POCSO केस पर दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला

भारत में बच्चों के विरुद्ध यौन अपराध एक गंभीर सामाजिक, नैतिक और कानूनी चुनौती बने हुए हैं। ऐसे अपराध न केवल बच्चे के शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाते हैं, बल्कि उसके मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक विकास पर भी दीर्घकालिक दुष्प्रभाव डालते हैं। इन्हीं चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने वर्ष 2012 में यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act, 2012) लागू किया।

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने POCSO अधिनियम से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में यह स्पष्ट किया कि केवल इस आधार पर कि बाल पीड़ित मुकदमे के दौरान अपनी गवाही से मुकर (Hostile) गया है, मामले को खारिज नहीं किया जा सकता। यह निर्णय न केवल कानूनी दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संदर्भों में भी अत्यंत प्रासंगिक है।

यह लेख दिल्ली उच्च न्यायालय के इस निर्णय के प्रमुख बिंदुओं, POCSO अधिनियम की कानूनी संरचना, बाल पीड़ितों के मुकरने के कारण, तथा न्यायिक प्रणाली की भूमिका का विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत करता है।

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मामला और दिल्ली उच्च न्यायालय का संदर्भ

दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष आया यह मामला अनाचार (Incest) से जुड़ा था, जिसमें सौतेले पिता पर अपनी नाबालिग बेटी के साथ यौन अपराध करने का आरोप था। निचली अदालत द्वारा अभियुक्त को दोषी ठहराया गया था, किंतु अपील के दौरान यह तर्क दिया गया कि मुकदमे के दौरान पीड़ित बच्ची अपनी पूर्व गवाही से मुकर गई थी, अतः सजा को रद्द किया जाना चाहिए।

हालांकि, उच्च न्यायालय ने इस तर्क को अस्वीकार करते हुए सजा को बरकरार रखा और कहा कि—

“बाल पीड़ितों की शत्रुता को अलग-थलग (Isolation) में नहीं देखा जा सकता, बल्कि इसके पीछे के सामाजिक, पारिवारिक और मनोवैज्ञानिक दबावों को समझना आवश्यक है।”

बाल पीड़ितों के ‘Hostile’ होने के पीछे के कारण

(क) पारिवारिक दबाव

अदालत ने माना कि अधिकांश POCSO मामलों में अपराधी परिवार का ही सदस्य होता है—पिता, सौतेला पिता, चाचा या कोई अन्य करीबी। ऐसे में परिवार अक्सर “इज्जत”, “सम्मान” और “समाज में बदनामी” के भय से बच्चे पर गवाही बदलने का दबाव डालता है।

(ख) सामाजिक बहिष्कार का डर

ग्रामीण और अर्ध-शहरी समाज में यौन अपराधों से जुड़ी पीड़ित बच्चियों को सामाजिक तिरस्कार और अलगाव का सामना करना पड़ता है। इससे बच्चे में अपराध-बोध (Guilt) और भय उत्पन्न होता है।

(ग) परिवार की एकता बनाए रखने की इच्छा

अदालत ने विशेष रूप से कहा कि बच्चे अक्सर परिवार टूटने के डर से सत्य को छिपा लेते हैं। उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि यदि वे सच बोलेंगे तो परिवार बिखर जाएगा।

(घ) आश्रय और आर्थिक सुरक्षा खोने का भय

जब अपराधी परिवार का मुख्य कमाने वाला या देखभाल करने वाला हो, तो बच्चे को यह डर सताता है कि उसकी गवाही के कारण वह आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा खो देगा।

गवाही से मुकरना ≠ अपराध का अभाव

दिल्ली उच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि—

“यदि वैज्ञानिक, चिकित्सीय और फोरेंसिक साक्ष्य अपराध की पुष्टि करते हैं, तो केवल पीड़ित के बयान बदलने से अभियुक्त को बरी नहीं किया जा सकता।”

वैज्ञानिक और फोरेंसिक साक्ष्य

  • DNA प्रोफाइलिंग
  • मेडिकल रिपोर्ट (MLC)
  • चोटों का चिकित्सीय परीक्षण
  • फोरेंसिक लैब रिपोर्ट

इन साक्ष्यों की स्वतंत्र विश्वसनीयता होती है और इन्हें पीड़ित की गवाही से अलग करके भी देखा जा सकता है।

BNSS की धारा 164 और उसकी प्रासंगिकता

न्यायालय ने इससे पूर्व एक अन्य मामले का उल्लेख करते हुए कहा कि BNSS की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष दर्ज बयान अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं।

  • यह बयान बिना दबाव के, सुरक्षित वातावरण में दर्ज किया जाता है
  • यह प्रारंभिक और स्वाभाविक प्रतिक्रिया को दर्शाता है
  • मुकदमे के दौरान मुकरने के बावजूद, इसे सजा का आधार बनाया जा सकता है

POCSO अधिनियम, 2012: उद्देश्य और संरचना

(क) अधिनियम का उद्देश्य

POCSO अधिनियम का मुख्य उद्देश्य बच्चों को यौन शोषण, उत्पीड़न और अश्लीलता से बचाना तथा अपराधियों को कठोर दंड देना है।

(ख) ‘बच्चे’ की परिभाषा

इस अधिनियम के तहत 18 वर्ष से कम आयु का प्रत्येक व्यक्ति ‘बच्चा’ माना गया है।

(ग) लैंगिक तटस्थता

यह कानून लड़के और लड़की—दोनों पर समान रूप से लागू होता है।

अधिनियम के तहत परिभाषित अपराध

  • मर्मभेदी यौन हमला (Penetrative Sexual Assault)
  • गंभीर मर्मभेदी यौन हमला (Aggravated Penetrative Sexual Assault)
  • यौन हमला (Sexual Assault)
  • यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment)

इन अपराधों को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर कानून ने किसी भी प्रकार की अस्पष्टता को समाप्त किया है।

दोष की उपधारणा: धारा 29 और 30

POCSO अधिनियम की सबसे विशिष्ट विशेषता इसकी धारा 29 और 30 हैं।

धारा 29

यदि अभियोजन यह सिद्ध कर देता है कि—

  • पीड़ित की आयु 18 वर्ष से कम थी
  • यौन कृत्य घटित हुआ

तो यह मान लिया जाएगा कि अभियुक्त दोषी है

धारा 30

यह अभियुक्त के दोषपूर्ण मानसिक तत्व (Culpable Mental State) को भी मान्य मानती है।

👉 अभियुक्त को इसे “संभावनाओं की प्रबलता” (Preponderance of Probabilities) के आधार पर गलत साबित करना होता है।

सामान्य आपराधिक सिद्धांत से भिन्न कानून

POCSO अधिनियम सामान्य आपराधिक कानून के उस सिद्धांत से अलग है जिसमें कहा जाता है—

“अपराध सिद्ध होने तक अभियुक्त निर्दोष है।”

यहाँ बाल संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है।

सजा का प्रावधान

  • न्यूनतम सजा: कठोर कारावास
  • अधिकतम सजा: आजीवन कारावास
  • 2019 के संशोधन के बाद:
    • कुछ गंभीर मामलों में मृत्युदंड का भी प्रावधान

समयबद्ध न्याय की व्यवस्था

  • जांच रिपोर्ट: 2 महीने के भीतर
  • मुकदमे का निपटारा: 1 वर्ष के भीतर
  • विशेष POCSO कोर्ट का गठन

इसका उद्देश्य बच्चों को सामान्य अदालतों के तनावपूर्ण वातावरण से बचाना है।

पीड़ित की पहचान की गोपनीयता

POCSO अधिनियम के तहत—

  • पीड़ित की पहचान उजागर करना दंडनीय अपराध है
  • मीडिया, पुलिस और न्यायालय—सभी पर यह प्रतिबंध लागू है

2024 के नए मॉडल दिशानिर्देश

दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2024 के नए मॉडल दिशानिर्देशों का उल्लेख करते हुए कहा कि—

  • यदि कोई पीड़ित मुकदमे के दौरान मुकर जाता है, तो
    • उसकी सुरक्षा कम नहीं की जानी चाहिए
    • बल्कि और अधिक बढ़ाई जानी चाहिए

अनाचार (Incest) मामलों में राज्य की भूमिका

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि—

  • पीड़ित को वैकल्पिक सुरक्षित निवास
  • मनोवैज्ञानिक परामर्श (Counselling)
  • शिक्षा और पुनर्वास की व्यवस्था

करना राज्य का संवैधानिक दायित्व है।

निर्णय का व्यापक महत्व

(क) न्यायिक दृष्टिकोण में संवेदनशीलता

यह फैसला दर्शाता है कि न्यायालय अब केवल तकनीकी आधार पर नहीं, बल्कि मानवीय और सामाजिक यथार्थ को ध्यान में रखकर निर्णय दे रहे हैं।

(ख) पीड़ित-केंद्रित न्याय

यह निर्णय पीड़ित-केंद्रित (Victim Centric Justice) दृष्टिकोण को मजबूत करता है।

(ग) सामाजिक संदेश

यह समाज को यह संदेश देता है कि—

“बाल अपराधों में समझौता, दबाव या चुप्पी को न्याय का विकल्प नहीं माना जाएगा।”

निष्कर्ष

दिल्ली उच्च न्यायालय का यह निर्णय POCSO अधिनियम की आत्मा और उद्देश्य के अनुरूप है। यह स्पष्ट करता है कि बाल पीड़ितों की गवाही से मुकरना अपराध के अस्तित्व को समाप्त नहीं करता, बल्कि यह उस सामाजिक दबाव का संकेत हो सकता है जिसके विरुद्ध कानून बना है।

POCSO अधिनियम केवल दंडात्मक कानून नहीं, बल्कि एक संरक्षणात्मक, पुनर्वासात्मक और संवेदनशील कानूनी ढांचा है। ऐसे निर्णय न केवल न्यायपालिका की प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं, बल्कि बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए समाज और राज्य—दोनों की सामूहिक जिम्मेदारी को भी रेखांकित करते हैं।


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