उत्तर वैदिक काल का समय 1000 ई.पू.से 600 ई. पू. तक माना जाता हैं। कही-कही उत्तर वैदिक काल का समय 1000 ई.पू.से 500 ई. पू. तक माना गया हैं। उत्तर वैदिक-काल में आर्य सभ्यता, पंजाब से निकलकर कुरुक्षेत्र अर्थात् गंगा यमुना के दोआब क्षेत्र में फैल गयी। इसी काल के अंतिम दौर में लगभग 500 ई. पू. में आर्य लोग कोसल, विदेह और अंग क्षेत्र से परिचित हो गये थे।
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था इस काल की विशेषता थी, इस काल में कबायली संरचना में दरार पड़ना और वर्ण व्यवस्था का जन्म तथा बडे, साम्राज्यों का उदय हुआ । इसी काल में उत्तरी भारत में लौह युग का आरम्भ हुआ। लौह तकनीकों का प्रयोग सर्वप्रथम युद्धास्त्रों के लिए होता था। लेकिन बाद में धीरे-धीरे कृषि एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों में होने लगा।
हस्तिनापुर, आलमगीरपुर, नोह, अतरंजीखेड़ा, वाटेसर आदि सभी कुरु पांचाल प्रदेश में ही पड़ते थे। वरछी, शीर्ष, बाणाग्र, कुल्हाड़ी तथा दराती प्राप्त हुई है। अभी तक के खुदाई से सबसे अधिक लौह अस्त्र अतरंजी खेड़ा से प्राप्त हुए हैं। राजत्व के दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त का प्रारम्भ इसी काल से शुरू हुआ माना जाता है। अतरंजी खेड़ा से जौ ,चावल तथा गेहूँ के अवशेष मिले हैं। हस्तिनापुर से चावल तथा जंगली किस्म के गन्ने मिले हैं।
इस काल में ब्राह्मण और क्षत्रिय जैसे अनुत्पादी वर्गों का उदय हो चुका था। कृषि के अतिरिक्त अन्य शिल्पों का उदय भी उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था की विशेषता थी।इस काल में अभी तक मुद्रा का आविर्भाव नहीं हुआ था। अत: बलि, भाग, शुल्क जो राजा को दिये जाते थे, वस्तु के रूप में ही होते थे।
वैदिक साहित्य में वर्णित निष्क कोई नियमित स्वर्ण मुद्रा न होकर, उस धातु का एक ढेर मात्र था। कौशांबी के उत्खनन कर्ता जी.आर.शर्मा का यह दावा है कि उन्हें वहाँ पर एक 900 ई.पू. का ताँबे का सिक्का मिला है जो मान्य नहीं हैं। ये लोग समुद्र से परिचित थे। उत्पादन के अपने कर्तव्य के अतिरिक्त वैश्यों को सेवाऐं भी देनी पड़ती थी।
इस काल में राजा स्वतंत्र होता था। वह अपनी इच्छानुसार शूद्रों को पीट भी सकता था। यद्यपि एक पत्नी विवाह आदर्श माना जाता था लेकिन बहुपत्नी विवाह काफी प्रचलित था। याज्ञवल्क्य-गार्गी विवाद का उल्लेख मुंडकोपनिषद् में किया गया है। कुरु की राजधानी आसन्दीवत् (हस्तिनापुर) तथा पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी। उत्तर वैदिक काल में कुरु, पांचाल, कोशल, काशी तथा विदेह प्रमुख राज्य थे। जैमिनीय उपनिषेद ब्राह्मण महाग्रामों का उल्लेख करता है।
ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित शासन प्रणाली
क्षेत्र | शासन | उपाधि |
---|---|---|
पूर्व | साम्राज्य | सम्राट |
पश्चिम | स्वराज्य | स्वराट |
उत्तर | वैराज्य | विराट |
दक्षिण | भोज्य | भोज |
मध्य प्रदेश | राज्य | राजा |
उत्तर वैदिक काल भौगोलिक विस्तार
शतपथ ब्राह्मण में वर्णित विदेह माधव की घटना के अंतर्गत आर्य ने उत्तरी भारत में सदानीरा नदी के विस्तार तक अपना अधिकार जमा लिया था। आर्यन सदानीरा नदी के पूर्व में स्थित मगध और अंग जैसे राज्य क्षेत्र पर अपना अधिकार नहीं जमा पाए थे। उत्तर वैदिक काल में भरत तथा पुरु राजवंश मिलकर कुरु कहलाते थे। जिसकी राजधानी आसंदीवत थी। साथ ही तुर्वस और क्रिवी साथ मिलकर पांचाल कहलाते थे।
कौरव तथा पांडव कुरुवंश से संबंध रखते थे। तथा पांचाल वंश से प्रावाहरण जैबली और आरुणि श्वेतकेतु संबंध रखते थे। समय के साथ कुरु तथा पांचाल के विस्तार मिल गए और हस्तिनापुर को इसकी राजधानी बनाई गई। हस्तिनापुर का आखिरी राजा अंध था। जब यमुना नदी के बाढ़ के कारण हस्तिनापुर समाप्त हो गया था तो कौशांबी को राजधानी बनाई गई। वर्तमान समय के उत्तरी बिहार के विस्तार को विदेह कहा जाता था। माधव और जनक इस विस्तार के सुप्रसिद्ध राजा थे। सीता जनक की सुपुत्री थी। सरयू नदी के तट पर कौशल का विस्तार था। इस विस्तार के प्रसिद्ध राजा में दशरथ और राम का समावेश होता है।
उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक काल में भी राजतंत्र ही लोकप्रिय शासन तंत्र था। कहीं-कहीं गणराज्यों के संकेत भी मिलते हैं।साम्राज्य का संस्थापक सम्राट कहलाता था। अब राजा सामान्य उपाधियों के स्थान पर राजाधिराज, सम्राट, एकराट जैसी विशाल उपाधियाँ धारण करता था। अथर्ववेद में एकराट सर्वोच्च शासक को कहा गया है।
राजसूय तथा अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान कर सम्राट अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते थे।राजा देवता का प्रतीक समझा जाने लगा। जनता ने आपस में समझौता करके राजा को प्रतिष्ठित किया था।वैराज्य का तात्पर्य उस राज्य से है जहाँ राजा नहीं होता था।राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है।
अथर्ववेद में एक स्थान पर विश् के द्वारा राजा के निर्वाचन का उल्लेख है। अभिषेक, अनुष्ठान, राजसूय के नाम से विख्यात थे। राज्याभिषेक का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण से मिलता है। अभिषेक 17 प्रकार के जलों से होता था।अथर्ववेद में सभा और समिति दोनों को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है।सभा में संभवत: राज्य के वयोवृद्ध और सम्मानित व्यक्ति सम्मिलित होते थे। जबकि समिति में गाँव के सभी वयस्क सदस्य शामिल थे। सभा और समिति के साथ-साथ हमें विदथ नामक एक अन्य संस्था का उल्लेख मिलता है लेकिन प्रशासन में यह भाग नहीं लेती थी।
पंचविंश ब्राह्मण में रत्नियों को वीर कहा गया हैं, ये राज्य के पदाधिकारी थे। राजा एक मात्र राजकर का अधिकारी था वह ग्राम की भूमि का मौलिक स्वामी न था। इस काल में परिवार पितृ सत्तात्मक होता था। वाजसनेयी संहिता में ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और आर्य का उल्लेख मिलता है। यहाँ आर्य शब्द समस्त आर्य समुदाय के लिए प्रयुक्त है।
ऋग्वेद में वैश्य शब्द नहीं मिलता है। सर्वप्रथम इसका उल्लेख उत्तर वैदिक साहित्य में हुआ है। उत्तर वैदिक साहित्य में इस वर्ण को ‘अन्यस्य बलिकृत’ कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् चाण्डाल को श्वान और शूकर की कोटि में रखता है।
उत्तर वैदिक काल की आर्थिक व्यवस्था
ब्राह्मण तथा क्षत्रिय अधिकांशत: राजकीय करों से मुक्त थे। राज्य को कर का अधिकांश भाग वैश्यों से ही प्राप्त होता था। वैश्य को ब्राह्मण साहित्य में बलिकृत कहा गया है। आय का 16 वाँ भाग राजा को प्राप्त होता था। कालान्तर में नियमित करों की प्रतिष्ठा हुई और संग्रह करने के लिए भागदुध की नियुक्ति होने लगी। कभी-कभी राजा के लिए विशमत्ता का प्रयोग मिलता है। हाकिन्स ने इसका अर्थ जनता का भक्षक लगाया है।
शतपथ ब्राह्मण साहित्य में कृषि की चारों क्रियाओं-जोताई, बोआई, कटाई, मड़ाई का उल्लेख मिलता है।काष्क संहिता में 24 बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हल का उल्लेख है। अथर्ववेद में दो प्रकार के धान का उल्लेख है- एक ब्रीहि तथा दूसरा तन्दुल । इसके अतिरिक्त इस वेद में यव (जौ), उड़द, गन्ना, तिल आदि का उल्लेख भी मिलता है। वर्ष में दो फसलें होती थी।वाजसनेयी संहिता में गोधूम (गेहूँ), यव, ब्रीहि (धान), उड़द, मूँग, मसूर, तिल, प्रियंग, निवार आदि की उपज का वर्णन है।
शतपथ ब्राह्मण में सूकर का वर्णन है। पशुओं में गाय, बैल, भेड़, बकरी, गधे आदि पशु प्रमुख रूप से पाले जाते थे। इस समय लोगों ने हाथी को पालना प्रारम्भ कर दिया था। अथर्ववेद में ऊँट गाड़ी का उल्लेख मिलता है।सोने और चाँदी के पश्चात् महत्त्वपूर्ण धातु अयस थी। मैक्समूलर का मत है कि लोह शब्द का अर्थ तांबे में प्रयुक्त होता था। तैत्तरीय संहिता में एक स्थान पर रजत के लिए रजतहिरण्य का प्रयोग मिलता है।
शपतथ ब्राह्मण में कुलाल चक्र का उल्लेख मिलता है। इससे प्रकट होता है कि मिट्टी के घड़े, प्याले, तश्तरियाँ आदि चक्र के ऊपर बनते थे। भिषक उत्तर वैदिक काल के चिकित्साशास्त्र में तंत्र-मंत्र का भी विशेष स्थान था। राजकर अन्न और पशुओं के रूप में दिया जाता था। शपतथ ब्राह्मण में पहली बार सहाजनी प्रथा का उल्लेख किया गया है। इस काल में चिकित्साशास्त्र में तंत्र-मंत्र का भी विशेष स्थान था। इस काल में अन्न और पशुओं के रूप में राज कर दिया जाता था ।
उत्तर वैदिक काल की सामाजिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक काल में ही रामायण और महाभारत का भी रचना काल माना जाता है। रामायण का रचना काल 600 ई. पू और महाभारत का रचना काल 500 ई. पू. के लगभग माना जाता है। क्योकि दक्षिण की ओर आर्यों का बढ़ना भी 800 ई. पू. माना जाता है। राम का दक्षिण को पारकर लंका पर विजय प्राप्त करने का वर्णन स्पष्ट रूप से दक्षिण में आर्यों के प्रवेश का संकेत है।
इस समय जो लोग आर्य जाती के नहीं थे उन जातियों को पणि या दास कहते थे। सामान्य रूप से गोमास खाना वर्जित था परन्तु कुछ अवसरों पर गोमांस खाना शुभ माना जाता था। उत्तर वैदिक काल में सेनापति और पुरोहित जो ब्राह्मण अक्सर ब्राह्मण हुआ करते थे, और राजा को शासन चलाने में मदद करते थे। आर्यों को द्विज अर्थात् दो बार जन्म लेने वाली जाति का कहा जाता था।
इस काल में बाल विवाह प्रथा नहीं थी परन्तु जीवन -साथी चुनने का पर्याप्त अवसर मिलता था। साथ ही साथ दहेज प्रथा प्रचलित थीं।इसके साथ ही अथर्ववेद में ऐसी कन्याओं का उल्लेख भी मिलता है जो अविवाहित रूप में रहकर आजीवन अपने माता-पिता के साथ रहती थी।
उत्तर वैदिक काल में विवाहित पुरुष को यज्ञ का अधिकार न था। यज्ञादि के लिए पुत्र आवश्यक था, उसकी प्राप्ति के लिए विवाह आवश्यक था ।तैत्तरीय संहिता से पता चलता है कि उत्तर वैदिक काल में विधवा विवाह की प्रथा भी प्रचलित थी । अथर्ववेद में एक स्थान पर पंचौदन क्रिया के द्वारा पत्नी और उसके द्वितीय पति के बीच अपार्थक्य और अभिन्नता उत्पन्न करने की योजना का जिक्र भी मिलता है। इस काल में अधिकांशत: सजातीय विवाह होते थे लकिन तैत्तरीय संहिता में आर्य पुरुष और शूद्र नारी के सम्बन्ध का उल्लेख है।
सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में कहीं पर भी ‘सपिण्ड शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। गोत्रों का उदय हो गया था। उपनिषदों में गौतम, भारद्वाज, कश्यप, भार्गव, कात्यायन आदि नाम मिलते हैं। ये सब गोत्रों के नाम थे।
सपिण्ड सगोत्र और सप्रवर विवाहों का उल्लेख सूत्रकाल में मिलता है। गौत्रीय वर्हिविवाह की प्रथा का आरम्भ हो गया था। उत्तर वैदिक काल में नारी की चतुर्मुखी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। अथर्ववेद का कथन है कि स्त्री के चार पति होते हैं –
(i) सोम
(ii) अग्नि
(iii) गन्धर्व
(iv) वास्तविक पति।
प्रथम अवस्था (जिसमें उसका पति सोम कहा गया है) उसके सौन्दर्य, शील और संस्कृति के विकास की अवस्था है। द्वितीय अवस्था में (जिसमें उसका पति अग्नि कहा गया है) कन्या में चारित्रिक भावना का विकास होता है। तृतीय अवस्था में (जब उसका पति गन्धर्व बताया गया है) उसे नृत्य संगीत तथा अन्य ललित कलाओं की शिक्षा दी जाती है। और चतुर्थ अवस्था में (जब उसका पति वास्तविक पति बताया गया है) उसका पति उसका जीवन साथी होता है, जिसके साथ उसका विवाह किया जाता है।
अथर्ववेद के अनुसार स्त्रियाँ पति के साथ यज्ञ में सम्मिलित होती थी। उत्तर वैदिक कालीन आर्य समाज स्त्री की घरेलू शिक्षा के प्रति भी उदासीन न था। पितृकाल में कन्याओं को पाक शास्त्र की शिक्षा दी जाती थी।
समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। अथर्ववेद में पुत्री के जन्म पर खिन्नता उल्लेखनीय है। एतरेय ब्राह्मण पुत्री को कृपण कहता था। मैत्रायणी संहिता में मनु की दस पत्नियों का उल्लेख मिलता है। स्त्रियों को पर्याप्त शिक्षा दी जाती थी वे उत्सवों तथा धार्मिक समारोहों में भाग ले सकती थी। परन्तु स्त्रियों को राजनीतिक तथा धन सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे। उनकी सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिष्ठा ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा कम हो गयी थी ।
इस काल में मैत्रीयणी संहिता प्रचलित थी जो स्त्री को द्यूत और मदिरा की श्रेणी में रखती है। इस काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। वस्त्रों के ऊपर कढाई का काम भी स्त्रियाँ करती थीं। ऐसी स्त्री को पेशस्कारी कहते थे।
तैत्तरीय संहिता में ऋण के लिए कुसीद शब्द तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिए कुसीदिन शब्द मिलता है। ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिए कुसीदिन शब्द मिलता है। उत्तरवैदिक काल में साधारण व्यापार विनिमय द्वारा होता था। इस समय भी गाय व्यापार का माध्यम थी।
उत्तर वैदिक में निष्क का प्रयोग आभूषण और निश्चित तौल के धातु खण्ड दोनों रूपों में होता है। जल तथा थल दोनों मार्गों से व्यापार होता था। शतमान भी क्रय-विक्रय का माध्यम था। सिक्के का प्रचलन नहीं था। गन्धार, बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 1000 ई. पू. के लगभग लोहे का प्रयोग प्रारम्भ हो चुका था।
इस काल में चावल को दूध में पकाया जाता था। जिसे क्षीरौदन कहा जाता था। तथा दूध में पके हुए तिल को तिलौंदन कहा जाता था। गेहूँ, जौ, चावल आदि अन्नों को पीसकर बनाये गये पदार्थ पिष्ट कहलाते थे। उत्तर वैदिक काल में मांसाहार प्रचलित था। बैल, बकरी, भेड़ आदि का मांस विशेष रूप से खाया जाता था। पेय पदार्थों में सोम रस सर्वोत्कृष्ट समझा जाता था।
मनोरंजन के लिए घुड़दौड़ ,रथदौड़ तथा आखेट करना आदि प्रचलित थे। इस काल में पासे अथवा चौपड़ का खेल बहुत ही लोकप्रिय था। आर्यों में संगीत व नृत्य का बड़ा महत्त्व था। पुरुष के अतिरिक्त स्त्रियाँ भी सम गान करती थी। वाद्य यन्त्रों में वीणा, शंख आदि का उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में विश्ववारा ,घोषा, तथा अपाला आदि महिलायें ब्रह्म और आत्मा तथा विश्व और आत्मा के दार्शनिक रहस्यों का चिंतन करती थी। इस काल में शिक्षा का लक्ष्य आत्मज्ञान प्राप्त करना था। उत्तर वैदिक काल में शिक्षा राजकीय संस्थाओं में नहीं दी जाती थी, बल्कि विद्वान ब्राह्मणों द्वारा व्यक्तिगत आधार पर दी जाती थी। अत: इस समय गुरुकुल शिक्षा के केन्द्र हुआ करते थे।उत्तर वैदिक ग्रन्थों में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है– (i) ब्रह्मचर्य (ii) गृहस्थ (iii) वानप्रस्थ
उत्तर वैदिक काल की धार्मिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक में ऋग्वैदिक काल के वरुण, इन्द्र आदि का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रूद्रशिव ने ले लिया। इस काल में राजसूय, तथा अश्वमेघ जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान किया जाने लगा।
प्रेतात्माओं, जादू टोना, इन्द्रजाल, वंशीकरण आदि में लोगों का विश्वास बढ़ रहा था। ऋग्वेद में जहाँ कुल सात पुरोहित हुआ करते थे वही इस काल में बढ़कर 17 पुरोहित हो गये थे जिसमे एक मुख्य पुरोहित के रूप में सारे यज्ञ का पर्यवेक्षण करता था।
उत्तर वैदिक काल में यज्ञ से सम्बन्धित एक महान् देवता के रूप में विष्णु का आविर्भाव हो चुका था। पुनर्जन्म का सिद्धान्त सर्व प्रथम शतपथ ब्राह्मण के कुल में मन जाता था । हिन्दुत्व के प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्तों इस युग में ही आये। उपनिषदों की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य तत्त्व ज्ञान प्राप्त करके इस माया रूपी संसार से मुक्ति प्राप्त करना था ।
उत्तर वेदिक कालीन संस्कृति सम्पूर्ण वैदिक दर्शन का सार है। आत्मा का ब्रह्म से तादात्म्य और मोक्ष, आत्मा का ब्रह्म में विलीन हो जाने से प्राप्त होता है। मायावाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन इसी युग में हुआ। इस युग में देवों के अतिरिक्त पितरों का श्राद्ध तर्पण भी आरम्भ हो चुका था । श्राद्ध की प्रथा सर्वप्रथम दत्रोत्रय ऋषि के बेटे निमि ने चलाई थी । ऋषदर्शन तथा भागवत सम्प्रदाय का बीजारोपण इसी समय हुआ।
उत्तर वैदिक काल के साहित्य
सामवेद
सामवेद भारत का प्रथम और प्राचीनतम ग्रंथ है। इस ग्रंथ में भारतीय संगीत के बारे में माहिती दी गई है। सामवेद ने मुख्य देवता सूर्य है। इस ग्रंथ में प्रमुख रूप से सूर्य की स्तुति के मंत्र दिए गए हैं। परंतु इंद्र सोम का भी इसमें पर्याप्त उल्लेख मिलता है। उद्गत्रृ नाम के पुरोहित के द्वारा सामवेद का पाठ करने में आता था। सामवेद में 1869 जितने मंत्र आए हुए हैं। परंतु 75 मंत्र ही मौलिक है और बाकी के मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं।
यजुर्वेद
यजुर्वेद में कर्मकांड से संबंधित माहिती का उल्लेख किया गया है। इस ग्रंथ में अनुष्ठान परक और स्तुति परक दोनों ही प्रकार के मंत्र दिए गए हैं। यजुर्वेद गद्य और पद्य दोनों से निर्मित किया गया है। इस ग्रंथ को दो भागों में विभाजित किया गया है। पहला शुल्क यजुर्वेद और दूसरा कृष्ण यजुर्वेद। शुल्क यजुर्वेद उत्तर भारत में और कृष्ण यजुर्वेद दक्षिण भारत में प्रचलित है।
अथर्ववेद
अथर्ववेद की रचना सबसे आखिर में हुई थी। इस ग्रंथ में 6000 मंत्र, 20 अध्याय और 731 सूक्त का समावेश किया गया है। अथर्ववेद में ब्रह्मज्ञान, धर्म, समाज निष्ठा, औषधि प्रयोग, रोग निवारण, मंत्र और जादू टोना जैसे विषय पर माहिती बताई गई है। अथर्ववेद को ब्रह्मवेद के नाम से भी पहचाना जाता है। अथर्ववेद में आयुर्वेद संबंधित माहिती का उल्लेख किया गया है। अथर्ववेद के अनुसार स्पट होता है कि समय के साथ साथ आर्यों में प्रकृति पूजा की उपेक्षा होने लगी थी और प्रेत आत्माओं तथा तंत्र मंत्र में विश्वास करने लगे।
ब्राह्मण ग्रंथ
वेदों की सरल व्याख्या देने के लिए ब्राह्मण ग्रंथ की रचना कि गई थी। ब्राह्मण ग्रंथ में यज्ञो का अनुष्ठानिक महत्त्व का उल्लेख किया गया है। इस ग्रंथ की रचना गद्य में की गई है।
वेदांग
वेदांगो की संख्या 6 है, जिसमें शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छंद का समावेश होता है।
प्रमुख यज्ञ
- अश्वमेध यज्ञ
- राजसूय यज्ञ
- वाजपेय यज्ञ
- अग्निष्टोम यज्ञ
- सौत्रामणि यज्ञ
- पुरुषमेध यज्ञ
16 संस्कार
16 संस्कार में गर्भाधान , पुंसवन, जातकर्म, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूङाकर्म, कर्णवेध, विद्यारंभ, उपनयन, केशांत/गोदान, समावर्तन, विवाह, अंतेष्टि का समावेश किया गया है।
विवाह के प्रकार
मनुस्मृति मैं विवाह के आठ प्रकारों का वर्णन किया गया है। जिसमें से पहले 4 प्रकार के विवाह को प्रशंसनीय और बाकी के विवाह को निंदनीय कहा गया है।
प्रशंसनीय विवाह
- ब्रह्म: इस प्रकार के विवाह में कन्या के माता पिता कन्या के वयस्क हो जाने पर योग्य वर खोज कर उसके साथ अपनी बेटी का विवाह करवाते हैं।
- दैव: इस प्रकार के विवाह में कन्या के माता पिता यज्ञ करवाने वाले पुरोहित के साथ कन्या का विवाह करवाते हैं।
- आर्ष: आर्ष प्रकार के विवाह में कन्या के पिता द्वारा यज्ञ के कार्य के लिए एक अथवा दो गायों के बदले में अपनी कन्या का विवाह करवाते हैं।
- प्रजापत्य: जब वर स्वयं कन्या के पिता के पास जाकर कन्या का हाथ मांगता है और कन्या के पिता उन दोनों का विवाह करवाते हैं तो उसे प्रजापत्य विवाह कहते हैं।
निंदनीय विवाह
- आसुर: कन्या के पिता के द्वारा धन के बदले में कन्या का विवाह करवाना आसुर विवाह कहलाता है।
- गंधर्व: जब कन्या और पुरुष बिना इजाजत के प्रेम और कामुकता से वशीभूत होकर विवाह करते हैं तो उसे गंधर्व विवाह कहते हैं।
- पैशाच: इस प्रकार में सोई हुई कन्या के साथ सहवास करके विवाह करने मे आता है।
- राक्षस: बल का इस्तेमाल करके कन्या से जबरदस्ती विवाह करना।
उत्तर वैदिक काल के महत्वपूर्ण तथ्य
- वृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषदों में कहा गया हैं कि ब्रह्म लोक में सभी समान माने जाते हैं। सर्वप्रथम उत्त्र कालीन वैदिक ग्रन्थों में विशाल नगरों का उल्लेख हुआ।
- सदानीरा– राप्ती या गंडक को कहा जाता था।
- शल्य क्रिया का उल्लेख अथर्ववेद में प्राप्त होता है।
- चित्रित धूसर मृदभाण्ड इस युग की मुख्य विशेषता है।
- आर्य जगत का केन्द्र मध्य देश था।
- वेदांग संख्या में छ: हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द, ज्योतिष।
- वैदिक सभ्यता तथा सिन्धु सभ्यता में मुख्य अन्तर इस प्रकार है।
- वैदिक सभ्यता ग्राम्य और कृषि प्रधान जबकि सिन्धु सभ्यता नगरीय और व्यापार प्रधान थी।
- आर्य मूर्ति पूजक नहीं थे, जबकि सैन्धव मूर्तिपूजक थे।
- वैदिक जीवन में अग्नि का विशेष महत्त्व था जबकि सिन्धु निवासियों के धार्मिक जीवन में इसका कोर्इ विशेष महत्त्व नहीं था।
- वैदिक लोग लोहे से परिचित थे लेकिन सैन्धव लोग नहीं थे।
- वैदिक लोग घोड़े से परिचित थे लेकिन सिन्धु निवासी घोड़े से अपरिचित थे।
- वैदिक लोग व्याघ्र और हाथी से भली-भांति परिचित नहीं थे जबकि सिन्धु निवासी भली भांति परिचित थे।
- वैदिक लोग मांसाहारी होते हुए भी मछली का प्रयोग नहीं करते थे जबकि सैन्धव लोग मछली के प्रेमी थे।
- इस्वांक्षु – सूर्यवंशी, इला-चन्द्रवंशी
- ऋग्वेद में 1017 मंत्र हैं। ऋग्वेद में 10462 श्लोक है। ऋग्वेद का कार्य काल 1500 से 1000 ई . पू. था।
- गविष्टि – गायों की गवेषणा थी इसी प्रकार गवेषण, गोषु, गव्य, गभ्य आदि सभी युद्ध के लिए प्रयुक्त होते थे। चूँकि पशु ही सम्पत्ति का मुख्य अंग था इसलिए इसमें पशुओं की चोरी तथा कवायली समाज में युद्ध होना सामान्य बात थी।
- रयि (सम्पत्ति) वैदिक साहित्य में आर्य निवास के लिए सप्तसैंधव शब्द का प्रयोग किया गया है। पर्याप्त मतभेदों के बावजूद जिसे आजकल पंजाब (भारत व पाकिस्तान का इलाका) कहा जाता है सम्भवत: वही क्षेत्र माना जाना उपयुक्त होगा।
- वैदिक काल की सप्तसैंधव – सिंधु, सरस्वती, शतुद्रि (सतलज), विपासा (व्यास) परूष्णी (रावी), अस्किनी (चिनाब), वितस्ता (झेलम), इसके अतिरिक्त कुभा (काबुल), सुस्वातु (स्वात), गोमती (गोमल), क्रुमु (कुर्रम) आदि नदियों का उल्लेख है।
- ऋग्वेद में सरस्वती नदी का बड़ा महत्त्व था। पशुचारण की तुलना में कृषि का धन्धा नगण्य था। उर्दर, धान्य, वपंति ये तीन शब्द कृषि के लिए प्रयुक्त हुए हैं। कृष-खेती करना, कृष्टि शब्द का उल्लेख 33 बार हुआ है। ऋग्वेद में एक ही अनाज यव का उल्लेख हुआ था ।
- ब्राह्मण ग्रन्थ – ये गद्य रचनायें हैं।
- आरण्यक – ये ग्रन्थ वन में लिखे गये थे।
- अदेवयु – देवताओं में श्रद्धा न रखने वाले।
- अब्रह्मण – वेदों को न मानने वाले।
- अनार्य – चपटी नाक वाले।
- अयज्वन् – यज्ञ न करने वाले।
- मृध्रवाक – कटु वाणी वाले।
- उत्तर वैदिक काल में राजनितिक संगठन की मुख्य विशेषता बड़े राज्यों तथा जनपदों की स्थापना थी।
- राजत्व के दैवीय उत्पति के सिद्धांत का सर्व प्रथम उल्लेख ऐतरे ब्राह्मण में किया गया है।
- इस कार्य में रजा का महत्व बढ़ा एवं उसका पद वंशानुगत हो गया।
- उत्तर वैदिक काल में परिवार पितृ सत्तात्मक होते थे।
- वर्ण व्यवस्था कर्म के बदले जाति पर आधारित थी।
- स्त्रियों की स्थिति नहीं थी।
- उन्हें धन सम्बंधित तथा किसी प्रकार के राजनैतिक अधिकार प्राप्त नहीं थे।
- जाबालोपनिषद में सर्व प्रथम चार आश्रमों ब्रहचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास का विवरण मिलता है।
- धार्मिक एवं यज्ञ कर्म कांडों में जटिलता थी।
- इस काल में सबसे प्रमुख देवता प्रजापति ब्रह्मा (Generator), विष्णु(Operator), एवं शिव(Destroyer) थे।
- Generator, Operator एवं Destroyer के प्रथम अक्षरों को जोड़ कर GOD (ईश्वर) बनता है।
वैदिक साहित्य
- वेद से संबंधित ब्राह्मण ग्रन्थ का एतरेय और कौषीतकि ब्राह्मण थे।
- शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण था।
- कृष्ण यजुर्वेद का तैतिरीय ब्राह्मण था।
- सामवेद का पंचविश षड्विश, छान्दोग्य उपनिषद आदि थे।
- अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण था।
- इस समय सात आरण्यक उपलब्ध थे – ऐतरेय, शाखायन, तैत्तरीय, माध्यन्दिन, याध्यन्दिन बृहदारण्यक, तलकार और आरण्यका।
- ब्राह्मण गद्य साहित्य के सर्वप्राचीन ग्रन्थ हैं।
- उपनिषदों में हम वैदिक चिन्तन का चरम विकास पाते हैं इसी कारण इन्हें वेदान्त भी कहा गया है। उपनिषदों की रचना गंगा घाटी में हुई ।
वेदांग
- शिक्षा को वेद की नासिका कहा गया है।
- कल्प को वेद का हाथ कहा गया है।
- व्याकरण का वेद का मुख कहा गया है।
- निरुक्त को वेद का श्रोत कहा गया है।
- छन्द को वेद को दोनों पैर कहा गया है।
- ज्योतिषि को वेद का नेत्र कहा गया है।
वैदिक साहित्य
- वैदिक संहिताएं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद।
- यजुर्वेद – दो भाग – कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल् यजुर्वेद
- वेदांग – (छ:) शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, ज्योतिष एवं दन्दछन्द
- कल्पसूत्र – श्रौतसूत्र, गृह्य सूत्र, धर्मसूत्र और शूल्वसूत्र
- प्रमुख उपवेद – आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद, शिल्पवेद
- पुराण की संख्या – 18
सूत्र साहित्य
- स्रौत सूत्र– इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियमों का उल्लेख है।
- गृहसूत्र– इसमें मनुष्यों के लौकिक एवं पारलौकिक कर्तव्यों का विवेचन है।
- धर्म सूत्र– इसमें सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक कत्तव्यों का विवरण हैं
- शुल्ब सूत्र – इसमें यज्ञवेदी के निर्माण से संबद्ध नाप आदि का तथा वेदी के निर्माण आदि के नियमों का वर्णन है।
शतपथ ब्राह्मण में रत्नियों की संख्या
- सेनानी
- पुरोहित
- युवराज
- महिषी
- सूत
- ग्रामिणी
- क्षता
- संग्रहीता
- भागदुध
- अक्षवाप
- पालागल
उत्तर वैदिक काल के प्रमुख यज्ञ
- राजसूय यज्ञ– राजा के राज्याभिषेक हेतु सम्पादित होता था।
- अश्वमेघ यज्ञ– यह अन्य राज्यों को चुनौती के उद्देश्य से एक अभिषिक्त घोड़े को छोड़कर सम्पादित किया जाता था। यह राजा के प्रभुत्व का प्रतीक था।
- वाजपेय यज्ञ – इस यज्ञ में राजा रथों की दौड़ का आयोजन करता था। इसका उद्देश्य प्रजा के मनोरंजन के साथ राजा द्वारा शौर्य प्रदर्शन होता था।
- अग्निष्टोम यज्ञ – यह यज्ञ एक दिन का होता था इसमें प्रात: दोपहर तथा शाम को सोम पीसा जाता था तथा अग्नि को पशुबलि दी जाती थी।
- पंचमहायज्ञ– ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ तथा नृयज्ञ ये पंच महायज्ञ कहलाते है। गृहस्थों के लिए यह पाँचों यज्ञ करना आवश्यक था।
ऋषि और मंडल
- गृत्समद – द्वितीय मंडल
- विश्वामित्र – तृतीय मंडल
- वामदेव – चतुर्थ मंडल
- अत्रि – पंचम मंडल
- भारद्वाज – षष्ठम मंडल
- वशिष्ठ – सप्तम मंडल
इन्हें भी देखें –
- वैदिक काल
- पूर्व वैदिक काल
- महाराणा प्रताप
- सप्तवर्षीय युद्ध: अद्भुत संघर्ष और संकटपूर्ण निर्णय |1756–1763 ई.
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