भारत की चट्टानें: संरचना, वर्गीकरण, विशेषताएं| Rocks of India

पृथ्वी के विभिन्न भूवैज्ञानिक कालों में निर्मित चट्टानें विविधतापूर्णता को दर्शाती हैं, जिसमें भारत की भूवैज्ञानिक संरचना उत्कृष्ट है। चट्टानों की यह विविधता भारत में विभिन्न प्रकार के खनिजों के उत्पादन का कारण बनती है। भूवैज्ञानिक इतिहास के आधार पर, भारत में पायी जाने वाली चट्टानें विभिन्न कालों में उत्पन्न हुई हैं। इन चट्टानों को उनके निर्माण क्रम के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। प्राचीन से नवीन क्रम में इन चट्टानों को आर्कियन, धारवाड़, कडप्पा, विंध्यन, गोंडवाना, दक्कन ट्रेप, टर्शियरी, और क्वार्टनरी क्रम में वर्गीकृत किया गया है। इन चट्टानों से प्राप्त खनिज विविधता ने भारत को भूगर्भ संसाधनों के श्रेष्ठ उपयोग और विकास की दिशा में मदद की है।

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चट्टान किसे कहते हैं ?

भूपर्पटी पर ठोस पिण्ड के रूप में प्रकट होने (दिखाई देने) वाले प्राकृतिक निक्षेप को “चट्टान” कहा जाता है। इनका निर्माण दो प्रमुख कारणों से होता है –

  1. पृथ्वी की आंतरिक शक्तियों के कारण
    • भूपर्पटी के नीचे पृथ्वी की गर्मी, दाब, और अन्य आंतरिक प्रक्रियाएं चट्टानों के निर्माण में भूमिका निभाती हैं। उच्च तापमान और दाब के कारण, विभिन्न धातुओं और रेखांकित पदार्थों के अवसरग्रस्त क्षेत्रों में चट्टानें बनती हैं।
  2. आदि चट्टानों के रूपांतरण या विखंडन से पुनः जम जाने के कारण
    • समय के साथ, आदि चट्टानें अपने रूप में परिवर्तित हो सकती हैं और विखंडित हो सकती हैं। इसका परिणामस्वरूप, नए चट्टान बनती हैं जो पुरानी चट्टानों के अंशों का पुनर्निर्माण करती हैं।

चट्टानें भूमि की निर्माण-बिगड़न की प्रक्रियाओं को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, और पृथ्वी की आंतरिक संरचना और विकास की समझ में सहायक होती हैं।

चट्टानों का वर्गीकरण (Classification of Rocks)

चट्टानों को उनके कालक्रम और उनकी संरचना के आधार पर वर्गीकृत किया गया है। भारतीय चट्टानों को उनके कालक्रम के आधार पर आठ भागों में विभाजित किया गया है तथा उनकी संरचना के आधार पर तीन प्रकार में विभाजित किया गया है जिसका विवरण आगे दिया गया है –

  • कालक्रम के आधार पर चट्टानों का वर्गीकरण (कालक्रमिक वर्गीकरण)
  • संरचना के आधार पर चट्टानों का वर्गीकरण (संरचनात्मक वर्गीकरण)

कालक्रम के आधार पर चट्टानों का वर्गीकरण

कालक्रम के आधार पर भारत में लगभग 8 तरह की की चट्टाने पाई जाती है। यह सभी चट्टाने किसी ना किसी तरीके से एक दूसरे दूसरे से जुड़ी है। इन चट्टानों का विवरण निम्नलिखित है –

  1. आर्कियन क्रम की चट्टानें – पूर्व कैम्ब्रियन: 500 मिलियन से अधिक प्राचीन
  2. धारवाड़ क्रम की चट्टानें
  3. कुडप्पा की चट्टानें
  4. विंध्यन क्रम की चट्टानें
    • ऊपरी विंध्यन चट्टानें
    • निचली विंध्यन चट्टानें
  5. गोंडवाना की चट्टानें
  6. दक्कन ट्रैप
  7. टर्शियरी
  8. क्वार्टनरी

आर्कियन क्रम की चट्टानें

आर्कियन क्रम की चट्टानें, भारतीय भूभागों में स्थित सबसे प्राचीन चट्टान समूहों में से एक हैं जो पृथ्वी के ठंडा होने पर निर्मित हुईं थीं। इन चट्टानों का नाम आर्कियन क्रम के अनुसार है, और ये पृथ्वी के विभिन्न क्षेत्रों में स्थित हैं।

आर्कियन क्रम की चट्टानें प्रमुखतः नीस, ग्रेनाइट, शिस्ट, मार्बल, क्वार्ट्ज, डोलोमाइट, फिलाइट, आदि से मिलती हैं। इन चट्टानों का विस्तार भारत के विभिन्न राज्यों में है, जैसे कि कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, ओड़ीशा, बिहार, और राजस्थान के दक्षिणी-पूर्वी भागों में। इन चट्टानों का क्षेत्रफल लगभग 1,87,500 वर्ग किलोमीटर है। यह भारत में पाया जाने वाला सबसे प्राचीन चट्टान समूह है, जो प्रायद्वीप के दो-तिहाई भाग में फैला हुआ है।

जब से पृथ्वी पर मानव का अस्तित्व है, तब से आर्कियन क्रम की चट्टानें भी पाई जाती रही हैं। परन्तु इनका निर्माण मानव विकास के बहुत पहले ही हुआ था। अर्कियन चट्टाने यह चट्टानें तब बनी थी जब धरती अपनी गर्भावस्था से ठंडी अवस्था में जा रही थी, धरती के ऊपर जो भी गर्म लावा था वह ठंडा होकर चट्टानों में बदल गया। क्योंकि यह चट्टाने सबसे पुरानी है इस कारण यह चट्टानें अब अपने असली रूप में नहीं बची है यह या तो टूट फूट गई है या फिर बहुत ज्यादा घिस गई है। इन चट्टानों का इतना अधिक रूपांतरण हो चुका है कि ये अपना वास्तविक रूप खो चुकीं हैं। इन चट्टानों के समूह बहुत बड़े क्षेत्रों में पाये जाते हैं। 

आर्कियन क्रम की चट्टानों की विशेषता यह है कि ये रवेदार होती हैं, और इसमें जीवाश्मों का पूर्ण अभाव होता है। इसमें आंतरिक शक्तियों का काफी प्रभाव होता है, जिसके कारण इन चट्टानों में जीवाश्मों की अभावता होती है। इन चट्टानों में हमें जीवाश्म नहीं मिलने का एक कारण यह भी बताया जाता है कि संभवतः उस समय तक कोई भी जानवर पैदा नहीं हुआ था।

आर्कियन क्रम की चट्टानों के महत्वपूर्ण तथ्य

  • ये सर्वाधिक प्राचीन और प्राथमिक आग्नेय चट्टानें हैं, क्योंकि इनका निर्माण तप्त व पिघली हुई पृथ्वी के ठंडे होने के दौरान हुआ था।
  • वर्तमान में अत्यधिक रूपान्तरण के कारण इन चट्टानों का मूल रूप नष्ट हो चुका है।
  • आर्कियन समूह की चट्टानें 500 मिलियन साल से भी अधिक प्राचीन है।
  • इन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाये जाते हैं।
  • प्राचीन काल में पृथ्वी की संरचना के समय, जब पृथ्वी पूरी तरह से गरम थी और उसके बाद पृथ्वी जब धीरे धीरे ठंडा हुई तो उस समय आर्कियन क्रम की चट्टानों का निर्माण हुआ।
  • आर्कियन क्रम की चट्टानों को आग्नेय चट्टान भी कहा जाता है। 
  • आर्कियन क्रम की चट्टानें मुख्य रूप से कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, ओडिशा, छोटानागपुर का पठार, दक्षिण-पूर्वी राजस्थान और बुंदेलखंड में पायी जाती हैं।

धारवाड़ क्रम की चट्टानें

धारवाड़ क्रम की चट्टानें दूसरी तरह की चट्टानें हैं। ये सबसे प्राचीन अवसादी चट्टाने है। अर्कियन क्रम की चट्टानों के बाद ये दूसरे स्थान पर आने वाली चट्टानें हैं। धारवाड चट्टानों को सबसे पहले कर्नाटका के धारवाड़ जिला में देखा गया था। इस कारण इनका नाम धारवाड़ पड़ा। यह चट्टाने अर्कियन चट्टाने के टूट-फूट होने से बनी है।अर्कियन चट्टानों का अवसाद इकट्ठा होता गया उससे धारवाड़ चट्टान बनी।

इन चट्टानों में भी जीवाश्म नहीं पाया जाता क्योंकि या तो तब तक कोई जानवर पैदा नहीं हुआ था या फिर बहुत पुरानी होने की वजह से वह जीवाश्म खत्म हो गया। लेकिन यह चट्टाने बहुत मूल्यवान होती है, क्योंकि इनके अंदर धातु मिलती है। भारत में अरावली पहाड़ियों का निर्माण धारवाड चट्टाने की मदद से हुआ है। यह चट्टाने पूरे भारत में बिखरी हुई है। ये चट्टानें कर्नाटका, कावेरी बेल्ट, लद्दाख, कुमाऊं, जस्कर, गढ़वाल, गुजरात में मिलती है।

इस समूह की चट्टानों का निर्माण आर्कियन क्रम की चट्टानों के रूपांतरण अथवा भ्रंशन से हुआ। धारवाड़ शैल समूह की चट्टानें सबसे पहले बनी अवसादी शैलें हैं। आज ये कायान्तरित रूप में मिलती हैं। इनमें भी जीवाश्म नहीं मिलते हैं। ये चट्टानें कर्नाटक, मध्य प्रदेश, झारखंड, मेघालय और राजस्थान में फैली हैं। ये मध्य और उत्तरी हिमालय में भी पाई जाती हैं। शिस्ट, स्लेट, क्वाटूजाइट और कांग्लोमेरेट इसी वर्ग की चट्टानें हैं। इस शैल समूह में सोना, मैगनीज-अयस्क, लौह-अयस्क, क्रोमियम, तांबा, यूरेनियम, थोरियम और अभ्रक जैसे खनिज पाए जाते हैं। ग्रेनाइट, संगमरमर, क्वार्टूजाइट और स्लेट जैसी चट्टानों के रूप में भवन निर्माण सामग्री भी इनमें उपलब्ध है।

धारवाड़ क्रम की चट्टानें मध्यवर्ती एवं पूर्वी दक्कन प्रदेश में विभिन्न श्रेणियों के नाम से विस्तृत हैं। उदहारण के लिए – बालाघाट और भटिंडा में चिपली श्रेणी, नागपुर व जबलपुर में सागर श्रेणी, हजारीबाग व रीवा में गोंडाइट श्रेणी तथा विशाखापट्टनम में कुदोराइट श्रेणी। इसी तरह गुजरात एवं दिल्ली में क्रमशः चम्पानेर श्रेणी तथा अरावली के क्षेत्र में ऊपरी अरावली श्रेणियों के नाम से जानी जाती है।

भारत में पायी जाने वाली धारवाड़ क्रम की चट्टानें और उनका महत्व

भारत की भूभागों में स्थित धारवाड़ क्रम की चट्टानें एक महत्वपूर्ण भूगोलीय और भूवैज्ञानिक अध्ययन का क्षेत्र हैं। इन चट्टानों की विशेषता यह है कि इन्हें प्राचीन और विभिन्न धातुओं, खनिजों, और पदार्थों का समृद्ध भंडार समझा जाता है। धारवाड़ क्रम की चट्टानें भारतीय भूमि की समृद्धि, भूगोलीय संरचना, और आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इन चट्टानों के महत्व को निम्न विन्दुओं में समझा जा सकता है –

पुराण समूह: इस समूह की चट्टानों की उत्पत्ति विभिन्न विवर्तनिक (Tectonic) हलचलों के कारण हुई है। धारवाड़ समूह की चट्टानों की आंतरिक हलचलों की प्रक्रिया में निचले भागों में कड़प्पा क्रम की चट्टानें तथा ऊपरी भागों में विंध्यन क्रम की चट्टानें प्राप्त हुई हैं।

बाह्य प्रायद्वीपीय धारवाड़ क्रम: बाह्य प्रायद्वीपीय धारवाड़ क्रम की चट्टानें प्रमुखतः पश्चिमी हिमाचल प्रदेश की निचली घाटियों में पाई जाती हैं। इन चट्टानों को असोम के पठारी भाग में शिलांग श्रेणी, कश्मीर में सखलाना श्रेणी, और हिमाचल प्रदेश में स्थित समिति घाटी में वैक्रता श्रेणी के नाम से भी जाना जाता है। इन चट्टानों का विस्तार गहरी गर्तों और घाटियों में होता है, जिससे इनमें विभिन्न धातुएं और खनिज पदार्थ पाए जाते हैं।

बाह्य प्रायद्वीप और प्रायद्वीपीय चट्टानों का मुकाबला: प्रायद्वीपीय और बाह्य प्रायद्वीपीय धारवाड़ क्रम की चट्टानों के बीच विभिन्नताएँ हैं। प्रायद्वीपीय चट्टानों का रूपांतरण बहुत ज्यादा हुआ है, जबकि बाह्य प्रायद्वीपीय चट्टानों का रूपांतरण कम हुआ है। प्रायद्वीपीय चट्टानों के अत्यधिक रूपांतरण के कारण इनमें खनिज पदार्थ अधिक मात्रा में पाए जाते हैं। बाह्य प्रायद्वीपीय धारवाड़ क्रम की चट्टानों का अपेक्षाकृत कम रूपांतरण हुआ है, इसलिए इनमें खनिज पदार्थों की कमी होती है।

चट्टानों से प्राप्त खनिज पदार्थ: इन धारवाड़ क्रम की चट्टानों से भारत में अनेक प्रकार के धातुएं और खनिज पदार्थ प्राप्त होते हैं। सोना, तांबा, लोहा, मैंगनीज, टंगस्टन, क्रोमियम, सीसा, अभ्रक, कोबाल्ट, फ्लूराइट, इल्मैनाइट, ग्रेनाइट, बजफ्राम, गारनेट, एस्बेस्टस, कोरडम, और संगमरमर इन चट्टानों से प्राप्त होने वाले खनिज पदार्थ हैं। इनमें से सोना कोलार क्षेत्र में, और लोहा बिहार, मध्य प्रदेश, ओडीशा, गोवा व कर्नाटक में प्राप्त होता है।

सारांगी: इन चट्टानों का अध्ययन करते समय हम सारांगी नामक एक विशेष प्रकार की चट्टान से परिचित होते हैं, जिसे वैज्ञानिकों ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण माना है। इन चट्टानों से मिलने वाले खनिज पदार्थों के उपयोगी होने के साथ-साथ इस क्षेत्र की जीवशास्त्रीय और भूवैज्ञानिक अध्ययन को बढ़ावा मिलता है।

धारवाड़ क्रम की चट्टानों से प्राप्त जानकारी से भारतीय भूमि के विभिन्न पहलुओं को समझा जाता हैं, जिससे भूगोल, खनिज अध्ययन, और जीवशास्त्रीय अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान होता है।

धारवाड़ क्रम की चट्टानों के महत्वपूर्ण तथ्य

  • ये सबसे प्राचीन अवसादी चट्टानें हैं।
  • इन चट्टानों का निर्माण आर्कियन क्रम की चट्टानों के अपरदन व निक्षेपण से हुआ है। इसलिए ये अवसादी चट्टानें कहलाती हैं।
  • इन चट्टानों में जीवाश्म नहीं पाये जाते हैं। इसके दो कारण माने जाते है- या तो उस समय तक जीवों की उत्पत्ति नहीं हुई थी या फिर लंबा समय बीत जाने के कारण इन चट्टानों के जीवाश्म नष्ट हो गए हैं।
  • अरावली पर्वतमाला, जोकि विश्व के सबसे प्राचीन वलित पर्वतों में से है, का निर्माण इसी क्रम की चट्टानों से हुआ है।
  • इस क्रम की चट्टानें कर्नाटक के धारवाड़ व शिमोगा जिले में पायी जाती हैं, इसीलिए इन्हें ‘धारवाड़’ नाम दिया गया है।
  • इसके अलावा ये चट्टानें कावेरी नदी घाटी, बेल्लारी जिला, जबलपुर की सासर पर्वतमाला, नागपुर और गुजरात की चम्पानेर पर्वतमाला में पायी जाती हैं।
  • उत्तर भारत में धारवाड़ क्रम की चट्टानें हिमालय की लद्दाख, जास्कर, गढ़वाल और कुमायूं श्रेणी में पायी जाती हैं।
  • धारवाड़ क्रम की चट्टानें आर्थिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि अधिकांश धात्विक खनिज इसी क्रम की चट्टानों में पाये जाते है।
  • धारवाड़ की चट्टानें भारत की सर्वाधिक आर्थिक महत्व वाली चट्टानें है, जिसमे सबसे ज्यादा धात्विक खनिजों का 98% भंडार पाया जाता है।
  • धारवाड़ की चट्टानों में लोहा, चाँदी, सोना, जस्ता, टंगस्टन, क्रोमियम और तांबा जैसे धातुएं पाया जाता है। साथ ही इन चट्टानों से कोबाल्ट, सीसा, अभ्रक, फ्लूराइट, संगमरमर, एस्बेस्टस जैसे खनिज पदार्थ भी प्राप्त होते है।
  • कर्नाटक राज्य की प्रसिद्द सोने की खान जिसे कोलार की खान कहते हैं इन्ही चट्टानों में बनी है।
  • भारत में सबसे पहले ज्वालामुखी क्रिया धारवाड़ चट्टानों की काल में ही हुई थी।

कुडप्पा क्रम की चट्टानें

कुडप्पा क्रम की चट्टानें तीसरी तरह की चट्टानें है, जिसका निर्माण धारवाड़ चट्टानों के की टूट-फूट से हुआ है। इन चट्टानों में बलुआ पत्थर और लाल पत्थर पाया जाता है। यह चट्टाने पूरे भारत में राजस्थान में और आंध्र प्रदेश में मिलती है। कुडप्पा क्रम की चट्टानें भारतीय भूभागों में एक महत्वपूर्ण समृद्धि भंडार का स्रोत हैं और इनका अध्ययन सैत्यकालीन सभ्यताओं से लेकर आधुनिक विज्ञान तक के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण है।

उत्पत्ति और उम्र: इन चट्टानों का निर्माण धारवाड़ क्रम की चट्टानों के बाद एक अंध युग के पश्चात् हुआ है। धारवाड़ युग की चट्टानें समय के साथ धीरे-धीरे विभिन्न जलज क्रियाओं द्वारा कट-छंट कर समुद्र एवं नदियों की निचली घाटियों में जमा होती रहीं और बाद में इन्हीं एकत्रित निक्षेपों ने चट्टानों का रूप ग्रहण कर लिया, जिन्हें हम कुडप्पा क्रम की चट्टानें कहते हैं।

स्थान: आध्र प्रदेश के कुडप्पा जिले में यह चट्टान अर्द्ध-चंद्राकार स्वरूप में एक विशाल क्षेत्र में पाई जाती है, जिसकी ऊंचाई लगभग 6,000 मीटर है।

चट्टानों का निर्माण:  कुडप्पा क्रम की चट्टानों की निर्माण सामग्री शैल, स्लेट, क्वार्टजाइट तथा चुने के पत्थर की चट्टानों से प्राप्त हुई है। ऐसा नहीं है कि इन चट्टानों में रूपांतरण नहीं हुआ है, परंतु धारवाड़ चट्टानों की अपेक्षा कम हुआ है। 

चट्टानों की विशेषताएं: इन चट्टानों की विशेषता है कि अब तक इनमें जीवाश्मों का रूप प्राप्त नहीं किया जा सका है जबकि उस समय पृथ्वी पर जीवन का आविर्भाव हो चुका था। सामान्यतः ये चट्टानें निचली कुडप्पा चट्टानें और ऊपरी कुडप्पा चट्टानें नामक दो वर्गों में विभाजित हैं। इनका विस्तार लगभग 22,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में है।

चट्टानों से प्राप्त खनिज पदार्थ: ये चट्टानें सामान्यतः या तो निचली कुडप्पा चट्टानें या ऊपरी कुडप्पा चट्टानें नामक दो वर्गों में विभाजित हैं। इनमें तांबा, निकेल, कोबाल्ट, लोहा मैंगनीज, संगमरमर, जास्पर, एस्बेस्टस, हीरे, चूना-पत्थर, बालुका, पत्थर और सीसा आदि प्राप्त होते हैं।

महत्व: कुडप्पा क्रम की चट्टानें भारतीय भूमि के विभिन्न पहलुओं को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जिससे भूगोल, खनिज अध्ययन, और जीवशास्त्रीय अध्ययन में महत्वपूर्ण योगदान हो सकता है। आर्थिक दृष्टि से कुडप्पा चट्टानें धारवाड़ चट्टानों से कम महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनमें खनिज पदार्थ अपेक्षाकृत कम मात्रा में मिलते हैं। हालांकि इन चट्टानों से हमें तांबा, निकेल, कोबाल्ट, लोहा मैंगनीज, संगमरमर, जास्पर, एस्बेस्टस, हीरे, चूना-पत्थर, बालुका, पत्थर और सीसा आदि प्राप्त होते हैं, जो आर्थिक और औद्योगिक उपयोग के लिए महत्वपूर्ण हैं।

कुडप्पा क्रम की का महत्वपूर्ण तथ्य

  • ये अवसादी चट्टानें हैं क्योंकि इनका निर्माण धारवाड़ क्रम की चट्टानों के अपरदन व निक्षेपण से हुआ है।
  • आंध्र प्रदेश के कडप्पा जिले में इस क्रम की चट्टानें अर्द्ध-वृत्ताकार क्षेत्र में विस्तृत पायी जाती हैं, इसीलिए इनका नाम ‘कडप्पा’ रखा गया है।
  • ये चट्टानें बलुआ पत्थर, चुना पत्थर, एस्बेस्टस और संगमरमर की चट्टानों के लिए प्रसिद्ध हैं।
  • कडप्पा चट्टानें राजस्थान में भी पायी जाती हैं।
  • कुडप्पा की चट्टानें 600 मिलियन से 1500 मिलियन वर्ष प्राचीन है।
  • धारवाड़ चट्टानों से निर्माण होने के कारण ही इन चट्टानों में भी जीवाश्म का अभाव पाया जाता है।
  • धारवाड़ की चट्टानों की तुलना में कुडप्पा की चट्टानें कम महत्वपूर्ण हैं, क्योंकी इस चट्टानों में खनिज पदार्थ तुलनात्मक कम मात्रा में मिलता हैं।
  • यह चट्टानें आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा हिमालय के कुछ क्षेत्रों में पाई जाती हैं।
  • इन चट्टानों से चूना पत्थर, बलुआ पत्थर, लोहा, तांबा, सीसा, संगमरमर और मैंगनीज आदि धातुएं भी प्राप्त होते है।

विध्यन क्रम की चट्टानें

कुडप्पा चट्टानों के बाद विंध्यन चट्टानों का निर्माण हुआ। इसका नाम विंध्याचल के नाम पर रखा गया है। ये जल निक्षेपों से निर्मित परतदार चट्टानें हैं। यह सिद्ध हो चुका है कि तलछट केवल समुद्रों और नदियों की घाटियों में ही एकत्रित होती थी। चूंकि बलुआ पत्थर विंध्य की चट्टानों में पाया जाता है, इसलिए यह माना जा सकता है कि जिन तलछटों से इन चट्टानों का निर्माण हुआ, वे समुद्र के उथले पानी में ही एकत्र हुए थे।

कुडप्पा चट्टानों की भांति इन चट्टानों को भी दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

  • निचली विंध्यन चट्टानें
  • ऊपरी विंध्यन चट्टानें
निचली विंध्यन चट्टानें

निचली विंध्यन चट्टानें उन निक्षेपों द्वारा बनी हैं जो समुद्र में काफी मोटी परत में जमे हुए थे। ये चट्टानें अधिकतम प्रायद्वीपीय भारत में पायी जाती हैं। निचली विंध्यन चट्टानें मुख्य रूप से पांच प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में पाई जाती हैं, जहां इन्हें भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा जाता है। सोन नदी की घाटी में सेमरी श्रेणी, आंध्र प्रदेश के दक्षिण पश्चिमी भाग में करनूल श्रेणी, भीमा नदी की घाटी में भीमा श्रेणी, राजस्थान के जोधपुर तथा चित्तौड़गढ़ में पलनी श्रेणी तथा ऊपरी गोदावरी घाटी तथा नर्मदा घाटी के उत्तर में मालवा व बुंदेलखण्ड में इन चट्टानों की विभिन्न श्रेणियां मिलती हैं। इन चट्टानों से सेलखड़ी, चूना-पत्थर तथा क्वार्टूजाइट आदि प्राप्त होता है।

ऊपरी विंध्यन चट्टानें

ऊपरी विंध्यन चट्टानें नदियों की घाटी में होने वाली निक्षेप से बनी हैं। ये चट्टान प्रायद्वीपीय भारत के साथ-साथ बाह्य प्रायद्वीपीय भागों में भी पाई जाती हैं। ये भी मुख्य रूप से पांच क्षेत्रों में पायी जाती हैं-नर्मदा के उत्तरी भागों में, कटनी से इलाहाबाद जाने वाले मध्य रेलवे मार्ग, सोन नदी पर स्थित डेहरी-ऑन-सोन जाने वाले रेलमार्ग, प्रायद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग में अरावली एवं उसके निकटवर्ती भाग, पीर पंजाल एवं धौलाधार श्रेणियां और शिमला एवं लाहौल-स्पीती घाटी के निकटवर्ती भाग में।

इन चट्टानों का विस्तार लगभग एक लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में है। यह पूर्व दिशा में बिहार के सासाराम एवं रोहतास क्षेत्र से लेकर पश्चिम में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ क्षेत्र तक तथा उत्तर में आगरा से लेकर दक्षिण में होशंगाबाद तक फैली हुई हैं। विंध्यन चट्टानों की अधिकतम चौड़ाई आगरा और नीमच के बीच है, जो लगभग 4,242 मीटर है। विंध्यन चट्टानों से कई प्रकार के खनिज प्राप्त होते हैं, जैसे-चूना-पत्थर, बलुआ पत्थर, चीनी मिट्टी, अग्निप्रतिरोधक मिट्टी, वर्ण मिट्टी, तांबा, निकिल, कोबाल्ट, जॉस्पर, एस्बेस्टस, कोयला, आदि इन चट्टानों से ही प्राप्त होते हैं। इन्हीं चट्टानों से पन्ना और गोलकुण्डा में हीरे भी मिलते हैं। इसमें निम्न दो समूहों में विभाजित है –

  1. द्रविडियन समूह: द्राविडियन समूह की चट्टानें जीवावशेषों से युक्त होते हैं। इस समूह की चट्टानें प्रायः प्रायद्वीप के बाहरी भागों में पाई जाती हैं। द्रविड़ महाकल्प में प्रायद्वीप पठार समुद्र तल से ऊपर था अतः इस शैल समूह की चट्टानें यहां नहीं पायी जाती । उल्लेखनीय है कि, द्रविड़ शैल समूह की चट्टानें हिमालय में एक निरंतर क्रम में मिलती हैं। इस समूह की चट्टानों से कोयला, बलुआ पत्थर तथा रासायनिक उर्वरक इत्यादि प्राप्त होते हैं।
  2. आर्यन समूह: ऊपरी कार्बनी कल्प में द्रोणी के आकार के गर्तों का निर्माण हुआ। इसी काल में पर्वतीय व मैदानी भागों का निर्माण हुआ।

विन्ध्यन क्रम की चट्टानों के महत्वपूर्ण तथ्य

  • विन्ध्यन क्रम की चट्टानों का निर्माण कुडप्पा चट्टानों के बाद में हुआ है।
  • विन्ध्यन क्रम की चट्टानें प्रथम अवसादी चट्टानें है जिसमे जीवाश्म की प्राप्ति होती है।
  • इन चट्टानों का निर्माण समुद्र तथा नदीयो की निचले हिस्से की घाटियों में पानी की जमने के कारण हुआ है।
  • बलुआ पत्थर इसी चट्टानों के सबसे अच्छा उदाहरण है, जिनका निर्माण छिछले सागरो में जल की निक्षेपों के कारण ही निर्माण हुआ है।
  • इसके अलावा विन्ध्यन क्रम की चट्टानों से संगमरमर, बालू का पत्थर, डोलामाइट तथा चुना का पत्थर भी प्राप्त होते है।
  • विंध्यन की चट्टानों का नामकरण विंध्याचल श्रेणी के नाम पर रखा गया है।
  • विन्ध्यन क्रम की चट्टानों को दो भागों में विभाजित किया गया है – ऊपरी विंध्यन चट्टानें और दूसरा है निचली विंध्यन चट्टानें।

ऊपरी विंध्यन चट्टानें

  • ऊपरी विंध्यन चट्टानें नदियों की घाटी में जल के जमने के कारण बनती है।
  • ऊपरी विंध्यन चट्टानें प्रायद्वीपीय भारत के साथ साथ, बाहरी प्रायद्वीपीय में भी पाया जाता है।
  • प्रायद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग के अरावली, तथा, उसके निकटवर्ती भागों में भी यह चट्टानें मिलती है। इसके साथ, नर्मदा के उत्तरी भागों के साथ साथ, प्रायद्वीपीय क्षेत्र के ओर भी कई जगह में भी यह चट्टानें पाई जाती है।
  • इन चट्टानों का विस्तार, पूर्वी बिहार के सासाराम एवं रोहतास क्षेत्र से लेकर, पश्चिम में राजस्थान के चित्तौड़गढ़ क्षेत्र तक है।
  • उत्तर में ये चट्टानें  आगरा से लेकर दक्षिण में, होशंगाबाद तक यह चट्टानें फैली हुई हैं।
  • इसी चट्टानों से गोलकुण्डा में हीरा एवं पन्ना भी मिलते हैं।
  • इस चट्टानों से कई प्रकार के खनिज जैसे – निकल, तांबा, बलुआ पत्थर, कोयला, चूना पत्थर प्राप्त होते है।

निचली विंध्यन चट्टानें

  • निचली विंध्यन चट्टानें उन जमाट जल के कारण बनते है, जहा पर समुद्र एवं नदी की काफी मोटी परत जमी हुई होती है।
  • निचली विंध्यन चट्टानों को अलग अलग क्षेत्रों में, अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जैसे, बिहार में सोन नदी की घाटी में, सेमरी श्रेणी के नाम से जाना जाता है। तथा राजस्थान के जोधपुर एवं चित्तौड़गढ़ में पलनी श्रेणी और आंध्र प्रदेश के दक्षिण पश्चिमी भाग में करनूल श्रेणी के नाम से जाना जाता है। 
  • गोदावरी घाटी के ऊपरी हिस्से के साथ साथ, नर्मदा घाटी के उत्तर में मालवा एवं बुंदेलखण्ड में भी इन चट्टानों की विभिन्न श्रेणियां देखने को मिलती है।
  • निचली विंध्यन चट्टानों से चूना-पत्थर एवं क्वार्टूजाइट आदि प्राप्त होते है।

गोंडवाना क्रम की चट्टानें | 350 मिलियन वर्ष पूर्व

विन्ध्य क्रम की चट्टानों के निर्माण के काफी दीर्घ समय तक कोई विशेष विवर्तनिक हलचल नहीं हुई। किंतु जब ऊपरी कार्बनीफेरस काल में विश्वव्यापी सरसीनियन हलचल हुई तब संकरी घाटियों में नदी द्वारा एकत्र होने वाले पदार्थों द्वारा इन चट्टानों का निर्माण हुआ।

प्रायद्वीपीय भारत और बाह्य प्रायद्वीपीय भारत में इनका विस्तार इस प्रकार है- प्रायद्वीपीय भारत में दामोदर नदी की घाटी में ये चट्टानें राजमहल पहाड़ियों तक विस्तृत हैं, महानदी की घाटी में महानदी श्रेणी, गोदावरी तथा वानगंगा एवं वर्धा नदी की घाटियों में, नागपुर तक दक्कन के मुख्य पठारी भाग में, कच्छ, काठियावाड़, पश्चिमी राजस्थान, चेन्नई, कटक, विजयवाड़ा, राजमुंदरी, तिरुचिरापल्ली और रामनाथपुरम में मिलती हैं। इस प्रकार यह चट्टान मुख्य रूप से बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में पाई जाती है।

बाह्य प्रायद्वीपीय क्षेत्रों में चट्टानों का विस्तार अधिक स्पष्ट नहीं है। कश्मीर, सिक्किम, दार्जिलिंग और असम में इस प्रकार की चट्टानें पाई जाती हैं। भारत के अलावा इसके निकटवर्ती प्रदेशों में भी ये चट्टानें मिलती हैं, यथा- नेपाल, पाकिस्तान, भूटान, अफगानिस्तान, आदि। बाह्य प्रायद्वीपीय चट्टानें प्रायद्वीपीय चट्टानों से काफी भिन्न हैं।

आर्थिक महत्व की दृष्टि से ये चट्टानें काफी उपयोगी हैं। भारत का 98 प्रतिशत कोयला केवल इन्हीं चट्टानों में पाया जाता है। गोण्डवाना चट्टान से प्राप्त बलुआ पत्थर इमारतों के निर्माण के काम आता है। इसके अलावा चीका मिट्टी, लिग्नाइट कोयला, सीमेंट और रासायनिक उर्वरक आदि कई खनिज पदार्थ इन चट्टानों से प्राप्त होते हैं।

गोंडवाना क्रम की चट्टानों के महत्वपूर्ण तथ्य

  • विंध्यन चट्टानों के निर्माण के कई वर्ष बाद जब ऊपरी कार्बनीफेरस युग से जुरैसिक युग के बीच में दुनिया भर में जब सरसीनियन हलचल हुई तब संकीर्ण घाटियों में नदी द्वारा एकत्र होने वाले पदार्थों के जमने के कारण गोंडवाना क्रम की चट्टानों का गठन निर्माण हुआ।
  • विन्ध्यन चट्टानों में 95% कोयला संचित होने के कारण इसे कोयलाधारी चट्टानें भी कहा जाता है।
  • यह परतदार चट्टानें होने के कारण इसमें रेंगने वाले जीवों के अवशेष भी मिलते है।
  • प्रायद्वीपीय भारत में गोंडवाना की चट्टानें कटक, विजयवाड़ा, काठियावाड़, मध्य प्रदेश, पश्चिमी राजस्थान और, महाराष्ट्र आदि क्षेत्रों में भी पाई जाती है। 
  • बाहरी प्रायद्वीपीय में भी यह चट्टानों का कुछ कुछ भाग पाया जाता है, जैसे – असम, दार्जिलिंग, सिक्किम और कश्मीर में भी इस प्रकार की चट्टानों का अंश देखने को मिलते है।
  • गोंडवाना क्रम की चट्टानों से बलुआ पत्थर, चीका मिट्टी और चुना पत्थर जैसे खनिज पदार्थ प्राप्त होते है।

दक्कनट्रैप | 100 मिलियन वर्ष पूर्व

मीसोजोइक युग के अंतिम काल में प्रायद्वीपीय भारत में ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था, जिसके उद्गार से लावा उत्पन्न हुआ तथा इसने दक्कन के पठार की आकृति को जन्म दिया। यह प्रायद्वीप भारत में 5 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्र तक फैला हुआ है।

दक्कन ट्रैप्स की चट्टानें काफी सख्त हैं किंतु दीर्घकाल से इनका कटाव होता रहा है तथा इस कटाव से जो चूर्ण बना उससे काली मिट्टी का निर्माण हुआ। इस मिट्टी को रेगुर अथवा कपासी मिट्टी भी कहते हैं। इसी ट्रेप से लेटराइट मिट्टी का निर्माण हुआ है, जिसे बनाने में मानसूनी जलवायु का योगदान है। इसमें लोहा, मैगनीज और एल्यूमिना आदि के अंश मिलते हैं। दक्कन ट्रेप में बेसॉल्ट व डोलोरॉइट 2.9 के आपेक्षिक घनत्व के अनुसार पाये जाते हैं। खनिजीय विशेषताओं के साथ-साथ दक्कन ट्रेप में रासायनिक विशेषताओं में भी एकरूपता पाई जाती है। इनमें सिलिका की मात्रा 50 प्रतिशत होती है तथा लोहा, कैल्शियम और मैग्नीशियम भी काफी मात्रा में मिले होते हैं।

दक्कन ट्रेप का विस्तार भारत के विभिन्न क्षेत्रों में है, परंतु मुख्य रूप से यह महाराष्ट्र के अधिकांश भागों को घेरती है। इसके अतिरिक्त यह गुजरात, मध्य भारत और बिहार तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में भी फैली हुई है। भूगर्भ वेत्ताओं द्वारा अनुमान लगाया गया है कि वर्तमान महाराष्ट्र तट के पश्चिम में कुछ दूर तक अरब सागर में दक्कन ट्रेप फैली थी, पर इस भाग में दरार आ गयी और यह समुद्र में डूब गई। इन दोनों तथ्यों की पुष्टि इस आधार पर की गई है कि पश्चिमी तट के महाद्वीपीय जलमग्न तट की सीधी व खड़ी ढाल है और ट्रेप की चौड़ाई 2,134 मीटर तक है।

दक्कन ट्रेप चट्टानें उत्तम  किस्म के पत्थर प्रदान करती हैं, जिसे भवन व् सड़क निर्माण के कार्य में प्रयुक्त किया जाता है। महाराष्ट्र के समीप कुछ हल्के रंग की ट्रेचिरिक चट्टानें मिलती हैं, जिनमें पाइरॉइट और केलसारॉइट का कुछ अंश प्राप्त होता है। खंभात और रत्नगिरि से माणिक, अगेट आदि रत्न प्राप्त होते हैं। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार में बॉक्साइट के जमाव भी मिलते हैं, जिसका उपयोग एल्युमीनियम अयस्क के रूप में और पेट्रोल शोधन के लिए किया जाता है।

दक्कनट्रैप की चट्टानों के महत्वपूर्ण तथ्य

  • दक्कन ट्रैप की चट्टानें काफी सख्त होती हैं।
  • यह चट्टानें 100 मिलियन वर्ष से भी पुरानी चट्टानें है।
  • दक्कनट्रैप की चट्टानों का निर्माण मीसोजोइक महाकल्प के क्रिटेशियस कल्प में हुआ था। उस समय प्रायद्वीपीय भारत में भी ज्वालामुखी विस्फोट हुआ था, जिसके कारण ज्वालामुखी के फटने से लावा का वृहद उदगार हुआ और लगभग 5 लाख किलोमीटर के क्षेत्र तक यह लावा फैल गया। जिसके कारन दक्कन की पठार की आकृति का भी जन्म हुआ।
  • इन चट्टानों से काली मिट्टी का भी निर्माण हुआ है। इसीलिए इस मिट्टी को रेंगुर तथा कपासी मिट्टी भी कहा जाता हैं।
  • इस मिट्टी में खनिजीय विशेषताओं के साथ-साथ, रासायनिक विशेषताओं भी पाई जाती है।
  • दक्कन ट्रैप की चट्टानें मुख्य रूप से महाराष्ट्र के अधिकांश भागों में पाई जाती है।
  • इन चट्टानों के कुछ भाग मध्य भारत और बिहार के साथ साथ गुजरात और तमिलनाडु के कुछ हिस्से में भी देखने को मिलते है।
  • इन चट्टानों में एल्यूमिना, लोहा तथा मैगनीज जैसे खनिजों का भी अंश मिलता हैं।
  • इन चट्टानों में सिलिका की मात्रा 50% होने के कारण इसमें से मैग्नीशियम, लोहा और कैल्शियम भी काफी मात्रा में पाया जाता है।
  • दक्कन ट्रैप की चट्टानों के पत्थर उत्तम किस्म के होते है जिनको सड़क तथा भवन बनाने की कार्य में लगाया जाता है।

टरशियरी समूह

इस समूह की चट्टानों का निर्माण काल इयोसीन युग से लेकर प्लायोसीन युग तक माना जाता है। भारत के लिए इस युग का महत्व इसलिए भी अत्यधिक है, क्योंकि इस समय भारत ने अपने वर्तमान रूप को धारण किया था। इसके अलावा टरशियरी महाकल्प ने भारत को दो भौतिक प्रदेश भी प्रदान किए- 

  • प्रायद्वीपीय पठार
  • हिमालय पर्वत

इस महाकल्प ने भारत की चट्टानों और वनस्पतियों में भी काफी परिवर्तन किए। टरशियरी चट्टानें मुख्य रूप से भारत के बाह्य प्रायद्वीपीय भाग में पाई जाती हैं। भारत के अतिरिक्त यह पाकिस्तान में बलूचिस्तान के मकरान तट से लेकर सुलेमान-किरथर श्रेणी तक, हिमालय पर्वत श्रेणी से होती हुई बर्मा के अराकान योमा पर्वत श्रेणी तक फैली है। प्रायद्वीपीय भारत में इनका विस्तार केवल तटीय क्षेत्रों में ही है। टरशियरी कल्प की चट्टानों को क्रमशः तीन भागों में बांटा जा सकता है-

  1. इयोसीन क्रम की चट्टानें,
  2. ओलिगोसीन एवं निम्नवर्ती मायोसीन क्रम की चट्टानें, तथा;
  3. मायो-प्लायोसीन क्रम की चट्टानें।

टरशियरी कल्प की इन सभी चट्टानों से विभिन्न प्रकार के खनिज पदार्थ मिलते हैं। बलुआ पत्थर, चीका, लाल व पीला गेरू आदि इन चट्टानों से प्राप्त होते हैं। इयोसीन क्रम की चट्टानों के मध्यवर्ती भागों में पेट्रोल के भंडार भी पाए जाते हैं।

हिमालय की उत्पत्ति

इयोसीन युग और प्लायोसीन युग की अवधि के बीच टेथिस सागर का तल उथला हो गया और इसके बेसिन पर पर्वत के निर्माण की हलचल होने लगी। इन आंतरिक हलचलों के परिणामस्वरूप हिमालय पर्वत की उत्पत्ति हुई। हिमालय पर्वत के अतिरिक्त अन्य कई पर्वतों की उत्पत्ति भी इसी हलचल के परिणामस्वरूप हुई, वे हैं- कॉकेशस, ईरानियन, कॉरपेथियन, पिरेनीज और आल्प्स।

हिमालय के उत्थान में पांच कालों का योगदान माना जा सकता है। इनमें से प्रथम काल ऊपरी क्रिटेशियस है और दूसरा ऊपरी इयोसीन। इन कालों में नारी, गज और मुर्री का जमाव देखा जा सकता है। हिमालय का तीसरा उत्थान मध्य मायोसीन काल में देखने को मिलता है। इस काल में टेथिस सागर के अवशेष पूर्ण रूप से विलुप्त हो गए और हिमालय के दक्षिण में एक छोटी-सी खाड़ी की उत्पत्ति हुई।

इस खाड़ी में नदियों द्वारा निक्षेप एकत्रित किया गया और यही निक्षेप प्लायोसीन काल के अंत में ऊपर उठे जिनसे शिवालिक पहाड़ियों का निर्माण हुआ। यह हिमालय का चौथा उत्थान था। हिमालय का अंतिम एवं पांचवां उत्थान प्लीस्टोसीन काल के अंत में हुआ, जिसके परिणामस्वरूप पीर पंजाल पर्वत श्रेणी का उत्थान तथा कश्मीर घाटी का निर्माण हुआ। हैं।

सभी प्रारंभिक टरशियरी चट्टानें समुद्री चट्टानें हैं, जिनमें, उथले और गहरे जल निक्षेप शामिल हैं। उत्तर-पश्चिम में स्थित इयोसीन चट्टानें समुद्री चट्टानें हैं और मुर्री चट्टानें नदी सागर के मिलन स्थल पर निर्मित चट्टानें हैं तथा शिवालिक चट्टानें नदीय चट्टानें हैं।

टरशियरी समूह की चट्टानों के महत्वपूर्ण तथ्य

  • टर्शियरी कल्प (Epoh) को कालक्रम के अनुसार चार भागों में बांटा जाता है-
    • इओसीन
    • ओलिगोसीन
    • मायोसीन
    • प्लायोसीन 
  • इन चट्टानों का निर्माण इओसीन से लेकर प्लायोसीन काल के दौरान हुआ था।
  • इस कल्प के दौरान हिमालय का निर्माण निम्नलिखित क्रम से हुआ है –
    • वृहत हिमालय का निर्माण ओलिगोसीन काल के दौरान हुआ था।
    • लघु या मध्य हिमालय का निर्माण मायोसीन काल के दौरान हुआ था।
    • शिवालिक हिमालय का निर्माण प्लायोसीन काल के दौरान हुआ था।
  • असम, गुजरात व राजस्थान से मिलने वाला खनिज तेल इओसीन और ओलिगोसीन काल की चट्टानों से ही प्राप्त होता है।

क्वाटरनरी समूह

इस समूह की चट्टानों को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है-

  1. प्लीस्टोसीन क्रम की चट्टानें
  2. वर्तमान क्रम की चट्टानें
प्लीस्टोसीन क्रम की चट्टानें

इस काल में पृथ्वी के कुछ हिस्सों में हिमनदों का विस्तार हुआ था जिससे तापमान में स्वाभाविक गिरावट आई व इसका पशु जीवन व वनस्पति पर प्रभाव पड़ा। इस दौरान हिमालय पर हिमानियों का विस्तार काफी निचले स्तर तक हो गया था। इन हिमानियों से कुछ क्षेत्रों में जल प्रवाहित होने से झीलों का निर्माण हुआ।

कश्मीर घाटी का निर्माण प्लीस्टोसीन काल में हुआ था। कश्मीर घाटी में कोरेवां नाम का एक विशाल सरोवर था। इस सरोवर में जिन चट्टानों का निर्माण हुआ, उन्हें कोरेवां राशि कहा गया। यह राशि झेलम की घाटी और पीर पंजाल के किनारे पर चपटे उतलों का निर्माण करती है। ये चपटे उत्तल श्रीनगर और गुलमर्ग के बीच पाये जाते हैं। इस राशि में बालू, दोमट एवं चीका मिट्टी और गोलाश्म प्राप्त होते हैं।

कोरेवां चट्टानों का फैलाव लगभग 7,500 वर्ग कि. मी. तक है। यह चट्टानें मुख्यतया अनुप्रस्थ दशा में फैलती है। ऊपरी परतें, निचली परतों की अपेक्षा अधिक मोटी है। इनकी चौड़ाई लगभग 1,600 मी. तक होती है। इन चट्टानों में लिग्नाइट कोयले के भण्डार मिलते हैं। यह चट्टानें कश्मीर घाटी के दक्षिणी किनारे पर पीर पंजाल पर्वतों के रूप में मुड़ गई हैं।

पीर पंजाल पर्वत में भी इसकी चौड़ाई 1,600 मीटर तक दिखाई देती है। इन साक्ष्यों से यह स्पष्ट होता है कि इन पर्वतों का निर्माण कश्मीर घाटी के अवसाद जमा होने के बाद ही हुआ है। इन अवसादों के विषय में यह माना जाता है कि एक बड़ी झील में इनका जमाव हुआ। यह झील उत्तर में हिमालय श्रेणी और दक्षिण में फैली किसी श्रेणी के बीच स्थित थी, जो श्रेणी बाद में पीर पंजाल पर्वत श्रेणी बनी।

ओडीशा तट पर चिल्का झील का निर्माण महानदी द्वारा बहाकर लाये गये अवसादों के निक्षेप से ही हुआ है। गुजरात स्थित कच्छ का रन एक ऐसा प्रदेश है, जो प्लीस्टोसीन काल में समुद्र का भाग था, परंतु अब यह प्लीस्टोसीन तथा आधुनिक काल के अवसादों से भर चुका है। पश्चिमी राजस्थान स्थित थार मरुस्थल से भी प्लीस्टोसीन काल के जमाव के प्रमाण मिलते हैं।

कोरेवां चट्टानें नदीय और सरोवरीय प्रकार की चट्टानें हैं। निचले कोरेवां चट्टानों से चीड़, ओक, बीच, हांली, दलचीनी आदि के अवशेष पाए जाते हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है की उस समय की जलवायु शीतोष्ण थी। खाद्य पदार्थ और पेड़-पौधों के अतिरिक्त जीव-जंतुओं का भी अस्तित्व मिलता है, यथा-मछलियां, सीप तथा अन्य स्तनपायी जीव। प्रायद्वीप के तटीय भागों में बालू मिलती है, जिसमें उत्तरार्द्ध प्लीस्टोसीन और आधुनिक काल के मोलस्क सीप पाये जाते हैं। ऐसे जमाव मुख्य रूप से ओडीशा, तमिलनाडु और गुजरात में ही मिलते हैं।

वर्तमान क्रम की चट्टानें

इस क्रम की चट्टानों की निर्माण-प्रक्रिया आज भी जारी है। वर्तमान में तटीय बालिका-स्तूप, नदियों के मुहानों का निर्माण आदि कई प्रक्रियाएं कार्यशील हैं। ताप्ती, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, महानदी और पेरियार नदियों ने अपने-अपने मुहानों पर कांप का विशाल निक्षेप एकत्रित कर लिया है और बंगाल की खाड़ी के तटीय भागों पर बालुका-स्तूप का जमाव हो गया है। ऐसी और कई प्रक्रियाएं जारी हैं।

इस प्रकार, संक्षिप्त में ऐसा कहा जा सकता है कि भारत का प्रायद्वीप भाग प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक की विभिन्न चट्टानों से भरा-पड़ा है। यहां पर कई ऐसी चट्टानें भी मौजूद हैं जो अपना मूल रूप बदल चुकी हैं, अर्थात्, वह इतनी प्राचीन हो गयी हैं कि उनका वास्तविक रूप ही परिवर्तित हो गया है।

क्वाटरनरी समूह की चट्टानों के महत्वपूर्ण तथ्य

  • ये चट्टानें गंगा एवं सिंधु के मैदान में पायी जाती है।
  • क्वार्टनरी युग को कालक्रम के अनुसार निम्नलिखित दो भागों में बांटा जाता है- प्लीस्टोसीन एवं होलोसीन काल।
  • ऊपरी एवं मध्य प्लीस्टोसीन काल में पुरानी जलोढ़ मृदा का निर्माण हुआ था, जिसे आज ‘बांगर’ नाम से जाना जाता है।
  • प्लीस्टोसीन के अन्तिम समय से लेकर होलोसीन तक जिस नवीन जलोढ़ मृदा का निर्माण जारी रहा, उसे ‘खादर’ कहा जाता है।
  • कश्मीर की घाटी का निर्माण प्लीस्टोसीन काल में ही हुआ था। कश्मीर की घाटी प्रारम्भ में एक झील थी, लेकिन इसमें लगातार मलबे के निक्षेपित होते रहने से यह घाटी रूप में बदल गयी, जिसे ‘करेवा’ कहा जाता है।
  • प्लीस्टोसीन काल के निक्षेपण थार मरुस्थल में भी पाये जाते हैं।
  • ‘कच्छ का रन’ पूर्व में समुद्र का भाग था, लेकिन प्लीस्टोसीन व होलोसीन काल के दौरान यह अवसादी निक्षेपों से भर गया।

संरचना के आधार पर चट्टानों का वर्गीकरण

संरचना के आधार पर चट्टानों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया है –

  1. आग्नेय चट्टान
  2. अवसादी चट्टान
  3. रूपांतरित चट्टान

आग्नेय चट्टानें

इन्हें प्राथमिक चट्टान भी कहते हैं क्योंकि अन्य प्रकार की चट्टानों का निर्माण इन्हीं से हुआ है। सभी चट्टानों का मूल पदार्थ एक समय गर्म व चिपचिपी अवस्था में था, जिसे मैग्मा कहते हैं। यह भू-गर्भीय भाप द्वारा प्रेरित होकर 60 से 100 कि.मी. की गहराई से दरारों से होता हुआ प्रायः धरातल की ओर बढ़ता है। यह या तो अंदर ही अंदर ठोस रूप धारण करता है या धरातल के ऊपर पहुंचकर ठोस बनता है। जब मैग्मा कठोर रूप धारण करता है तो उसे आग्नेय चट्टान कहते हैं।

आग्नेय चट्टानों की विशेषताएं

आग्नेय चट्टानें कठोर, रवेदार, परतहीन तथा जीवावशेष रहित होती हैं। पानी का प्रवेश कम होने से इनमें रासायनिक अपक्षय की क्रिया बहुत ही कम होती है। इन चट्टानों में संधियां पायी जाती हैं। इनका वितरण ज्वालामुखी क्षेत्रों में अधिक होता है।

अवसादी चट्टानें

अपरदन के कारण जब चट्टानें टूटकर टुकड़ों में बिखर जाती हैं और फिर छोटे कणों में बदल जाती हैं तो अवसादी चट्टानों का निर्माण होता है। बालू, मिट्टी, बजरी तथा रोड़ी अवसाद के ही रूप हैं। पौधों और जानवरों के अवशेषों से उत्पन्न जैव-पदार्थ भी अवसादी चट्टानों का निर्माण करते हैं।

अवसादी चट्टानों की विशेषताएं

भूपृष्ठ के 75 प्रतिशत भाग में विस्तृत अवसादी चट्टानें परतदार, संधियुक्त तथा जीवावशेषों से परिपूर्ण होती है। ये संगठित, असंगठित या ढीली किसी भी प्रकार की हो सकती हैं। इनमें अपरदन का प्रभाव शीघ्र होता है।

रूपांतरित चट्टानें (कायांतरित चट्टानें)

जब अधिक दाब व ताप से चट्टानों के मूल लक्षण के मूल लक्षण में आंशिक अथवा पूर्ण परिवर्तन होता है उन्हें रूपांतरित चट्टानें कहते हैं। इस प्रकार की चट्टानों का निर्माण भी प्रायः उन्हीं परिस्थितियों में होता है जिनमें आग्नेय चट्टानों का निर्माण होता है।

रूपांतरित चट्टानों की विशेषताएं

इनमें ग्रेनाइट से नीस, चूना-पत्थर से संगमरमर तथा गेब्रो से सरपेन्टाइन का निर्माण होता है। इन चट्टानों में खनिज लगभग समानांतर पतों में व्यवस्थित होते हैं।


इन्हें भी देखें –

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