हिंदी भाषा विश्व की समस्त भाषाओं में सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है, जिसे भारत की राजभाषा का दर्जा हासिल है। विश्व की प्रत्येक भाषा की तरह ही हिंदी भाषा की सबसे सुक्ष्म इकाई वर्ण (Latter) होता है, जिसे एक क्रमबद्ध और व्यवस्थित रूप में लिखा जाता है।
हिंदी भाषा की सबसे छोटी इकाई ध्वनि होती है। इसी ध्वनि को ही वर्ण कहा जाता है। वर्णों के व्यवस्थित समूह को वर्णमाला (Alphabet) कहते हैं।
मानक हिंदी वर्णमाला
हिन्दी में उच्चारण के आधार पर 45 वर्ण होते हैं। इनमें 10 स्वर Vowel और 35 व्यंजन Consonant होते हैं। एवं लेखन के आधार पर 52 वर्ण होते हैं इसमें 13 स्वर Vowel , 35 व्यंजन Consonant तथा 4 संयुक्त व्यंजन Consonant होते हैं।
उच्चारण के आधार पर वर्णों की संख्या
उच्चारण के आधार पर 10 स्वर Vowel और 35 व्यंजन Consonant होते हैं। कुल वर्णों की संख्या 45 होती हैं।
- स्वर
- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ (कुल संख्या = 10)
- अनुस्वार
- अं
- विसर्ग
- अ:
- व्यंजन
- क, ख, ग, घ, ङ
- च, छ, ज, झ, ञ
- ट, ठ, ड, ढ, ण
- द्विगुण व्यंजन- ड़, ढ़
- त, थ, द, ध, न
- प, फ, ब, भ, म
- य, र, ल, व
- श, ष, स, ह (कुल संख्या = 35)
- संयुक्त व्यंजन
- क्ष, त्र, ज्ञ, श्र
लेखन के आधार पर वर्णों की संख्या
लेखन के आधार पर 13 स्वर Vowel , 35 व्यंजन Consonant तथा 4 संयुक्त व्यंजन Consonant होते हैं। कुल वर्णों की संख्या 52 होती है।
- स्वर
- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, (ऋ), ए, ऐ, ओ, औ
- अनुस्वार
- अं
- विसर्ग
- अ: ( कुल संख्या = 13)
- व्यंजन
- क, ख, ग, घ, ङ
- च, छ, ज, झ, ञ
- ट, ठ, ड, ढ, ण
- द्विगुण व्यंजन- ड़, ढ़
- त, थ, द, ध, न
- प, फ, ब, भ, म
- य, र, ल, व
- श, ष, स, ह
- संयुक्त व्यंजन
- क्ष, त्र, ज्ञ, श्र ( कुल संख्या = 35 व्यंजन + 4 संयुक्त व्यंजन)
- (क्+ष=क्ष, त्+र=त्र, ज्+ ञ=ज्ञ, श्+र=श्र)
- विदेशों से आगत / गृहीत ध्वनियाँ
- अरबी-फारसी – क़, ख़, ग़, ज़, झ़, फ़ ( तल बिंदु या नुक्ता वाले वर्ण )
- अंगेजी – ऑ (अर्ध चन्द्र बिंदु वाले वर्ण )
पञ्चमाक्षर – वर्णमाला में किसी वर्ग का पाँचवाँ व्यञ्जन पञ्चमाक्षर कहलाता है। जैसे- ‘ङ’, ‘ञ’, ‘ण’, ‘न’, ‘म’ आदि। आधुनिक हिन्दी में पञ्चमाक्षरों का प्रयोग बहुत कम हो गया है और इसके स्थान पर अब बिन्दी (ं) का प्रचलन बढ़ गया है।
वर्णों को निम्न नामों से जाना जाता है
- स्वर की संख्या: 11 (अ , आ , इ ,ई , उ , ऊ , ए , ऐ , ओ , औ , ऋ)
- अनुस्वार: 1 (अं)
- विसर्ग: 1 (अः)
- स्पर्शी व्यंजन: 25 (क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, व, भ, म)
- उष्म व्यंजन: 4 (श, ष, स, ह)
- अंतःस्थ व्यंजन: 4 (य, र, ल, व)
- सयुंक्त व्यंजन: 4 (क्ष , त्र , ज्ञ , श्र)
- द्विगुण व्यंजन: 2 (ड़, ढ़)
वर्णमाला के भाग
वर्णमाला के दो भाग होते हैं —
- स्वर Vowel :
- जिन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस, कण्ठ, तालु आदि स्थानों से बिना रुके हुए निकलती है, उन्हें ‘स्वर’ कहा जाता है।
- व्यंजन Consonant :
- जिन वर्णों का उच्चारण करते समय साँस कण्ठ, तालु आदि स्थानों से रुककर निकलती है, उन्हें ‘व्यंजन‘ कहा जाता है।
- प्राय: व्यंजनों का उच्चारण स्वर की सहायता से किया जाता है।
हिंदी स्वर (Vowel) की परिभाषा
जिन वर्णों का उच्चारण बिना किसी अन्य वर्ण की सहायता से किया जा सकता हो उन्हें स्वर कहते हैं। स्वरों का उच्चारण करते समय हवा फेफड़ों से उठकर बिना किसी बाधा के मुंह अथवा नाक के द्वारा बाहर निकलती है। हिंदी वर्णमाला में ग्यारह स्वर होते हैं-
अ , आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ
हिंदी वर्णमाला में ग्यारह स्वरों के अतिरिक्त अनुस्वार (अं) और विसर्ग (अ:) नामक दो ध्वनियां और भी होती हैं, जिन्हें अयोगवाह कहते हैं। इन दोनों वर्णों को मानक हिंदी स्वरों में स्थान नहीं दिया गया है।
आसान से आसान भाषा में कहें तो स्वर ध्वनियाँ पूर्णतया स्वतंत्र ध्वनियाँ होती है, जिनका उच्चारण करते समय हमारे मुख के किसी भी हिस्से के साथ वायु का घर्षण नहीं होता है।
हिंदी स्वरों का वर्गीकरण
हिंदी भाषा के स्वरों Vowels को छः आधारों पर वर्गीकृत किया गया है –
- मात्रा अथवा उच्चारण काल के आधार पर
- ओष्ठों की आकृति के आधार पर
- मानव जीभ की क्रियाशीलता के आधार पर
- तालु की स्थिति अथवा मुखाकृति के आधार पर
- जाति के आधार पर
- उच्चारण अथवा अनुनासिकता के आधार पर
1. मात्रा अथवा उच्चारण काल के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण
किसी स्वर के उच्चारण में लगने वाले समय को मात्रा कहते हैं। मात्रा काल के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण महर्षि पाणिनि ने अपनी रचना ‘अष्टाध्यायी’ में किया था। प्रत्येक स्वर के उच्चारण में लगने वाले समय के आधार पर स्वरों के तीन प्रकार होते हैं, अर्थात मात्रा काल के आधार पर स्वर के तीन भेद होते हैं –
- ह्स्व स्वर
- दीर्घ स्वर
- प्लुत स्वर
I. ह्स्व स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में एक मात्रा का समय लगता हो उन्हें ह्स्व स्वर कहते हैं। ह्स्व स्वरों के उच्चारण में एक मात्रा का समय लगने के कारण इन स्वरों को एक मात्रिक स्वर भी कहा जाता है। ह्स्व स्वरों की संख्या चार होती है। हिंदी वर्णमाला में अ, इ, उ, ऋ को ह्स्व स्वर कहते हैं।
ह्स्व स्वर को मूल स्वर और लघु स्वर के नाम से भी जाना जाता है।
II. दीर्घ स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में दो मात्राओं का समय लगता हो उन्हें दीर्घ स्वर कहते हैं। दीर्घ स्वरों के उच्चारण में ह्स्व स्वरों के उच्चारण से दोगुना समय लगता है।
दीर्घ स्वरों के उच्चारण में दो मात्राओं का समय लगने के कारण इन्हें द्विमात्रिक स्वर भी कहा जाता है। दीर्घ स्वरों की संख्या सात होती है। हिंदी वर्णमाला में आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ आदि स्वरों को दीर्घ स्वर कहते हैं।
समस्त दीर्घ स्वरों की रचना दो स्वरों के मिलने से होती है इसलिए इन्हें संयुक्त स्वरों के नाम से भी जाना जाता है।
दो स्वरों के योग के आधार पर दीर्घ स्वरों को दो भागों में बांटा जा सकता है।
समानाक्षर स्वर : दो समान स्वरों के योग से बनने वाले दीर्घ स्वरों को समानाक्षर स्वर कहते हैं। जैसे:-
- आ = अ + अ
- ई = इ + इ
- ऊ = उ + उ
सन्ध्यसर स्वर : दो असमान स्वरों के योग से बनने वाले दीर्घ स्वरों को सन्ध्यसर स्वर कहते हैं। जैसे:-
- ए = अ + इ
- ऐ = अ + ए
- ओ = अ + उ
- औ = अ + ओ
III. प्लुत स्वर
हिंदी के ग्यारह स्वरों को ह्रस्व स्वरों और दीर्घ स्वरों में गिन लेने के पश्चात प्लुत स्वर के लिए कोई भी स्वर शेष नहीं रह जाता है, अर्थात सामान्यतः कोई भी स्वर प्लुत स्वर नहीं होता है।
लेकिन, यदि किसी स्वर के उच्चारण में सामान्य से तीन गुना अधिक समय लगता हो तो वह स्वर प्लुत स्वर कहलाता है। अतः जिन स्वरों के उच्चारण में तीन मात्राओं का समय लगता है उन स्वरों को प्लुत स्वर कहते हैं।
प्लुत स्वरों की संख्या आठ होती है, अर्थात हिंदी के समस्त ग्यारह स्वरों में से सिर्फ़ आठ स्वरों का ही प्लुत रूप होता है। हिंदी वर्णमाला में अ, आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ इत्यादि स्वरों को प्लुत स्वर कहते हैं।
जिस स्वर का प्लुत रूप बनाना हो उसके आगे ३ का निशान लगा दिया जाता है। जैसे:- ओ३म
2. ओष्ठों की आकृति के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण
हिंदी के समस्त स्वरों का उच्चारण करते समय हमारे होंठों (ओष्ठों) की एक विशेष आकृति बनती है, जिसके आधार पर स्वरों का वर्गीकरण किया गया है। ओष्ठों की आकृति के आधार पर स्वर दो प्रकार के होते हैं –
- वृताकार स्वर
- अवृताकार स्वर
I. वृताकार स्वर
जिन स्वरों का उच्चारण करते समय होंठों (ओष्ठों) की आकृति वृत के समान बन जाती हो उन्हें वृताकार स्वर कहते हैं। वृताकार स्वरों की संख्या चार होती है तथा इन स्वरों को वृतमुखी स्वरों के नाम से भी जाना जाता है।
हिंदी वर्णमाला में उ, ऊ, ओ, औ को वृताकार स्वर कहते हैं। वृताकार शब्द वृत + आकार से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ वृत के आकार का होता है।
II. अवृताकार स्वर
जिन स्वरों का उच्चारण करते समय होंठों (ओष्ठों) की आकृति वृत के समान नहीं बनती हो उन्हें अवृताकार स्वर कहते हैं। अवृताकार स्वरों की संख्या सात होती है तथा इन स्वरों को अवृतमुखी स्वरों के नाम से भी जाना जाता है। हिंदी वर्णमाला में अ, आ, इ, ई, ऋ, ए, ऐ को अवृताकार स्वर कहते हैं।
3. जिह्वा की क्रियाशीलता के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण
किसी स्वर का उच्चारण करते समय मानव मुख का सबसे अधिक क्रियाशील अंग जिह्वा होता है। जीभ के अग्रभाग, मध्य भाग और पश्च भाग की क्रियाशीलता के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण किया गया है।
मानव जीभ की क्रियाशीलता के आधार पर स्वर तीन प्रकार के होते हैं –
- अग्र स्वर
- मध्य स्वर
- पश्च स्वर
I. अग्र स्वर
जिन स्वरों का उच्चारण करते समय मानव जिह्वा का अग्र भाग क्रियाशील हो उन्हें अग्र स्वर कहते हैं। अग्र स्वरों का उच्चारण करते समय जीभ के आगे वाले भाग में कम्पन होता है, जिसके कारण इन स्वरों को अग्र स्वर कहते हैं।
अग्र स्वरों की संख्या पाँच होती है। हिंदी वर्णमाला में इ, ई, ए, ऐ, ऋ को अग्र स्वर कहते हैं।
II. मध्य स्वर
जिन स्वरों का उच्चारण करते समय मानव जिह्वा का मध्य भाग क्रियाशील हो उन्हें मध्य स्वर कहते हैं। मध्य स्वरों का उच्चारण करते समय जीभ के मध्य भाग में कम्पन होता है, जिसके कारण इन स्वरों को मध्य स्वर कहते हैं।
मध्य स्वर की संख्या एक होती है। हिंदी वर्णमाला में अ को मध्य स्वर कहते हैं।
III. पश्च स्वर
जिन स्वरों का उच्चारण करते समय मानव जिह्वा का पश्च यानि पिछला भाग क्रियाशील हो उन्हें पश्च स्वर कहते हैं। पश्च स्वरों का उच्चारण करते समय जीभ के पिछले भाग में कम्पन होता है, जिसके कारण इन स्वरों को पश्च स्वर कहते हैं।
पश्च स्वरों की संख्या पाँच होती है। हिंदी वर्णमाला में आ, उ, ऊ, ओ, औ को पश्च स्वर कहते हैं।
4. तालु की स्थिति के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण
हिंदी के कुछ स्वरों का उच्चारण करते समय मानव जिह्वा तालु के बहुत नजदीक या दूर होती है, जिससे मानव मुख कम या ज़्यादा खुलता है। तालु की स्थिति के आधार पर स्वरों के वर्गीकरण को मुखाकृति के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण के नाम से भी जाना जाता है
तालु अथवा मुखाकृति के आधार पर स्वर चार प्रकार के होते हैं –
- संवृत स्वर
- विवृत स्वर
- अर्ध संवृत स्वर
- अर्ध विवृत स्वर
I. संवृत स्वर
जिन स्वरों का उच्चारण करते समय जीह्वा का अग्रभाग तालु के अग्र भाग को लगभग स्पर्श करता हुआ प्रतीत होता हो उन्हें संवृत स्वर कहते हैं। संवृत स्वरों का उच्चारण करते समय मानव जीह्वा का अग्रभाग तालु के अग्रभाग को लगभग छूता हुआ प्रतीत होता है, जिससे मुख लगभग बंद की स्थिति में होता है अर्थात संवृत स्वरों का उच्चारण करते समय अन्य स्वरों की तुलना में मुख कम खुलता है।
संवृत स्वरों की संख्या चार होती है। हिंदी वर्णमाला में इ, ई, उ, ऊ को संवृत स्वर कहते हैं।
II. विवृत स्वर
जिन स्वरों का उच्चारण करते समय जीह्वा का पश्च भाग तालु के पश्च भाग को लगभग स्पर्श करता हुआ प्रतीत होता हो उन्हें विवृत स्वर कहते हैं। विवृत स्वरों का उच्चारण करते समय मानव जीह्वा का पश्च भाग तालु के पश्च भाग को लगभग छूता हुआ प्रतीत होता है, जिससे मुख अधिक खुलता है, अर्थात विवृत स्वरों का उच्चारण करते समय अन्य स्वरों की तुलना में मुख अधिक खुलता है।
विवृत स्वरों की संख्या एक होती है। हिंदी वर्णमाला में आ को विवृत स्वर कहते हैं।
III. अर्द्ध विवृत स्वर
जिन स्वरों का उच्चारण करते समय मुख विवृत स्वरों से थोड़ा कम खुलता हो उन्हें अर्द्ध विवृत स्वर कहते हैं। अर्द्ध विवृत स्वरों की संख्या तीन होती है। हिंदी वर्णमाला में अ, ऐ, औ को अर्द्ध विवृत स्वर कहते हैं।
IV. अर्द्ध संवृत स्वर
जिन स्वरों का उच्चारण करते समय मुख संवृत स्वरों से थोड़ा ज़्यादा खुलता हो उन्हें अर्द्ध संवृत स्वर कहते हैं। अर्द्ध संवृत स्वरों की संख्या दो होती है। हिंदी वर्णमाला में ए और ओ को अर्द्ध संवृत स्वर कहते हैं।
5. जाति के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण
जाति के आधार पर स्वरों के दो भेद होते हैं –
- सजातीय स्वर
- विजातीय स्वर
I. सजातीय स्वर
एक समान उच्चारण स्थान और प्रयत्न से उत्पन्न होने वाले स्वरों को सजातीय स्वर कहते हैं। सजातीय स्वरों को सवर्ण स्वरों के नाम से भी जाना जाता है। हिंदी वर्णमाला में अ-आ, इ-ई और उ-ऊ परस्पर सजातीय स्वर कहलाते हैं।
II. विजातीय स्वर
असमान उच्चारण स्थान और प्रयत्न से उत्पन्न होने वाले स्वरों को विजातीय स्वर कहते हैं। विजातीय स्वरों को असवर्ण स्वरों के नाम से भी जाना जाता है। हिंदी वर्णमाला में अ, ई, ए, ऐ, उ, ओ, औ परस्पर विजातीय स्वर कहलाते हैं।
6. उच्चारण अथवा अनुनासिकता के आधार पर स्वरों का वर्गीकरण
उच्चारण अथवा अनुनासिकता के आधार पर स्वरों के दो भेद होते हैं –
- अनुनासिक स्वर
- निरनुनासिक स्वर
I. अनुनासिक स्वर
यदि किसी स्वर का उच्चारण करते समय वायु मुख के साथ-साथ नाक से भी बाहर निकले तो उसे अनुनासिक स्वर कहते हैं। किसी भी स्वर के ऊपर चंद्रबिंदु का प्रयोग कर देने पर वह स्वर अनुनासिक स्वर कहलाता है। अनुनासिक स्वर को सानुनासिक स्वर भी कहते हैं। जैसे:- अँ, आँ, इँ आदि।
II. निरनुनासिक स्वर
निरनुनासिक शब्द निर् + अनुनासिक से बना है, जिसका अर्थ अनुनासिक रहित होता है। जिन स्वरों का उच्चारण करते समय वायु सिर्फ़ मुख से बाहर निकलती हो उन्हें निरनुनासिक स्वर कहते हैं। जब किसी स्वर के ऊपर चंद्रबिंदु का प्रयोग नहीं किया गया हो तो वह निरनुनासिक स्वर कहलाता है। जैसे- अ, आ, इ आदि।
हिंदी वर्णमाला व्यंजन – परिभाषा, भेद और वर्गीकरण
जिन वर्णों का उच्चारण स्वतंत्र नहीं होता, अर्थात जिन वर्णों का उच्चारण स्वरों की सहायता से किया जाता हो उन वर्णों को व्यंजन कहते हैं। हिंदी वर्णमाला में व्यंजनों की संख्या 33 होती है।
व्यंजनों का उच्चारण करने पर प्राणवायु फेफड़ों से बाहर निकलते समय मुख में कहीं न कहीं रुक कर अवरोध के साथ बाहर निकलती है।
हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण
हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण अलग-अलग आधारों पर किया जाता है। हिंदी व्यंजनों के वर्गीकरण का मुख्य आधार मुख के विभिन्न अवयवों का एक दूसरे के समीप आना होता है। जिसे हिंदी व्याकरण में उच्चारण स्थान अथवा प्रयत्न स्थान के आधार पर हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण के नाम से जाना जाता है।
इसी प्रकार उच्चारण अथवा प्रयत्न विधि के आधार पर, स्वर तन्त्रियों की स्थिति या कम्पन के आधार पर तथा प्राणवायु के आधार पर भी हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण किया जाता है।
इस प्रकार हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण पाँच प्रमुख आधारों पर किया जाता है –
- अध्ययन की सरलता हेतु हिंदी व्यंजनों का सामान्य वर्गीकरण
- उच्चारण के आधार पर हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण
- उच्चारण स्थान के आधार पर हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण
- स्वर तन्त्रियों की स्थिति अथवा घोष के आधार पर हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण
- प्राणवायु के आधार पर हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण
1. अध्ययन की सरलता हेतु हिंदी व्यंजनों का सामान्य वर्गीकरण
अध्ययन के आधार पर हिंदी व्यंजनों के तीन भेद होते हैं-
- स्पर्शी व्यंजन – क-वर्ग, च-वर्ग, ट-वर्ग, त-वर्ग, प-वर्ग के वर्ण
- अन्तःस्थ व्यंजन – य, र, ल, व
- उष्म व्यंजन – श, ष, स, ह
2. उच्चारण के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण
उच्चारण के आधार पर व्यंजन के आठ भेद होते हैं। उच्चारण के आधार पर हिंदी व्यंजनों के वर्गीकरण को प्रयत्न विधि के आधार पर हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण के नाम से भी जाना जाता है।
किसी भी व्यंजन वर्ण का उच्चारण करते समय प्राणवायु मुख में कहीं पर रूकती है, कहीं पर संघर्ष करती है तो कहीं नाक से बाहर निकलती है।
इसके अतिरिक्त किसी व्यंजन का उच्चारण करते समय हमारी जीह्वा, ओष्ठ और तालू द्वारा किए जाने वाले प्रयत्न को भी इसी आधार में शामिल किया जाता है।
उच्चारण के आधार पर व्यंजन के आठ भेद होते हैं, जो निम्नलिखित हैं –
- स्पर्श व्यंजन
- संघर्षी व्यंजन अथवा उष्म व्यंजन
- स्पर्श संघर्षी व्यंजन
- नासिक्य व्यंजन
- पार्श्विक व्यंजन
- प्रकम्पित व्यंजन
- उत्क्षिप्त व्यंजन
- संघर्षहीन व्यंजन
I. स्पर्श व्यंजन किसे कहते है?
“जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय जिह्वा मुख के किसी ने किसी अवयव को अवश्य स्पर्श करती हो उन्हें स्पर्श व्यंजन कहते हैं। स्पर्श व्यंजनों की संख्या पच्चीस होती है। स्पर्श व्यंजनों का उच्चारण करते समय मानव जिह्वा का द्वार बंद रहता है।”
स्पर्श व्यंजनों की संख्या 16 होती है। हिंदी वर्णमाला में क-वर्ग, ट-वर्ग, च वर्ग, त-वर्ग या प-वर्ग के प्रथम चार-चार वर्णों को स्पर्श व्यंजन कहते हैं। स्पर्श व्यंजनों के प्रत्येक वर्ग का नाम पहले वर्ण के आधार पर होता है।
- क-वर्ग —> क , ख , ग , घ , ङ
- च वर्ग —> च , छ , ज , झ , ञ
- ट-वर्ग —> ट , ठ , ड , ढ , ण
- त-वर्ग —> त , थ , द , ध , न
- प-वर्ग —> प , फ , ब , भ , म
- अन्तस्थ —> य , र , ल , व
- उष्म —> श , ष , स , ह
- संयुक्त व्यञ्जन —> क्ष , त्र , ज्ञ , श्र
- देवनागरी लिपि के वह व्यञ्जन जिसके नीचे नुक़्ता लगाया जाता है —> क़, ख़, ग़, ज़, झ़, ड़, ढ़, थ़, द़, फ़, ब़
II. संघर्षी व्यंजन अथवा उष्म व्यंजन किसे कहते है?
“जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय प्राणवायु संघर्ष के साथ मुख से बाहर निकलती हो उन्हें संघर्षी व्यंजन कहते हैं। संघर्षी व्यंजनों की संख्या चार होती हैं। हिंदी वर्णमाला में श, ष, स, ह को संघर्षी व्यंजन कहते हैं।”
संघर्षी व्यंजनों का उच्चारण करते समय मुख के अवयव एक दूसरे के बहुत निकट आ जाते हैं, जिससे प्राणवायु के निकलने का मार्ग बहुत संकीर्ण हो जाता है। प्राण वायु के निकलने का मार्ग संकीर्ण हो जाने की वजह से वायु एक संघर्ष के साथ बाहर निकलती है, इसलिए इन व्यंजनों को संघर्षी व्यंजन कहते हैं।
संघर्षी व्यंजनों का उच्चारण करते समय प्राणवायु मुख अवयवों के साथ रगड़ती हुई बाहर निकलती है, जिससे उष्मा पैदा होती है। उष्मा पैदा होने की वजह से ही संघर्ष व्यंजनों को उष्म व्यंजन भी कहते हैं।
अरबी / फ़ारसी भाषा से आई हुई ध्वनियाँ क़, ख़, ग़, ज़, फ़ को भी संघर्षी व्यंजन माना जाता है, क्योंकि इन आगत ध्वनि का उच्चारण करते समय भी मुख के अवयवों का परस्पर संघर्ष होता है।
संघर्षी व्यंजनों का उच्चारण स्थान
- श वर्ण का उच्चारण स्थान तालु होता है। अतः श वर्ण को तालव्य वर्ण या तालव्य श कहते हैं।
- ष वर्ण का उच्चारण स्थान मूर्द्दा (मसूड़ा) होता है। अतः ष वर्ण को मूर्धन्य वर्ण या मूर्धन्य ष कहते हैं।
- स वर्ण का उच्चारण स्थान दन्त होता है। अतः स वर्ण को दन्त्य वर्ण या दन्त्य स कहते हैं।
- ह वर्ण का उच्चारण स्थान स्वर यन्त्र (काकल और कंठ के मध्य से) होता है, इसलिए ह वर्ण को अलिजिह्वा वर्ण कहते हैं।
III. स्पर्श संघर्षी व्यंजन किसे कहते हैं?
जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय प्राणवायु मुख्य अवयवों को स्पर्श करती हुई संघर्ष के साथ बाहर निकलती हो उन्हें स्पर्श संघर्षी व्यंजन कहते हैं। स्पर्श संघर्षी व्यंजनों की संख्या चार होती है। हिंदी वर्णमाला में च-वर्ग के प्रथम चार व्यंजनों, अर्थात च, छ, ज, झ को स्पर्श संघर्षी व्यंजन कहते हैं।
स्पर्श संघर्षी व्यंजनों में स्पर्श व्यंजन एवं संघर्षी व्यंजन, दोनों के गुण पाए जाते हैं, अर्थात स्पर्श संघर्षी व्यंजनों का उच्चारण करते समय पहले मुख के विभिन्न अवयवों का परस्पर स्पर्श होता है और अंत में प्राणवायु संघर्ष के साथ मुख से बाहर निकलती है।
स्पर्श संघर्षी व्यंजनों का उच्चारण स्थान
स्पर्श संघर्षी व्यंजनों का उच्चारण स्थान तालु होता है, अर्थात च, छ, ज, झ व्यंजनों का उच्चारण स्थान तालु होता है। इन वर्णों का उच्चारण स्थान तालु होने की वजह से इनको तालव्य व्यंजन भी कहते हैं।
IV. नासिक्य व्यंजन किसे कहते हैं?
जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय प्राणवायु का अधिकतर भाग नाक द्वारा बाहर निकलता हो उन्हें नासिक्य व्यंजन कहते हैं। नासिक्य व्यंजनों की संख्या पाँच होती है। प्रत्येक वर्ग का पाँचवा वर्ण नासिक्य व्यंजन कहलाता है। हिंदी वर्णमाला में ङ, ञ, ण, न, म को नासिक्य व्यंजन कहते हैं।
नासिक्य का अर्थ नासिका द्वारा उच्चारित होने वाले वर्ण होता है। नासिक्य व्यंजनों को अनुनासिक व्यंजन भी कहते हैं।
नासिक्य व्यंजनों का उच्चारण स्थान
हिंदी वर्णमाला के समस्त व्यंजनों का उच्चारण करते समय प्राणवायु मुख से बाहर निकलती है, लेकिन कुछ व्यंजन ऐसे भी होते हैं, जिनका उच्चारण करते समय प्राणवायु का अधिकतर भाग नाक या नासिका द्वारा बाहर निकलता है। नासिक्य वर्णों का उच्चारण स्थान नासिका होने की वजह से ही इन वर्णों को नासिक्य वर्ण कहते हैं। व्यंजन वर्गों के पंचमाक्षरों के अतिरिक्त एक अयोगवाह ध्वनि (अ) भी नासिक्य वर्ण होती है। हिंदी में जिसे हम अनुस्वार के नाम से जानते हैं।
V. पार्श्विक व्यंजन किसे कहते हैं ?
जिन व्यंजन वर्णों का उच्चारण करते समय प्राणवायु जिह्वा के दोनों पार्श्व से निकल जाती हो उन्हें पार्श्विक व्यंजन कहते हैं। पार्श्विक व्यंजनों की संख्या एक होती है। हिंदी वर्णमाला में ल व्यंजन को पार्श्विक व्यंजन कहते हैं।
दरअसल, ल वर्ण का उच्चारण करते समय हमारी जीभ का अग्रभाग मसूड़े को स्पर्श करता है, जिससे प्राणवायु का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। प्राण वायु का मार्ग रुक जाने से वायु हमारी जीह्वा के आस-पास (बग़ल) से निकलती है और ‘ल’ का उच्चारण पूरा होता है।
प्राण वायु के हमारी जिह्वा के बग़ल से निकलने की वजह से ही ल वर्ण को पार्श्विक व्यंजन कहते हैं।
पार्श्विक व्यंजन का उच्चारण स्थान
पार्श्विक व्यंजन का उच्चारण स्थान दन्त होता है, इसलिए पार्श्विक व्यंजन को दन्त्य वर्ण भी कहते हैं।
VI. प्रकम्पित व्यंजन किसे कहते हैं?
जिन व्यंजन वर्णों का उच्चारण करते समय जिह्वा में दो-तीन बार कम्पन होता हो उन्हें प्रकम्पित व्यंजन कहते हैं। प्रकम्पित व्यंजनों की संख्या एक होती है। र को प्रकम्पित व्यंजन कहते हैं। प्रकम्पित व्यंजन वर्णों को लुंठित व्यंजन भी कहते हैं। प्रकम्पित का अर्थ काँपता हुआ होता है।
जब हम ‘र’ वर्ण का उच्चारण करते हैं तो हमारी जीभ में कम्पन होने के साथ-साथ प्राणवायु जिह्वा से टकराकर लुढ़कती हुई मुख से बाहर निकलती है। प्राण वायु के इस तरह लुढ़क कर मुख से बाहर निकलने की वजह से ही प्रकम्पित व्यंजन वर्णों को लुंठित व्यंजन भी कहते हैं।
प्रकम्पित व्यंजनों का उच्चारण स्थान
प्रकम्पित व्यंजन वर्णों का उच्चारण स्थान मूर्द्दा (मसूड़ा) होता है, इसलिए र वर्ण को मुर्धन्य वर्ण भी कहते हैं।
VII. उत्क्षिप्त व्यंजन किसे कहते हैं ?
जिन व्यंजन वर्णों का उच्चारण करते समय जीह्वा का अग्रभाग (नोक) एक झटके के साथ नीचे गिरता हो उन्हें उत्क्षिप्त व्यंजन कहते हैं। उत्क्षिप्त व्यंजन की संख्या दो होती है। ड़ और ढ़ को उत्क्षिप्त व्यंजन कहते हैं। उत्क्षिप्त का अर्थ फेंका हुआ होता है.
हिंदी व्यंजनों के ट-वर्ग में ‘ड’ और ‘ढ’ व्यंजन स्पर्श व्यंजन होते हैं। जब इन दोनों व्यंजनों पर ताड़नजात चिह्न का प्रयोग किया जाता है तो ये स्पर्श व्यंजन उत्क्षिप्त व्यंजन बन जाते हैं।
ताड़नजात चिह्न का प्रयोग करने से उत्क्षिप्त व्यंजनों को ताड़नजात व्यंजन भी कहते हैं। ड और ढ पर ताड़नजात चिह्न का प्रयोग करने से इनके गुण में परिवर्तन हो जाता है और उत्क्षिप्त व्यंजन बनते हैं, इसलिए उत्क्षिप्त व्यंजनों को द्विगुण व्यंजन भी कहते हैं।
उत्क्षिप्त व्यंजनों का उच्चारण एवं प्रयोग स्पर्श व्यंजनों से भिन्न होता है। ड और ढ वर्ण के साथ ताड़नजात चिह्न का प्रयोग करने से बने उत्क्षिप्त व्यंजनों का उच्चारण करते समय ड और ढ से पहले ‘अ’ वर्ण का प्रयोग किया जाता है।
उत्क्षिप्त व्यंजनों का प्रयोग हिंदी के शब्दों में किया जाता है। अंग्रेज़ी भाषा के हिंदी में प्रयुक्त होने वाले शब्दों में उत्क्षिप्त व्यंजनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
VIII. संघर्षहीन व्यंजन किसे कहते हैं?
जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय प्राणवायु बिना किसी संघर्ष के मुख से बाहर निकल जाती हो उन्हें संघर्ष हीन व्यंजन कहते हैं। संघर्षहीन व्यंजनों की संख्या दो होती है। हिंदी वर्णमाला में य और व को संघर्ष हीन व्यंजन कहते हैं। संघर्ष हीन व्यंजनों का उच्चारण करते समय हमें स्वरों जितना ही प्रयत्न करना पड़ता है, इसलिए इन व्यंजनों को अर्द्धस्वर भी कहते हैं।
दरअसल, हम जानते हैं कि जब किसी वर्ण का उच्चारण करते हैं तो वायु हमारे फेफड़ों से उठकर मुख से बाहर निकलती है, जहाँ उसे मुख के विभिन्न अवयवों के साथ संघर्ष करना पड़ता है, लेकिन कुछ वर्ण ऐसे भी होते हैं जिनका उच्चारण करते समय वायु को किसी भी तरह के संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ता।
इन वर्णों को ही संघर्षहीन व्यंजन कहते हैं।
संघर्षहीन व्यंजनों का उच्चारण स्थान
- य वर्ण का उच्चारण स्थान तालु होता है, इसलिए य वर्ण को तालव्य व्यंजन भी कहते हैं।
- व वर्ण का उच्चारण स्थान दन्त ओष्ठ होता है, इसलिए व वर्ण को दन्तोष्ठ्य व्यंजन भी कहते हैं।
3. उच्चारण स्थान के आधार पर हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण
उच्चारण स्थान के आधार पर व्यंजन के सात भेद होते हैं। उच्चारण स्थान के आधार पर हिंदी व्यंजनों (Hindi Vyanjan) के वर्गीकरण को प्रयत्न स्थान के आधार पर हिंदी व्यंजनों (Hindi Vyanjan) का वर्गीकरण के नाम से भी जाना जाता है।
इस वर्गीकरण का मुख्य आधार किसी भी व्यंजन का उच्चारण स्थान होता है। इस वर्गीकरण में मुख के अवयवों का परस्पर मिलने या समीप आने पर विचार किया जाता है।
उच्चारण स्थान के आधार पर हिंदी व्यंजनों के सात भेद होते हैं, जो निम्नलिखित हैं –
क्र. | भेद का नाम | व्यंजन का उच्चारण स्थान | व्यंजन |
1 | कण्ठ्य व्यंजन | कंठ | क, ख, ग, घ, ङ |
2 | तालव्य व्यंजन | तालु | च, छ, ज, झ, ञ, श, य |
3 | मूर्धन्य व्यंजन | मूर्धा | ट, ठ, ड, ढ, ण, ड़, ढ़, र, ष |
4 | दन्त्य व्यंजन | दन्त | त, थ, द, ध, न, ल, स |
5 | ओष्ठ्य व्यंजन | ओष्ठ | प, फ, ब, भ, म |
6 | दंतोष्ठ्य व्यंजन | दन्त + ओष्ठ | व |
7 | अलिजिह्वा व्यंजन | स्वर यंत्र | ह |
4. स्वर तन्त्रियों की स्थिति अथवा घोष के आधार पर व्यंजनों का वर्गीकरण
स्वर तन्त्रियों की स्थिति अथवा घोष के आधार पर व्यंजन के दो भेद होते हैं –
- सघोष व्यंजन
- अघोष व्यंजन
I. सघोष व्यंजन
जिन व्यंजन वर्णों का उच्चारण करते समय स्वर तन्त्रियों में कम्पन होता है उन्हें सघोष व्यंजन कहते हैं। हिंदी वर्णमाला में प्रत्येक वर्ग के अंतिम तीन व्यंजन तथा य्, र्, ल्, व्, ह् सघोष व्यंजन कहलाते हैं। सघोष व्यंजनों की संख्या 31 होती है।
सघोष शब्द ‘स’ और ‘घोष’ से मिलकर बना है, जहाँ स का अर्थ ‘साथ में’ या ‘सहित’ से लिया जाता है तथा घोष शब्द का अर्थ कम्पन, गूँज या नाद होता है। अतः सघोष का शाब्दिक अर्थ ‘घोष के साथ’ होता है।
सघोष व्यंजनों को घोष व्यंजनों के नाम से भी जाना जाता है। हिंदी वर्णमाला के सभी स्वर सघोष वर्ण होते हैं।
II. अघोष व्यंजन
जिन व्यंजन वर्णों का उच्चारण करते समय स्वर तन्त्रियों में कम्पन नहीं होता है उन्हें अघोष व्यंजन कहते हैं। हिंदी वर्णमाला में प्रत्येक वर्ग का पहला और दूसरा व्यंजन और श्, ष्, स् अघोष व्यंजन होते हैं। अघोष व्यंजनों की संख्या 13 होती है।
अघोष शब्द ‘अ’ और ‘घोष’ से मिलकर बना है, जहाँ अ का अर्थ ‘नहीं’ से लिया जाता है तथा घोष शब्द का अर्थ कम्पन, गूँज या नाद होता है। अतः अघोष का शाब्दिक अर्थ ‘घोष के बिना’ होता है।
5. प्राणवायु की मात्रा के आधार पर हिंदी व्यंजनों का वर्गीकरण
किसी भी वर्ण का उच्चारण करते समय प्राणवायु हमारे फेफड़ों से उठकर मुंह से बाहर निकलती है। हिंदी व्याकरण में मुँह से बाहर निकलने वाली इस प्राणवायु की मात्रा के आधार पर भी हिंदी व्यंजनों (Hindi Vyanjan) का वर्गीकरण किया गया है। प्राणवायु के आधार पर व्यंजन के दो भेद होते हैं।
- अल्पप्राण व्यंजन
- महाप्राण व्यंजन
I. अल्पप्राण व्यंजन
जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय प्राणवायु की मात्रा कम लगानी पड़ती हो उन्हें अल्पप्राण व्यंजन कहते हैं। प्रत्येक वर्ग का पहला, तीसरा और पाँचवा व्यंजन वर्ण और य्, र्, ल्, व् व्यंजन अल्पप्राण व्यंजन कहलाते हैं। अल्पप्राण व्यंजनों की संख्या 30 होती है।
अल्पप्राण शब्द अल्प और प्राण शब्दों से मिलकर बना है, जहाँ अल्प का अर्थ कम व प्राण का अर्थ प्राणवायु से लिया जाता है। अल्पप्राण का अर्थ कम प्राणवायु होता है।
हिंदी वर्णमाला के समस्त स्वर अल्पप्राण होते हैं।
II. महाप्राण व्यंजन
जिन व्यंजनों का उच्चारण करते समय प्राणवायु की मात्रा अधिक लगानी पड़ती हो उन्हें महाप्राण व्यंजन कहते हैं। प्रत्येक वर्ग के दूसरे और चौथे व्यंजन को महाप्राण व्यंजन कहते हैं। महाप्राण व्यंजनों की संख्या 14 होती है।
महाप्राण शब्द महा और प्राण शब्दों से मिलकर बना है, जहाँ महा का अर्थ अधिक व प्राण का अर्थ प्राणवायु से लिया जाता है। महाप्राण का अर्थ अधिक प्राणवायु होता है।
वर्ग | उच्चारण स्थान | अघोष अल्पप्राण | अघोष महाप्राण | सघोष अल्पप्राण | सघोष महाप्राण | सघोस अल्पप्राण नासिक्य |
कंठ्य | कंठ | क | ख | ग | घ | ङ |
तालव्य | तालु ( मुह के भीतर की उपरी छत का पिछला भाग ) | च | छ | ज | झ | ञ |
मूर्धन्य | मूर्धा ( मुह के भीतर की उपरी छत का अगला भाग ) | ट | ठ | ड | ढ | ण |
दन्त्य | दांत | त | थ | द | ध | न |
ओष्ठ्य | ओष्ठ/ ओठ | प | फ | ब | भ | म |
हिंदी भारत की राजभाषा है न कि राष्ट्रभाषा, क्योंकि भारत के संविधान में किसी भी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दिया गया है।