगीतों, रीति-रिवाजों और लोककथाओं की संवाहक हैं।

4. दक्षिणी हिन्दी की बोली : दक्खिनी

दक्षिण भारत, विशेषकर हैदराबाद, महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों और कर्नाटक में हिन्दी का एक विशिष्ट रूप मिलता है—दक्खिनी

दक्खिनी के अन्य नाम

  • दक्खिनी हिन्दी
  • हिन्दवी
  • दखनी
  • देहलवी
  • हिन्दुस्तानी
  • दक्खिनी उर्दू
  • मुसलमानी आदि

दक्खिनी का निर्माण उत्तर भारत से गए सैनिकों, व्यापारियों, सूफियों और आम जनता के भाषायी संपर्क से हुआ। इसमें हिन्दी, उर्दू, तेलुगु, मराठी और कन्नड़ आदि भाषाओं के शब्दों का सम्मिश्रण देखने को मिलता है।

दक्खिनी सूफी साहित्य और लोक संस्कृति की महत्वपूर्ण भाषा रही है।

हिन्दी की उपभाषाएँ और बोलियों का भाषावैज्ञानिक वर्गीकरण

हिन्दी भाषा की विशालता का सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण इसकी विविध उपभाषाएँ और बोलियाँ हैं, जो भारतीय उपमहाद्वीप के अलग-अलग सांस्कृतिक एवं भौगोलिक क्षेत्रों में विशिष्ट रूप से विकसित हुई हैं। भाषावैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर इन्हें चार प्रमुख खण्डों में विभाजित किया जाता है—पश्चिमी, उत्तरी, पूर्वी और दक्षिणी। प्रत्येक खण्ड की अपनी विशिष्ट भाषिक पहचान, व्याकरणिक स्वरूप एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है।

नीचे इन चारों समूहों और उनकी प्रमुख उपभाषाओं को सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है:

A. पश्चिमी खण्ड की हिन्दी की बोलियाँ

पश्चिमी हिन्दी का मूल स्रोत शौरसेनी अपभ्रंश माना जाता है। इसका प्रसार उत्तर-पश्चिम भारत के विशाल भू-भाग में मिलता है—पंजाबी और राजस्थानी क्षेत्र से प्रारम्भ होकर यह पूर्व की ओर अवधी और बघेली क्षेत्रों तक विस्तारित है। उत्तर में पहाड़ी बोलियों का क्षेत्र तथा दक्षिण में मराठी के प्रभाव वाला क्षेत्र इसकी सीमाएँ निर्धारित करते हैं।

पश्चिमी हिन्दी की बोलियों में आकार-बहुला और उकार-बहुला—दोनों प्रकार के रूप पाए जाते हैं।

1. आकार-बहुला बोलियाँ

इन बोलियों की ध्वन्यात्मक संरचना में ‘आ’ वर्ण की अधिकता देखी जाती है। साहित्यिक दृष्टि से ब्रजभाषा इस समूह का सबसे समृद्ध रूप है।

2. उकार-बहुला बोलियाँ

ये बोलियाँ आधुनिक मानक हिन्दी के विकास का मूल आधार मानी जाती हैं।

3. राजस्थानी समूह

हालाँकि राजस्थानी कभी-कभी स्वतंत्र भाषा मानी जाती है, फिर भी इसके कई रूप पश्चिमी हिन्दी से घनिष्ठ संबंध रखते हैं। प्रमुख बोलियाँ—

राजस्थानी भाषायी परंपरा अपनी सांस्कृतिक समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है।

B. उत्तरी खण्ड की हिन्दी की बोलियाँ (पहाड़ी हिन्दी)

हिमालयी क्षेत्रों में विकसित हिन्दी की उपभाषाओं को सम्मिलित रूप से पहाड़ी हिन्दी कहा जाता है। इनका उद्भव खस प्राकृत से माना जाता है। प्रसिद्ध भाषाविद जार्ज ग्रियर्सन ने इसे “मध्य पहाड़ी” नाम दिया था।

उत्तरी खण्ड की प्रमुख बोलियाँ—

ये दोनों उपभाषाएँ उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं और अपनी विशिष्ट ध्वन्यात्मक विशेषताओं के लिए जानी जाती हैं।

C. पूर्वी खण्ड की हिन्दी की बोलियाँ

पूर्वी हिन्दी का विकास अर्धमागधी प्राकृत से हुआ है। यह क्षेत्र पश्चिमी हिन्दी और भोजपुरी के मध्य स्थित भू-भाग को समाहित करता है। ध्वन्यात्मक और व्याकरणिक संरचना की दृष्टि से यह समूह अत्यंत प्राचीन एवं समृद्ध माना जाता है।

1. पूर्वी हिन्दी समूह

इन भाषाई रूपों में लोक-साहित्य की सुदीर्घ परंपरा पाई जाती है।

2. बिहारी हिन्दी समूह

बिहार क्षेत्र में विकसित बोलियों का समूह बिहारी हिन्दी कहलाता है। इसका उद्भव मागधी प्राकृत से माना जाता है। कुछ विद्वान इसे हिंदी-पूर्वी भाषिक परंपरा तथा बंगला से भी जोड़ते हैं।

मुख्य बिहारी बोलियाँ—

इनमें मैथिली को शास्त्रीय भाषा का दर्जा प्राप्त है, जबकि भोजपुरी और मगही अपनी समृद्ध लोक-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं।

D. दक्षिणी खण्ड की हिन्दी : दक्खिनी

दक्षिण भारत में प्रचलित हिन्दी के रूप को दक्खिनी कहा जाता है। इसका निर्माण एक ऐतिहासिक घटना से जुड़ा है। 13वीं–14वीं शताब्दी में दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक द्वारा राजधानी को दौलताबाद (देवगिरी) स्थानांतरित करने के बाद उत्तर भारत के अनेक लोग दक्षिण की ओर गए। उनके साथ उनकी भाषा भी दक्षिण में पहुंची और वहीं एक विशिष्ट रूप में विकसित होकर दक्खिनी हिंदी बनी।

दक्खिनी की विशेषताएँ—

  • शब्दावली में हिन्दी, उर्दू, तेलुगु, कन्नड़ और मराठी का मिश्रण
  • सरल संरचना, सहज लय
  • दक्षिण भारत के सूफी साहित्य में प्रमुख भूमिका

दक्खिनी दक्षिणी हिन्दी समूह की एकमात्र प्रमुख बोली मानी जाती है।

इन उपभाषाओं और बोलियों का यह विस्तृत वर्गीकरण हिन्दी भाषा की समृद्ध परंपरा, उसके ऐतिहासिक परिवर्तन और भौगोलिक विविधता को उजागर करता है। प्रत्येक बोली अपनी सांस्कृतिक पहचान और साहित्यिक विशेषताओं के साथ हिन्दी को एक विस्तृत और बहुरंगी भाषा-समुदाय के रूप में स्थापित करती है।

पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ : एक सुव्यवस्थित परिचय

भारतीय भाषिक परंपरा में पश्चिमी हिन्दी एक अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसका उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है और इसका भौगोलिक प्रसार पश्चिम में पंजाब एवं राजस्थान से लेकर पूर्व में अवधी और बघेली क्षेत्रों तक फैला हुआ है। उत्तर में पहाड़ी भाषाएँ तथा दक्षिण में मराठी-भाषी क्षेत्र इसकी सीमा निर्धारित करते हैं।
साहित्यिक परंपरा के स्तर पर भी पश्चिमी हिन्दी अत्यंत समृद्ध रही है—विशेष रूप से ब्रजभाषा ने हिन्दी साहित्य को जो काव्य–धन दिया है, वह अनुपम है। भाषाशास्त्रियों ने इसकी बोलियों को आकार-बहुला और उकार-बहुला दो श्रेणियों में रखा है।

नीचे पश्चिमी हिन्दी की प्रमुख बोलियों का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत है:

1. हरियाणवी

हरियाणा तथा दिल्ली क्षेत्र में बोली जाने वाली यह उपभाषा पंजाबी और राजस्थानी दोनों के प्रभावों का सम्मिश्रण है। करनाल, रोहतक, हिसार, जींद, पटियाला तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ भाग इसके प्रमुख क्षेत्र हैं।
जार्ज ग्रियर्सन ने इसे “बाँगरू” कहा है, जबकि स्थानीय जन इसे कभी–कभी “जाटू” नाम से भी संबोधित करते हैं। बोलचाल में इसका व्यापक प्रयोग है, किंतु परिनिष्ठित साहित्यिक परंपरा अपेक्षाकृत कम विकसित है।

2. खड़ी बोली (कौरवी)

हिन्दी की मानक भाषा (Standard Hindi) का आधार मानी जाने वाली खड़ी बोली मेरठ, सहारनपुर, बुलंदशहर, देहरादून, रामपुर और मुजफ्फरनगर क्षेत्रों में बोली जाती है।
इसे कौरवी, नागरी, तथा देशी हिन्दुस्तानी जैसे नाम भी दिए गए हैं। ग्रियर्सन ने इसे “देशी हिन्दुस्तानी” कहकर संबोधित किया।
आज की मानक हिन्दी—जिसे राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में प्रयोग किया जाता है—मुख्यतः इसी बोली से विकसित हुई है।

3. ब्रजभाषा

ब्रजभूमि—मथुरा, वृन्दावन, आगरा, भरतपुर, धौलपुर, अलीगढ़, बदायूँ, मैनपुरी आदि क्षेत्रों—की प्रमुख भाषा ब्रजभाषा पश्चिमी हिन्दी की सबसे समृद्ध, मधुर और काव्यात्मक बोली मानी जाती है।
आधुनिक काल के पूर्व भारतीय काव्य–जगत में ब्रजभाषा का वर्चस्व रहा है। सूरदास, नन्ददास, बिहारी, देव, सेनापति, भारतेन्दु और रत्नाकर जैसे असंख्य महान कवियों ने इसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
साहित्यिक इतिहास में इसकी परंपरा अत्यंत लंबी और प्रभावशाली रही है।

4. बुंदेली

बुंदेलखण्ड के विस्तृत भूभाग—बांदा, झाँसी, हमीरपुर, सागर, दतिया, ओरछा, ग्वालियर, होशंगाबाद, रीवा तथा जबलपुर—में प्रचलित यह बोली मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश दोनों में फैली हुई है।
चम्बल और यमुना नदियों से लेकर विन्ध्य पर्वतमाला तक फैलने वाले इस क्षेत्र की सांस्कृतिक पहचान में बुंदेली भाषा महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसकी ध्वनि-रचना और रूप-रचना पर स्थानीय जनजीवन की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।

5. कन्नौजी

कन्नौज क्षेत्र की यह बोली कानपुर, हरदोई, शाहजहाँपुर और पीलीभीत तक फैली हुई है। भौगोलिक समीपता के कारण कई स्थानों पर ब्रजभाषा और कन्नौजी के स्वरूपों में अंतर करना कठिन हो जाता है।
फिर भी कुछ ध्वन्यात्मक विशिष्टताएँ इन्हें अलग पहचान देती हैं—जैसे ब्रज की ‘ऐ’ और ‘औ’ ध्वनियाँ कन्नौजी में ‘अइ’ और ‘अउ’ रूप में बदल जाती हैं (उदाहरण: कौन → कउन)।

6. मारवाड़ी

राजस्थानी भाषा-समूह की अत्यधिक प्रतिष्ठित बोली मारवाड़ी को प्राचीन साहित्य में “मरुभाषा” कहा गया है। आठवीं सदी के ग्रंथ कुवलयमाला तथा अबुल फजल की आइने-अकबरी में इसका उल्लेख विस्तृत रूप से मिलता है।
मारवाड़ी सदियों से राजस्थानी की साहित्यिक भाषा रही है और राजस्थान की सांस्कृतिक पहचान में इसकी एक विशिष्ट भूमिका है।

7. ढूँढाड़ी

जयपुर रियासत का अधिकांश भाग—शेखावाटी क्षेत्र को छोड़कर—ढूँढाड़ी बोली का मुख्य केंद्र रहा है। इसमें गुजराती और मारवाड़ी के प्रभाव समान रूप से दिखाई देते हैं।
साहित्यिक स्तर पर इसमें ब्रजभाषा के कई लक्षण भी मिले–जुले रूप में दिखते हैं, जो इसे और अधिक मधुर बनाते हैं।

8. मेवाती (मेवाड़ी)

मेवाड़ क्षेत्र और उसके आसपास के कई जिलों में बोली जाने वाली मेवाती को कुछ स्थानों पर मेवाड़ी भी कहा जाता है।
गाँवों में इसका शुद्ध स्वरूप आज भी सुना जा सकता है, जबकि शहरी इलाकों में हिन्दी और उर्दू के प्रभाव से इसकी मूल मधुरता कुछ कम हो गई है। यह बोली राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न हिस्सा है।

9. मालवी

मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र—उज्जैन, इंदौर, रतलाम, प्रतापगढ़, भोपाल, नीमच, ग्वालियर, झालावाड़ तथा पूर्वी चित्तौड़—में बोली जाने वाली मालवी दक्षिण-पूर्वी राजस्थानी से जुड़ा हुआ भाषिक रूप है।
भौगोलिक स्थिति के कारण यह बुंदेली और मारवाड़ी दोनों से प्रभावित है, और इसलिए इसकी संरचना में इन दोनों बोलियों की झलक मिलती है।

इस प्रकार पश्चिमी हिन्दी की विभिन्न बोलियाँ अपने-अपने क्षेत्रों में न केवल बोलचाल का माध्यम हैं, बल्कि साहित्य, संस्कृति और सामाजिक जीवन को भी समृद्ध बनाती रही हैं। इन बोलियों की विशिष्टता हिन्दी भाषा की व्यापकता और विविधता का प्रमाण है।

राजस्थानी हिन्दी : क्षेत्र, रूप एवं उपभाषागत विविधता

राजस्थान और उसके आस-पास के विस्तृत भू-भाग में प्रचलित भाषिक रूपों को सामूहिक रूप से राजस्थानी हिन्दी कहा जाता है। इसका प्रयोग न केवल पूरे राजस्थान में, बल्कि सिंध के सीमावर्ती क्षेत्रों और मध्य प्रदेश के मालवा अंचल में भी व्यापक है। आधुनिक समय में यह देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और व्यवहार में हिन्दी का ही एक विशिष्ट एवं विकसित स्वरूप मानी जाती है।
भारतीय भाषाविज्ञानी डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन ने राजस्थानी को पाँच प्रमुख उपभाषाओं में विभाजित किया है, जिनमें ध्वनि, शब्द-संरचना और भौगोलिक फैलाव के आधार पर उल्लेखनीय अंतर दिखाई देता है।

ग्रियर्सन द्वारा प्रतिपादित राजस्थानी की पाँच उपभाषाएँ

1. पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी)

पाँचों उपभाषाओं में सर्वाधिक विस्तृत और प्रभावशाली रूप मारवाड़ी है, जिसे पश्चिमी राजस्थानी का प्रतिनिधि रूप माना जाता है। यह मारवाड़, मेवाड़, बीकानेर, जैसलमेर, पूर्वी सिंध, दक्षिणी पंजाब तथा पुराने जयपुर राज्य के शेखावाटी भाग में बोलचाल की प्रमुख भाषा है।
अपने व्यापक क्षेत्र और साहित्यिक परंपरा के कारण मारवाड़ी को राजस्थानी भाषाओं का सबसे महत्त्वपूर्ण रूप माना जाता है।

2. मध्य-पूर्वी राजस्थानी (जयपुरी और हाड़ौती)

इस समूह की दो मुख्य बोलियाँ—जयपुरी और हाड़ौती—पूर्वी राजस्थान के बड़े भाग में बोली जाती हैं। भाषिक विशेषताओं की दृष्टि से जयपुरी को इस उपसमूह का मानक स्वरूप माना गया है।
यद्यपि यह भाषा पूर्वी राजस्थान से सम्बद्ध है, फिर भी शब्द-संपदा और कुछ व्याकरणिक विशेषताओं के कारण इसका गुजराती से घनिष्ठ संपर्क दिखाई देता है, जबकि मारवाड़ी पर सिंधी का प्रभाव अधिक स्पष्ट है।

3. उत्तरी-पूर्वी राजस्थानी (अहीरवाटी)

अलवर, भरतपुर, गुरुग्राम तथा दिल्ली के दक्षिण-पश्चिमी अहीर अंचल में बोली जाने वाली भाषा को सामान्यतः अहीरवाटी कहा जाता है।
यह रूप अपनी संरचना में पश्चिमी हिन्दी के अधिक निकट है, जिसके चलते कई विद्वान इसे हिन्दी की उपभाषा मानने की वकालत भी करते हैं।
फिर भी, भौगोलिक संलग्नता और ऐतिहासिक परंपरा के आधार पर इसे राजस्थानी समूह में सम्मिलित किया जाता है।

4. दक्षिणी-पूर्वी राजस्थानी (मालवी)

मालवा क्षेत्र तथा उसके आसपास के जिलों में बोली जाने वाली मालवी इस उपसमूह की प्रमुख बोली है। पूर्व में यह बुन्देली से और पश्चिम में गुजराती से प्रभावित है।
चूँकि यह दो प्रमुख भाषाई परंपराओं के बीच स्थित है, इसलिए इसके रूप में शुद्ध राजस्थानी विशेषताएँ अपेक्षाकृत कम और मिश्रित स्वरूप अधिक दिखाई देता है।

5. दक्षिणी राजस्थानी (नीमाडी)

नीमाड़ी, जो मालवी का ही एक विकसित और परिवर्तित रूप है, निमाड़ क्षेत्र की विशिष्ट बोली मानी जाती है।
इस पर आसपास की जनजातीय भाषाओं—भीली और खानदेशी—का मजबूत प्रभाव देखने को मिलता है, जिसके कारण इसका अपना अलग रूप और ध्वन्यात्मक विशेषताएँ विकसित हुई हैं।

राजस्थानी हिंदी का अन्य विद्वानों की वर्गीकरण-परंपरा

नरोत्तम स्वामी का वर्गीकरण

भाषाविद् प्रो. नरोत्तम स्वामी ने राजस्थानी की चार प्रमुख बोलियाँ स्वीकार की हैं—

  1. पश्चिमी राजस्थानी / मारवाड़ी – उदयपुर, जोधपुर, जैसलमेर, बीकानेर, शेखावाटी।
  2. पूर्वी राजस्थानी / ढूढ़ाड़ी – जयपुर एवं हाड़ौती क्षेत्र।
  3. उत्तरी राजस्थानी – मेवाती और अहीरी बोलियाँ।
  4. दक्षिणी राजस्थानी / मालवी – मालवा और निमाड़ क्षेत्र।

मोतीलाल मेनारिया का मत

डॉ. मोतीलाल मेनारिया ने राजस्थान की पाँच विविध बोलियों—मारवाड़ी, ढूंढाड़ी, मालवी, मेवाती और वागड़ी—का उल्लेख किया है।
इनमें भले ही आपस में बड़े अंतरों का अभाव है, परंतु भौगोलिक विस्तार और स्थानीय उपयोग के कारण इनके अलग नाम चलन में आए।

भीली और खानदेशी के संबंध में मतभेद

डॉ. ग्रियर्सन ने भीली और खानदेशी को राजस्थानी समूह से पृथक माना है, जबकि दूसरी ओर डॉ. सुनीति कुमार चट्टोपाध्याय व्याकरणिक संरचना के आधार पर भीली को राजस्थानी के अंतर्गत रखना अधिक उपयुक्त मानते हैं।
यह विविध मत इस बात का संकेत है कि राजस्थानी भाषिक परंपरा बेहद विस्तृत और लचीली है, जो समय, स्थान और जातीय प्रभावों के अनुसार निरंतर बदलती रही है।

पूर्वी हिन्दी : उत्पत्ति, क्षेत्र और प्रमुख बोलियाँ

पूर्वी हिन्दी का भाषिक आधार अर्धमागधी प्राकृत को माना जाता है। यह क्षेत्रीय रूप दक्षिण में मराठी, उत्तर में नेपाली, पश्चिम में कन्नौजी व बुन्देली और पूर्व में भोजपुरी के भाषिक संपर्क क्षेत्र से घिरा हुआ है। भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य-उत्तर भाग में फैला यह भाषाई समूह कई समृद्ध और विशिष्ट बोलियों का संचय है, जिनमें प्रमुख—अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, मैथिली और मगही—विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

1. अवधी

पूर्वी हिन्दी की बोलियों में अवधी को विशिष्ट साहित्यिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। ब्रज के बाद यदि किसी बोली ने मध्यकालीन हिन्दी साहित्य को सर्वाधिक गौरव दिया, तो वह अवधी ही है। इसे कभी-कभी कौसली या पूर्वी के नाम से भी संबोधित किया जाता है।
अवधी का व्यापक प्रयोग लखनऊ, इलाहाबाद (प्रयागराज), बाराबंकी, फैजाबाद (अयोध्या), सीतापुर, उन्नाव, बहराइच, फतेहपुर और जौनपुर जैसे क्षेत्रों में होता है। तुलसीदास, मलिक मोहम्मद जायसी और रहीम जैसे कवियों ने इस बोली को अमर कृतियों के माध्यम से प्रतिष्ठित किया।

2. बघेली

पूर्वी हिन्दी की एक महत्वपूर्ण शाखा बघेली है, जो मध्य प्रदेश के बघेलखंड क्षेत्र को अपनी आधारभूमि बनाती है। रीवा इसका प्रमुख केंद्र माना जाता है। इसके अतिरिक्त जबलपुर, मांडला, दमोह, मिर्जापुर, बांदा तथा आसपास के जिलों में भी यह बोली व्यापक है।
कुछ भाषाविद् बघेली को अवधी की दक्षिणी उपशाखा मानते हैं, जबकि अन्य इसे स्वतंत्र बोली का दर्जा देते हैं।

3. छत्तीसगढ़ी

रायपुर, बिलासपुर, खैरागढ़, सारंगढ़, बलौदा बाज़ार और नंदगाँव जैसे प्रदेशों में प्रचलित छत्तीसगढ़ी पूर्वी हिन्दी की एक विशिष्ट बोली है।
इस रूप की एक प्रमुख ध्वनि-विशेषता महाप्राण ध्वनियों की ओर झुकाव है, जैसे—

  • जन → झन
  • दौड़ → धौड़
    छत्तीसगढ़ी का मौखिक परंपरा में समृद्ध इतिहास है, यद्यपि इसका साहित्य अपेक्षाकृत सीमित रहा है। आज यह छत्तीसगढ़ राज्य की पहचान का महत्वपूर्ण भाषाई आधार है।

4. भोजपुरी

पूर्वी हिन्दी समूह की सर्वाधिक विस्तृत और अंतरराष्ट्रीय बोली भोजपुरी है। यह उत्तर प्रदेश के पूर्वी जिलों—बनारस (वाराणसी), गाजीपुर, आज़मगढ़, गोरखपुर, देवरिया—तथा बिहार के चंपारण, सारण और झारखंड के कुछ क्षेत्रों में व्यापक रूप से बोली जाती है।
भोजपुरी नाम का संबंध प्राचीन भोजपुर क्षेत्र से माना जाता है, जिसका उल्लेख राजा भोज के समय से मिलता है।
पुराने समय में भोजपुरी मुख्यतः कैथी लिपि में लिखी जाती थी।
भारत के अतिरिक्त यह नेपाल, मॉरीशस, सूरीनाम, गुयाना तथा त्रिनिदाद एवं टोबैगो जैसे देशों में प्रवासी भारतीयों के कारण आज भी एक जीवंत बोली के रूप में विद्यमान है।

5. मैथिली

मगध के उत्तरी भाग में विकसित मैथिली बिहार, झारखंड और नेपाल के तराई क्षेत्रों की एक अत्यंत समृद्ध बोली है।
भारत में यह दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, कटिहार, पूर्णिया, किशनगंज, भागलपुर, अररिया, सुपौल और सहरसा जैसे जिलों में बड़े पैमाने पर बोली जाती है।
नेपाल के धनुषा, सिरहा, सप्तरी, मोरंग, रौतहट, महोत्तरी और सुनसरी आदि जिलों में भी मैथिली व्यापक है।
आज मैथिली को भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल मान्यता प्राप्त भाषा का दर्जा भी प्राप्त है।

6. मगही

मगध क्षेत्र की प्रमुख लोकभाषा मगही या मागधी, पूर्वी हिन्दी समूह की एक अत्यंत पुरातन बोली है। इसका ऐतिहासिक रिश्ता भोजपुरी और मैथिली दोनों से घनिष्ठ है, और अनेक विद्वान इन्हें साझा “बिहारी भाषाओं” के समूह में रखते हैं।
मगही मुख्यतः बिहार के गया, पटना, राजगीर, नालंदा, जहानाबाद, अरवल, नवादा, शेखपुरा, लखीसराय, जमुई और औरंगाबाद जिलों में बोली जाती है।
यह देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और आज भी लोकगीतों, लोककथाओं और पारंपरिक सांस्कृतिक जीवन में अपनी जीवंत उपस्थिति बनाए हुए है।

उत्तरी हिन्दी की प्रमुख बोलियाँ (गढ़वाली और कुमाऊँनी)

उत्तरी हिन्दी की बोलियों को प्रायः पहाड़ी हिन्दी की संज्ञा दी जाती है। इन बोलियों की उत्पत्ति का आधार खस प्राकृत माना जाता है। सुप्रसिद्ध भाषावैत्ता सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने इन्हें मध्य-पहाड़ी भाषाएँ कहा है। वर्तमान में यह भाषा-परंपरा मुख्यतः गढ़वाल और कुमाऊँ मंडल में प्रचलित है, जहाँ ये स्थानीय लोकसंस्कृति और पहाड़ी जीवन का महत्वपूर्ण अंग हैं।

1. गढ़वाली

गढ़वाल अंचल—जिसमें गढ़वाल, टिहरी, चमोली आदि जिले शामिल हैं—की स्थानीय भाषा को गढ़वाली कहा जाता है। इस बोली में लोकगीत, कथाएँ, सूक्तियाँ और पारंपरिक साहित्य अत्यंत समृद्ध रूप में विद्यमान हैं। भाषा-विज्ञानियों के अनुसार गढ़वाली पर ब्रजभाषा एवं राजस्थानी का उल्लेखनीय प्रभाव देखा जाता है, जिससे इसकी ध्वनि-विधान और शब्द-समृद्धि में विशिष्टता आती है।

2. कुमाऊँनी

कुमाऊँ क्षेत्र की बोली कुमाऊँनी है, जिसे ऐतिहासिक रूप से कूर्मांचल प्रदेश की भाषा भी माना गया है। इस बोली के विकास में दरद, राजस्थानी, खड़ी बोली, किरात और भोट भाषाओं का सम्मिलित प्रभाव दिखाई देता है। कुमाऊँनी की लगभग बारह उपबोलियाँ मानी जाती हैं, जिनमें से खस को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह बोली पहाड़ी समाज की सांस्कृतिक विरासत और दैनिक जीवन, दोनों में गहराई से रची-बसी है।

दक्षिणी हिन्दी (दक्खिनी) बोली

दक्षिण भारत के व्यापक भूभाग में हिन्दी की जो स्वरूप-परंपरा विकसित हुई, उसे दक्खिनी कहा जाता है। ऐतिहासिक ग्रंथों में इसके अनेक पर्याय मिलते हैं—जैसे हिन्दवी, दकनी, देहलवी, हिन्दुस्तानी, दक्खिनी हिन्दी, दक्खिनी उर्दू आदि। यद्यपि नाम भिन्न-भिन्न हैं, पर भाषिक दृष्टि से यह हिन्दी का ही एक स्वतंत्र और जीवंत रूप है।

दक्खिनी साहित्य का विकास अत्यंत समृद्ध रहा है। ख्वाजा बंदानवाज़, गैसूदराय, मुहम्मद कुली कुतुबशाह जैसे कवि और विद्वान इस परंपरा के प्रमुख साहित्यकार माने जाते हैं, जिन्होंने दक्खिनी को एक विशिष्ट साहित्यिक पहचान प्रदान की।

दक्खिनी बोली की प्रमुख भाषिक विशेषताएँ

  • दक्खिनी का अनेक स्तरों पर खड़ी बोली से गहरा साम्य दिखाई देता है।
  • इस बोली में मिट्टा, सुक्का, किच्चड़ जैसे द्वित्व-व्यंजन वाले शब्द सामान्यतः प्रयुक्त होते हैं।
  • दक्खिनी में “न्द” और “म्ब” के स्थान पर क्रमशः “न” और “म्म” का प्रयोग होता है; जैसे—चान्दनी → चाननी, गुम्बज → गुम्मज आदि।
  • दक्खिनी में विभिन्न कारक-चिह्नों के लिए विशिष्ट परसर्ग मिलते हैं—कर्म के लिए कू, करण के लिए सू, संबंध के लिए क्या/केरा, और अधिकरण के लिए मने, पो आदि।
  • इस भाषाई धारा का उर्दू से भी घनिष्ठ संबंध रहा है, किंतु दक्खिनी परंपरा के शास्त्रकार मूलतः इसे हिन्दी की ही शैली के रूप में स्वीकारते हैं। दक्खिनी लेखकों द्वारा ‘उर्दू’ शब्द का प्रयोग इसके लिए नहीं किया गया है।

खड़ी बोली : आधुनिक हिन्दी की आधारशिला

यद्यपि हिन्दी की अनेक बोलियाँ हैं, लेकिन आज के समय में खड़ी बोली को मानक हिन्दी के रूप में स्वीकार किया गया है।
आधुनिक हिन्दी गद्य और काव्य दोनों का आधार खड़ी बोली ही है।

खड़ी बोली के प्रमुख साहित्यकार

  • अमीर खुसरो – खड़ी बोली के प्रथम प्रख्यात कवि
  • जयशंकर प्रसादकामायनी (खड़ी बोली का प्रसिद्ध महाकाव्य)
  • सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ – हिन्दी में अतुकान्त महाकाव्य का सृजन

खड़ी बोली के आधार पर आधुनिक पत्रकारिता, साहित्य, शिक्षा और प्रशासनिक भाषा का निर्माण हुआ। आज यह भारतीय गणराज्य की राजभाषा तथा भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित है।

हिन्दी की आधुनिक शहरी बोलियाँ

हिन्दी के साहित्यिक और पारंपरिक रूपों के अतिरिक्त आज देश के महानगरों में हिन्दी के कई नए आधुनिक रूप विकसित हुए हैं। ये रूप स्थानीय भाषाओं के प्रभाव से निर्मित हुए और आज राष्ट्रीय लोकप्रियता प्राप्त कर चुके हैं।

मुख्य शहरी रूप

  • बम्बइया हिन्दी – मराठी + हिन्दी का मिश्रण
  • कलकतिया हिन्दी – बंगाली + हिन्दी का मिश्रण
  • हैदराबादी हिन्दी – उर्दू + दक्खिनी + तेलुगु का मिश्रण
  • दिल्ली की हिन्दी – पंजाब, हरियाणा और शहरी संस्कृति का मिला-जुला रूप

ये रूप फिल्मों, टीवी, सोशल मीडिया और लोक संस्कृति में विशेष रूप से लोकप्रिय हैं।

हिन्दी की बोलियों का समग्र महत्व

हिन्दी की प्रत्येक बोली अपने भीतर एक संपूर्ण सांस्कृतिक संसार समेटे हुए है। इन बोलियों ने—

  • लोकगीतों
  • लोककथाओं
  • महाकाव्यों
  • भक्तिकाव्य
  • रीति काव्य
  • समसामयिक साहित्य

से हिन्दी भाषा और साहित्य को अमूल्य योगदान प्रदान किया है।

यदि आज हमें हिन्दी इतनी समृद्ध दिखाई देती है, तो इसके पीछे इन सभी बोलियों की विरासत है। साहित्य जगत में विद्यापति, तुलसीदास, जायसी, सूरदास, कबीर, बिहारी, मीरा, खुसरो, निराला—इन सभी कवियों की रचनाएँ उनकी-उनकी बोलियों के कारण ही संभव हुईं।

निष्कर्ष

हिन्दी की बोलियाँ केवल भाषा के विविध रूप नहीं हैं, बल्कि वे भारतीय संस्कृति की जीवंत धरोहर हैं। वे लोकजीवन की आत्मा, जनमानस की संवेदना और भारतीय समाज की बहुरंगी पहचान को संजोए हुए हैं।
खड़ी बोली ने भले ही आज मानक हिन्दी का रूप ले लिया हो, लेकिन हिन्दी की वास्तविक गहराई, शक्ति और सौंदर्य उसकी आंचलिक बोलियों में ही निहित है।

हिन्दी का भविष्य तभी उज्ज्वल होगा, जब हम उसकी इन समृद्ध बोलियों को पहचानेंगे, संरक्षित करेंगे और साहित्य में उनका सम्मानजनक स्थान सुनिश्चित करेंगे। हिन्दी बोली-विविधता ही उसकी असली शक्ति है—जो उसे विश्व की महान भाषाओं में अग्रणी स्थान प्रदान करती है।


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