चालुक्य वंश | 6वीं शताब्दी – 12हवीं शताब्दी

चालुक्य वंश की उत्पत्ति एक अत्यंत ही विवादास्पद विषय है। वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में इन्हें ‘शूलिक’ जाति का माना गया है। जबकि पृथ्वीराजरासो में इनकी उत्पति आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ के अग्निकुण्ड से बतायी जाती है। ‘विक्रमांकदेवचरित’ में इस वंश की उत्पत्ति भगवान ब्रह्म के चुलुक से बताई जाती है। इतिहासकार ‘विन्सेण्ट ए. स्मिथ’ इन्हें विदेशी मानते हैं। ‘एफ. फ्लीट’ तथा ‘के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री’ ने इस वंश का नाम ‘चलक्य’ बताया है। ‘आर.जी. भण्डारकरे’ ने इस वंश का प्रारम्भिक नाम ‘चालुक्य’ का उल्लेख किया है। ह्वेनसांग ने चालुक्य नरेश पुलकेशी द्वितीय को क्षत्रिय कहा है। इस प्रकार चालुक्य नरेशों की वंश एवं उत्पत्ति का कोई अभिलेखीय प्रमाण नहीं मिलता है। और इस विषय में अनेकों मत है।

चालुक्य कौन थे?

चालुक्य वंश
  • चालुक्य दक्षिण और मध्य भारत में राज करने वाले शासक थे, जिनका प्रभुत्व छठी से बारहवीं शताब्दी तक रहा।
  • इतिहास में चालुक्यों के परिवारों का उल्लेख मिलता है।
  • इनमें सबसे पुराना वंश बादामी चालुक्य वंश कहलाता है जो छठी शताब्दी के मध्य से वातापि (आधुनिक बादामी) में सत्ता में था।
  • कालांतर में बादामी चालुक्य राजा पुलकेसिन द्वितीय की मृत्यु के उपरान्त पूर्वी दक्कन में चालुक्यों का एक अलग राज अस्तित्व में आया जिसके राजाओं को पूर्वी चालुक्य कहा जाता है. ये लोग वेंगी से सत्ता चलाते थे और इनका राजपाठ 11वीं शताब्दी तक चला।
  • 10वीं शताब्दी में कल्याणी (आधुनिक बासवकल्याण) में एक तीसरे चालुक्य वंश का उदय हुआ जो पश्चिमी चालुक्य कहलाते थे।

  • इनका शासन 12वीं शताब्दी तक चला था।
  • इन तीनों चालुक्य वंशों के बीच रक्त का सम्बन्ध था।

चालुक्य वंश का परिचय एवं प्रमुख शासक

चालुक्यों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वे अपने को ब्रह्मा या मनु अथवा चंद्रमा का वंश मानते हैं। वे ऐतिहासिक दृष्टि से स्वयं को बहुत प्राचीन जताने के लिए कहते हैं कि उनके पूर्वज अयोध्या में राज्य करते थे। वीसेंट स्मिथ जैसे प्रसिद्ध इतिहासकार उन्हें गुर्जर जाति का मानते हैं जो मूलतः सोंडियाना से आये हुए विदेशी थे और भारत में आने के बाद दक्षिण राजस्थान में रहते थे। स्मिथ के विचार से अब कोई भी सहमत नहीं है। अब अधिकांश इतिहासकार उन्हें क्षत्रिय वर्ण के स्थानीय लोग मानते हैं जो मूलतः उत्तर भारत के किसी स्थान से दक्षिण कर्नाटक में पहुँचे थे।

शासकशासनकाल
जयसिंह चालुक्य
रणराग
पुलकेशी प्रथम(550-566 ई.)
कीर्तिवर्मा प्रथम(566-567 ई.)
मंगलेश(597-98 से 609 ई.)
पुलकेशी द्वितीय(609-10 से 642-43 ई.)
विक्रमादित्य प्रथम(654-55 से 680 ई.)
विनयादित्य(680 से 696 ई.)
विजयादित्य(696 से 733 ई.)
विक्रमादित्य द्वितीय(733 से 745 ई.)
कीर्तिवर्मा द्वितीय(745 से 753 ई.)

जयसिंह चालुक्य

जयसिंह चालुक्य को चालुक्य साम्राज्य का प्रथम शासक माना जाता है। कैरा ताम्रपत्र अभिलेखीय साक्ष्य से यह प्रमाणित होता है कि, जयसिंह, चालुक्य राजवंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक था।

रणराग

रणराग, वातापी के चालुक्य नरेश जयसिंह का पुत्र एवं उत्तराधिकारी था।

  • रणराग सम्भवतः 520 ई. में वातापी के राज्यसिंहासन पर बैठा।
  • गदा युद्ध में कुशल होने के कारण उसने ‘रण रागसिंह’ की उपाधि धारण की थी।

पुलकेसिन प्रथम (550-566 ई.)

बादामी चालुक्यों का राजवंश संस्थापक पुलकेसिन प्रथम माना जाता है। उसने 549-50 ई. में सर्वप्रथम स्वयं को स्वतंत्र घोषित किया।

कीर्तिवर्मन प्रथम (566-567 ई.)

पुलकेसिन प्रथम के बाद कीर्तिवर्मन प्रथम गद्दी पर बैठा। उसने कोंकण के के मौर्यों, वनवासी के क़दमों तथा दक्षिण मैसूर के नलों को पराजित किया। कोंकण की विजय के फलस्वरूप रेवतीद्वीप (आधुनिक गोवा) नामक तात्कालिक प्रसिद्ध बंदरगाह इस बढ़ते हुए साम्राज्य का अंग बन गया।

मंगलेश (597-98 से 609 ई.)

कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के समय उसके तीनों पुत्र नाबालिग थे, इसलिए उसका छोटा भाई मंगलेश सिंहासन पर (लगभग 597-98 ई. में) बैठा।

पुलकेसिन द्वितीय (609-10 से 642-43 ई.)

कीर्तिवर्मन प्रथम का पुत्र पुलकेसिन द्वितीय लगभग 609-10 ई. में गद्दी में बैठा. उसने शीघ्र ही अपने को इस राजवंश का सबसे योग्य शासक प्रमाणित किया। 642 ई. में (नए पल्लव सम्राट) नरसिंह वर्मन ने अपने पिता (महेंद्रवर्मन) के अपमान का बदला लेने के लिए (श्रीलंका के राजकुमार मानव वर्मा के सहयोग से) चालुक्यों की राजधानी बादामी पर आक्रमण कर दिया। पुलकेसिन द्वितीय की पराजय तथा मृत्यु ने बादामी चालुक्यों के लिए इतना भयंकर संकट का समय पैदा कर दिया कि लगभग तेरह वर्ष (642 ई. से 655 ई.) तक चालुक्यों की गद्दी पर कोई मानी सम्राट ही नहीं रहा। 

विनयादित्य (680 से 696 ई.)

विक्रमादित्य प्रथम के बाद उसी का पुत्र विनयादित्य बादामी का शासक बना। उसने पल्लवों, कलभ्रों, मालवों और चोलों आदि को पराजित किया।

विजयादित्य (696 से 733 ई.)

उसने 696 ई. से 733 ई. तक राज किया। वह साहस एवं वीरता की दृष्टि से अपने पिता के समान था। अभिलेखों के अनुसार उसने किन्हीं चार प्रदेशों को जीता।

विक्रमादित्य द्वितीय (733 से 745 ई.)

वह 733 ई. में गद्दी पर बैठा। पल्लवों पर तीन बार सफल आक्रमण किये।

कीर्तिवर्मन द्वितीय (745 से 753 ई.)

कीर्तिवर्मन ने 746 ई. से 753 ई. तक राज किया। वह बादामी चालुक्य शाखा का अंतिम सम्राट था। 

चालुक्य कला एवं स्थापत्य कला

  • चालुक्यों ने कई गुफा मन्दिर बनाए जिनमें सुन्दर भित्ति चित्र भी अंकित किये गये. चालुक्य मंदिर स्थापत्य की वेसर शैली के अच्छे उदाहरण हैं।
  • वेसर शैली को ही दक्कन शैली अथवा कर्नाटक द्रविड़ शैली अथवा चालुक्य शैली कहा जाता है।
  • इस शैली में द्रविड़ और नागर दोनों शैलियों का मिश्रण है।
  • चालुक्य मंदिरों से सम्बंधित एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान पट्टडकालु है. यह एक (UNESCO) विश्व धरोहर स्थल है. यहाँ चार मंदिर नागर शैली में हैं और छह मंदिर द्रविड़ शैली में हैं। द्रविड़ शैली के दो प्रसिद्ध मंदिरों के नाम विरूपाक्ष मंदिर और संगमेश्वर मंदिर हैं। नागर शैली का एक प्रसिद्ध मंदिर पापनाथ मंदिर भी यहीं है।
  • पट्टडकालु के मंदिर 7वीं और 8वीं शताब्दी के बने हुए हैं। ये मंदिर हिन्दू और जैन दोनों प्रकार के हैं।
  • पट्टडकालु मालप्रभा नदी के पश्चिमी तट पर स्थित है।
  • पट्टडकालु की मिट्टी लाल है. इसलिए इसे “किसुवोलाल” (लाल मिट्टी की घाटी) अथवा रक्तपुरा (लाल नगर) अथवा पट्टड-किसुवोलाल (लाल मिट्टी वाली राज्यारोहण की घाटी) भी कहते हैं।

चालुक्य मूर्तिकला

चालुक्य शासन काल में मूर्तिकला की भी प्रगति हुई बादामी में मिले तीन हिन्दू तथा एक जैन हॉलों में अनेक सुन्दर मूर्तियाँ मिलती हैं।हिन्दू हॉलों में एक गुफा में अनंत के वाहन पर बैठे हुए विष्णु की तथा नरसिंह की दो मूर्तियाँ बहुत सुन्दर हैं. विरूपाक्ष मंदिर की दीवारों पर शिव, नागिनियों तथा रामायण के दृश्यों की मूर्तियाँ बनिया गई हैं. एलोरा की अनेक मूर्तियाँ चालुक्यों के शासनकाल में बनाई गयी थीं.

चालुक्य चित्रकला

अजंता और एलोरा की गुफाएँ अपनी सुन्दर चित्रकला के लिए विश्व-विख्यात हैं. ये दोनों राज्य चालुक्य राज्य में स्थित थे. विद्वानों की राय है कि इसमें से कई चित्र चालुक्य शासन काल में बनवाये गये।. अजंता के एक चित्र में ईरानी दूत-मंडल को पुलकेसिन द्वितीय के समक्ष अभिवादन करते हुए दिखाया गया है. अनेक स्थानों पर गुफाओं की दीवारों को सजाने के लिए भी चित्र बनाए गए. इस चित्र में बहुत से लोगों को भगवान् विष्णु की उपासना करते हुए दिखाया गया है. यह इतना सुन्दर है कि दर्शकगण आश्चर्यचकित रह जाते हैं।

वंश शाखाएँ

दक्षिणपथ मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत था। जब मौर्य सम्राटों की शक्ति शिथिल हुई, और भारत में अनेक प्रदेश उनकी अधीनता से मुक्त होकर स्वतंत्र होने लगे, तो दक्षिणापथ में सातवाहन वंश ने अपने एक पृथक् राज्य की स्थापना की। कालान्तर में इस सातवाहन वंश का बहुत ही उत्कर्ष हुआ, और इसने मगध पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। शकों के साथ निरन्तर संघर्ष के कारण जब इस राजवंश की शक्ति क्षीण हुई, तो दक्षिणापथ में अनेक नए राजवंशों का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें वाकाटक, कदम्ब और पल्लव वंश के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्हीं वंशों में से वातापि या बादामी का चालुक्य वंश और कल्याणी का चालुक्य वंश भी एक था।

वातापी व बादामी का चालुक्य वंश

छठी शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर जिस चालुक्य वंश की शाखा का अधिपत्य रहा उसका उत्कर्ष स्थल बादामी या वातापी होने के कारण उसे बादामी या वातापी चालुक्य कहा जाता है। इस शाखा को पूर्वकालीन पश्चिमी चालुक्य भी कहा जाता है। पुलकेशिन द्वितीय के एहोल अभिलेख से बादामी के चालुक्यों के बार में प्रमाणिक ज्ञान प्राप्त होता है। ऐहोल लेख की रचना रविकृत ने की थी।

वातापी का चालुक्य वंश

वाकाटक वंश के राजा बड़े प्रतापी थे और उन्होंने विदेशी कुषाणों की शक्ति का क्षय करने में बहुत अधिक कर्तृत्व प्रदर्शित किया था। इन राजाओं ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में अनेक अश्वमेध यज्ञों का भी अनुष्ठान किया। पाँचवीं सदी के प्रारम्भ में गुप्तों के उत्कर्ष के कारण इस वंश के राज्य की स्वतंत्र सत्ता का अन्त हुआ। कदम्ब वंश का राज्य उत्तरी कनारा बेलगाँव और धारवाड़ के प्रदेशों में था। प्रतापी गुप्त सम्राटों ने इसे भी गुप्त साम्राज्य की अधीनता में लाने में सफलता प्राप्त की थी। पल्लव वंश की राजधानी कांची थी, और सम्राट समुद्रगुप्त ने उसकी भी विजय की थी। 

गुप्त साम्राज्य के क्षीण होने पर उत्तरी भारत के समान दक्षिणापथ में भी अनेक राजवंशों ने स्वतंत्रतापूर्वक शासन करना प्रारम्भ किया। दक्षिणापथ के इन राज्यों में चालुक्य और राष्ट्रकूट वंशों के द्वारा स्थापित राज्य प्रधान थे। उनके अतिरिक्त देवगिरि के यादव, वारंगल के काकतीय, कोंकण के शिलाहार, बनवासी के कदम्ब, तलकाड़ के गंग और द्वारसमुद्र के होयसल वंशों ने भी इस युग में दक्षिणापथ के विविध प्रदेशों पर शासन किया। जिस प्रकार उत्तरी भारत में विविध राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वाकांक्षी राजा विजय यात्राएँ करने और अन्य राजाओं को जीतकर अपना उत्कर्ष करने के लिए तत्पर रहते थे, वही दशा दक्षिणापथ में भी थी।

चालुक्य वंश | 6वीं शताब्दी - 12हवीं शताब्दी

वातापी के चालुक्य वंश का अन्त

चालुक्य वंश | 6वीं शताब्दी - 12हवीं शताब्दी

विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 744 ई. के लगभग कीर्तिवर्मा द्वितीय विशाल चालुक्य साम्राज्य का स्वामी बना। पर वह अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित साम्राज्य को क़ायम रखने में असमर्थ रहा। दन्तिदुर्ग नामक राष्ट्रकूट नेता ने उसे परास्त कर महाराष्ट्र में एक नए राजवंश की नींव डाली, और धीरे-धीरे राष्ट्रकूटों का यह वंश इतना शक्तिशाली हो गया, कि चालुक्यों का अन्त कर दक्षिणापथ पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। चालुक्यों के राज्य का अन्त 753 ई. के लगभग हुआ। वातापी के चालुक्य राजा न केवल वीर और विजेता थे, अपितु उन्होंने साहित्य, वास्तुकला आदि के संरक्षण व संवर्धन की ओर भी अपना ध्यान दिया।

कल्याणी का चालुक्य वंश

चालुक्यों की मुख्य शाखा का अन्तिम महत्त्वपूर्ण शासक सम्भवतः कीर्तिवर्मा द्वितीय था। चालुक्यों की कुछ छोटी शाखाओं ने भी कुछ दिन तक शासन किया। ऐसी ही एक शाखा कल्याणी के चालुक्यों की थी, जिसका महत्त्वपूर्ण शासक तैल अथवा तैलप द्वितीय था, आरम्भ में वह राष्ट्रकूटों का सामन्त था, परन्तु बाद में राष्ट्रकूटों की दुर्बलता का लाभ उठाकर वह एक स्वतंत्र शासक बन गया। उसने अन्तिम राष्ट्रकूट शासक कक्र को अपदस्त कर सत्ता पर अधिकार कर लिया।

इसकी पत्नी ‘जक्कल महादेवी’ थी, जो राष्ट्रकूट शासक भामह की पुत्री थी। सत्तारूढ़ होने के बाद तैलप ने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना आरम्भ किया। उसके इस साम्राज्य विस्तारवादी नीति का प्रबल विरोधी गंग नरेश पांचाल देव था। दोनों के मध्य कई बार युद्ध हुआ।

अन्त में वेल्लारी के सामन्त शासक गंगभूतिदेव की सहायता से तैलप ने पांचाल देव को पराजित कर मार दिया। इस महत्त्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में तैलप द्वितीय ने ‘पांचलमर्दनपंचानन’ का विरुद्व धारण किया तथा अपने सहायक गंगभूतिदेव को तोरगाले का शासक बनाकर उसे ‘आहवमल्ल’ की उपाधि से अलंकृत किया।

तैलप द्वितीय ने चेदि, उड़ीसा और कुंतल ने शासक उत्तम चोल तथा मालवा के परमार राजा मुंज को पराजित किया। तैलप द्वितीय द्वारा मुंज के स्थान का उल्लेख आवन्तरकालीन ग्रन्थ आइना-ए-अकबरी तथा उज्जैन से प्राप्त अभिलेख में मिलता है। कन्नड़ कथाओं में तैलप द्वितीय को भगवान श्रीकृष्ण का अवतार कहा गया है।

उसने ‘भुनैकमल्ल’, ‘महासामन्तधिपति’, ‘आहमल्ल’, ‘महाराजाधिराज’, ‘परमेश्वर’, ‘परमभट्टारक’, ‘चालुक्यभरण’, ‘सत्याश्रम’, ‘कुलतिलक’ तथा ‘समस्तभुवनाश्रय’ आदि उपाधियां धारण की थीं। पहले चालुक्य वंश की राजधानी वातापी थी, पर इस नये चालुक्य वंश ने कल्याणी को राजधानी बनाकर अपनी शक्ति का विस्तार किया। इसीलिए ये ‘कल्याणी के चालुक्य’ कहलाते हैं।

चालुक्य शक्ति में निर्बलता

सोमेश्वर तृतीय के बाद कल्याणी के चालुक्य वंश का क्षय शुरू हो गया। 1138 ई. में सोमेश्वर तृतीय की मृत्यु हो जाने पर उसका पुत्र जगदेकमल्ल द्वितीय राजा बना। इस राजा के शासन काल में चालुक्यों में निर्बलता आ गई। अन्हिलवाड़ा कुमारपाल (1143-1172 ई.) के जगदेकमल्ल के साथ अनेक युद्ध हुए, जिनमें कुमारपाल विजयी हुआ। 1151 ई. में जगदेकमल्ल की मृत्यु के बाद तैल ने कल्याणी का राजसिंहासन प्राप्त किया।

उसका मंत्री व सेनापति विज्जल था, जो कलचुरी वंश का था। विज्जल इतना शक्तिशाली व्यक्ति था, कि उसने राजा तैल को अपने हाथों में कठपुतली के समान बना रखा था। बहुत से सामन्त उसके हाथों में थे। उनकी सहायता से 1156 ई. के लगभग विज्जल ने तैल को राज्यच्युत कर स्वयं कल्याणी की राजगद्दी पर अपना अधिकार कर लिया, और वासव को अपना मंत्री नियुक्त किया।

कल्याणी के चालुक्य वंश का अन्त

भारत के धार्मिक इतिहास में ‘वासव’ का बहुत अधिक महत्त्व है। वह लिंगायत सम्प्रदाय का प्रवर्तक था। जिसका दक्षिणी भारत में बहुत प्रचार हुआ। विज्जल स्वयं जैन था, अतः राजा और मंत्री में विरोध उत्पन्न हो गया। इसके परिणामस्वरूप वासव ने विज्जल की हत्या कर दी। विज्जल के बाद उसके पुत्र ‘सोविदेव’ ने राज्य प्राप्त किया, और वासव की शक्ति को अपने क़ाबू में लाने में सफलता प्राप्त की।

धार्मिक विरोध के कारण विज्जल और सोविदेव के समय में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, चालुक्य राजा तैल के पुत्र सोमेश्वर चतुर्थ ने उससे लाभ उठाया, और 1183 ई. में सोविदेव को परास्त कर चालुक्य कुल के गौरव को फिर से स्थापित किया। पर चालुक्यों की यह शक्ति देर तक स्थिर नहीं रह सकी।

विज्जल और सोविदेव के समय में वातापी के राज्य में जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गई थी, उसके कारण बहुत से सामन्त व अधीनस्थ राजा स्वतंत्र हो गए, और अन्य अनेक राजवंशों के प्रतापी व महत्त्वकांक्षी राजाओं ने विजय यात्राएँ कर अपनी शक्ति का उत्कर्ष शुरू कर दिया। इन प्रतापी राजाओं में देवगिरि के यादव राजा भिल्लम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। 1187 ई. में भिल्लम ने चालुक्य राजा सोमेश्वर चतुर्थ को परास्त कर कल्याणी पर अधिकार कर लिया, और इस प्रकार प्रतापी चालुक्य वंश का अन्त हुआ।

वेंगि का चालुक्य वंश

प्राचीन समय में चालुक्यों के अनेक राजवंशों ने दक्षिणापथ व गुजरात में शासन किया था।

इनमें से अन्हिलवाड़ (गुजरात) वातापी और कल्याणी को राजधानी बनाकर शासन करने वाले चालुक्य वंश थे। पर इन तीनों के अतिरिक्त चालुक्य का एक अन्य वंश भी था, जिसकी राजधानी वेंगि थी। यह इतिहास में ‘पूर्वी चालुक्य’ के नाम से विख्यात है, क्योंकि इसका राज्य चालुक्यों के मुख्य राजवंश (जिसने कल्याणी को राजधानी बनाकर शासन किया) के राज्य से पूर्व में स्थित था। इनसे पृथक्त्व प्रदर्शित करने के लिए कल्याणी के राजवंश को ‘पश्चिमी चालुक्य राजवंश’ भी कहा जाता है।

इतिहास में वेंगि के पूर्वी चालुक्य वंश का बहुत अधिक महत्त्व नहीं है, क्योंकि उसके राजाओं ने न किसी बड़े साम्राज्य के निर्माण में सफलता प्राप्त की, और न दूर-दूर तक विजय यात्राएँ कीं। पर क्योंकि कुछ समय तक उसके राजाओं ने भी स्वतंत्र रूप से राज्य किया, अतः उनके सम्बन्ध में भी संक्षिप्त विवरण प्राप्त होता है।

  • जिस समय वातापी के प्रसिद्ध चालुक्य सम्राट पुलकेशी द्वितीय ने (सातवीं सदी के पूर्वार्ध में) दक्षिणापथ में अपने विशाल साम्राज्य की स्थापना की, उसने अपने छोटे भाई ‘कुब्ज विष्णुवर्धन’ को वेंगि का शासन करने के लिए नियुक्त किया था। ‘विष्णुवर्धन’ की स्थिति एक प्रान्तीय शासक के समान थी, और वह पुलकेशी द्वितीय की ओर से ही कृष्णा और गोदावरी नदियों के मध्यवर्ती प्रदेश का शासन करता था। पर उसका पुत्र ‘जयसिंह प्रथम’ पूर्णतया स्वतंत्र हो गया था, और इस प्रकार पूर्वी चालुक्य वंश का प्रादुर्भाव हुआ। इस वंश के स्वतंत्र राज्य का प्रारम्भकाल सातवीं सदी के मध्य भाग में था।
  • जब तक वातापी में मध्य चालुक्य वंश की शक्ति क़ायम रही, वेंगि के पूर्वी चालुक्यों को अपने उत्कर्ष का अवसर नहीं मिल सका। पर जब 753 ई. के लगभग राष्टकूट दन्तिदुर्ग द्वारा वातापी के चालुक्य राज्य का अन्त कर दिया गया, तो वेंगि के राजवंश में अनेक ऐसे प्रतापी राजा हुए, जिन्होंने राष्ट्रकूटों और अन्य पड़ोसी राजाओं पर आक्रमण करके उनके साथ युद्ध किया। इनमें ‘विक्रमादित्य द्वितीय’ (लगभग 799-843) और ‘विजयादित्य तृतीय’ (843-888) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इन दोनों राजाओं ने राष्टकूटों के मुक़ाबले में अपने राज्य की स्वतंत्र सत्ता क़ायम रखने में सफलता प्राप्त की। इनके उत्तराधिकारी चालुक्य राजा भी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने में सफल रहे।
  • दसवीं सदी के अन्तिम भाग में वेंगि को एक नयी विपत्ति का सामना करना पड़ा। जो चोलराज राजराज प्रथम (985-1014) के रूप में थी। इस समय तक दक्षिणापथ में राष्टकूटों की शक्ति का अन्त हो चुका था, और कल्याणी को अपनी राजधानी बनाकर चालुक्य एक बार फिर दक्षिणापथपति बन गए थे। राजराज प्रथम ने न केवल कल्याणी के चालुक्य राजा सत्याश्रय को परास्त किया, अपितु वेंगि के चालुक्य राजा पर भी आक्रमण किया। इस समय वेंगि के राजसिंहासन पर ‘शक्तिवर्मा’ विराजमान था। उसने चोल आक्रान्ता का मुक़ाबला करने के लिए बहुत प्रयत्न किया, और अनेक युद्धों में उसे सफलता भी प्राप्त हुई, पर उसके उत्तराधिकारी ‘विमलादित्य’ (1011-1018) ने यही उचित समझा, कि शक्तिशाली चोल सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली जाए।
  • राजराज प्रथम ने विमलादित्य के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर उसे अपना सम्बन्धी व परम सहायक बना लिया। विमलादित्य के बाद उसका पुत्र ‘विष्णुवर्धन’ पूर्वी चालुक्य राज्य का स्वामी बना। उसका विवाह भी चोलवंश की ही एक कुमारी के साथ हुआ था। उसका पुत्र ‘राजेन्द्र’ था, जो ‘कुलोत्तुंग’ के नाम से वेंगि का राजा बना। उसका विवाह भी एक चोल राजकुमारी के साथ हुआ, और विवाहों के कारण वेंगि के चालुक्य कुल और चोलराज का सम्बन्ध बहुत घनिष्ठ हो गया।
  • चोलराजा अधिराजेन्द्र के कोई सन्तान नहीं थी। वह 1070 ई. में चोल राज्य का स्वामी बना, और उसी साल उसकी मृत्यु भी हो गई। इस दशा में वेंगि के चालुक्य राजा राजेन्द्र कुलोत्तुंग ने चोल वंश का राज्य भी प्राप्त कर लिया, क्योंकि वह चोल राजकुमारी का पुत्र था। इस प्रकार चोल राज्य और वेंगि का पूर्वी चालुक्य राज्य परस्पर मिल कर एक हो गए, और ‘राजेन्द्र कुलोत्तुंग’ के वंशज इन दोनों राज्यों पर दो सदी के लगभग तक शासन करते रहे। 1070 के बाद वेंगि के राजवंश की अपनी कोई पृथक् सत्ता नहीं रह गयी थी।
  • कल्याणी के चालुक्य वंश का दक्षिणापथ के बड़े भाग पर उनका आधिपत्य था, और अनेक प्रतापी चालुक्य राजाओं ने दक्षिण में चोल, पांड्य और केरल तक व उत्तर में बंग, मगध और नेपाल तक विजय यात्राएँ की थीं। पर जब बारहवीं सदी के अन्तिम भाग में चालुक्यों की शक्ति क्षीण हुई, तो उनके अनेक सामन्त राजा स्वतंत्र हो गए, और अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से शासन करने लगे। जिस प्रकार उत्तरी भारत में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के ह्रास काल में अनेक छोटे-बड़े राजपूत राज्य क़ायम हुए, वैसे ही दक्षिणी भारत में कल्याणी के चालुक्यों की शक्ति क्षीण होने पर अनेक राजाओं ने स्वतंत्र होकर अपने पृथक् राज्यों की स्थापना की।

इन्हें भी देखें


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