पर्यावरणीय अर्थशास्त्र की अवधारणा | Concept of Environmental Economics

21वीं सदी में मानव समाज अनेक जटिल संकटों का सामना कर रहा है, जिनमें सबसे गंभीर संकटों में से एक है – पर्यावरण संकट। पर्यावरणीय गिरावट, जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई, प्रदूषण, जैव विविधता का विनाश और प्राकृतिक संसाधनों की अत्यधिक दोहन जैसी समस्याएँ केवल पारिस्थितिकी तक सीमित नहीं रह गई हैं, बल्कि अब उन्होंने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में भी गहरी पैठ बना ली है। इन जटिल चुनौतियों से निपटने के लिए अब केवल पारंपरिक अर्थशास्त्र पर्याप्त नहीं रहा। इसी संदर्भ में पर्यावरणीय अर्थशास्त्र का उदय हुआ, जिसने आर्थिक विकास और पर्यावरणीय संरक्षण के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया।

पर्यावरण और अर्थव्यवस्था का अंतर्संबंध

प्रकृति और अर्थव्यवस्था एक-दूसरे से अत्यंत गहराई से जुड़े हुए हैं। पर्यावरण न केवल जीवन को आधार देता है, बल्कि यह आर्थिक गतिविधियों के लिए भी आवश्यक संसाधन प्रदान करता है – जैसे जल, वायु, खनिज, भूमि, वन, मछली आदि। दूसरी ओर, मनुष्य की आर्थिक क्रियाएं – जैसे उत्पादन, उपभोग, परिवहन, उद्योग और व्यापार – पर्यावरण को गहराई से प्रभावित करती हैं। प्रदूषण, संसाधनों का अत्यधिक दोहन, जैव विविधता में गिरावट, और पारिस्थितिकी तंत्र में असंतुलन – ये सभी आर्थिक गतिविधियों की उपज हैं।

अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि आर्थिक विकास यदि असंतुलित और एकपक्षीय हो, तो वह पर्यावरणीय क्षरण का मुख्य कारण बन सकता है।

पर्यावरणीय गिरावट के कारण

आज दुनिया भर में जो पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हो रहे हैं, उनके मूल में कुछ विशिष्ट आर्थिक कारण हैं:

  1. औद्योगिकीकरण: उद्योगों ने जल, वायु और भूमि को प्रदूषित किया है। रासायनिक कचरे, कार्बन उत्सर्जन, और भारी ध्वनि प्रदूषण से वातावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
  2. शहरीकरण: तीव्र गति से बढ़ते शहरों ने कृषि भूमि और जंगलों को निगल लिया है। इससे प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा है।
  3. जनसंख्या वृद्धि: बढ़ती जनसंख्या संसाधनों पर अत्यधिक दबाव डालती है जिससे जल, ऊर्जा, भूमि और खाद्यान्न की माँग अत्यधिक बढ़ जाती है।
  4. प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन: वनों की कटाई, खनिजों का अत्यधिक खनन, और मत्स्य संसाधनों का अत्यधिक शोषण पारिस्थितिकी तंत्र को अस्थिर बनाता है।
  5. वाहनों और परिवहन का विस्तार: यह वायु प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन का बड़ा स्रोत बन चुका है।

इन समस्याओं से स्पष्ट होता है कि आर्थिक गतिविधियाँ केवल लाभ और उत्पादकता तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनके गंभीर सामाजिक और पर्यावरणीय परिणाम भी होते हैं।

पर्यावरणीय समस्याएं और वैश्विक चिंता

विश्व के विभिन्न देशों में जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि, और पारिस्थितिक असंतुलन जैसी समस्याओं ने एक वैश्विक चिंता को जन्म दिया है। यही कारण है कि 1987 में ब्रुंटलैंड आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट “हमारा साझा भविष्य” (Our Common Future) में ‘सतत विकास’ (Sustainable Development) की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया, जिसमें वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भविष्य की पीढ़ियों के अधिकारों की रक्षा करने की बात कही गई।

इसके बाद, 1992 का पृथ्वी शिखर सम्मेलन (Earth Summit, Rio de Janeiro), 1997 का क्योटो प्रोटोकॉल, और 2015 का पेरिस समझौता जैसे वैश्विक प्रयासों के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया कि आर्थिक विकास और पर्यावरणीय संतुलन के बीच सामंजस्य बनाए बिना मानवता की दीर्घकालीन सुरक्षा संभव नहीं है।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र की उत्पत्ति

इन वैश्विक चिंताओं और आंदोलनों के चलते ही एक नई आर्थिक उपशाखा का जन्म हुआ, जिसे पर्यावरणीय अर्थशास्त्र कहा गया। यह पारंपरिक अर्थशास्त्र की उन सीमाओं को संबोधित करता है जहाँ पर्यावरणीय कारकों की उपेक्षा की जाती थी।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र इस बात का अध्ययन करता है कि:

  • आर्थिक गतिविधियों का पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है?
  • पर्यावरणीय क्षरण का समाज और अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव होता है?
  • ऐसे कौन-से आर्थिक उपकरण और नीतियाँ हैं जो पर्यावरणीय समस्याओं का समाधान कर सकती हैं?

इस उपशाखा ने प्रदूषण नियंत्रण, संसाधनों के कुशल उपयोग, प्रदूषण की लागत और पर्यावरणीय लाभों की गणना, बाह्यताओं (externalities), सार्वजनिक वस्तुएँ (public goods), और बाज़ार विफलताओं (market failures) जैसे विषयों पर ध्यान केंद्रित किया है।

मुख्य अवधारणाएँ

1. बाह्यता (Externalities)

जब किसी आर्थिक क्रिया के परिणामस्वरूप ऐसे प्रभाव उत्पन्न होते हैं जिनका लाभ या हानि अन्य व्यक्तियों या समाज को होता है, परंतु इनका कोई मूल्य भुगतान नहीं किया जाता, तो इन्हें बाह्यता कहा जाता है। उदाहरण के लिए, एक उद्योग द्वारा किए गए प्रदूषण से आस-पास के लोगों के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है, परंतु उद्योग इसकी कोई कीमत नहीं चुकाता।

2. सार्वजनिक वस्तुएँ (Public Goods)

स्वच्छ हवा, जलवायु संतुलन, जैव विविधता आदि ऐसी वस्तुएँ हैं जिनका उपभोग सभी करते हैं और जिनसे किसी को वंचित नहीं किया जा सकता। इनका मूल्य निर्धारण और प्रबंधन बाजार के माध्यम से नहीं हो पाता।

3. बाजार की विफलता (Market Failure)

जब बाजार किसी वस्तु या सेवा के मूल्य का सही निर्धारण करने में विफल हो जाता है और सामाजिक लागत एवं लाभ को नज़रअंदाज़ करता है, तो यह बाजार की विफलता कहलाती है। पर्यावरणीय समस्याएं प्रायः ऐसी विफलताओं का परिणाम होती हैं।

4. प्रोत्साहन एवं दंड (Incentives and Penalties)

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र यह सुझाव देता है कि सरकारें प्रदूषण फैलाने वालों को दंडित करें और पर्यावरण के अनुकूल व्यवहार करने वालों को प्रोत्साहित करें। जैसे – कार्बन टैक्स, प्रदूषण परमिट, हरित अनुदान (Green Subsidies) आदि।

5. लागत-लाभ विश्लेषण (Cost-Benefit Analysis)

किसी भी पर्यावरणीय योजना की प्रभावशीलता और सार्थकता का मूल्यांकन इसके लागत और लाभ के तुलनात्मक अध्ययन के माध्यम से किया जाता है।

प्राकृतिक संसाधन अर्थशास्त्र और पर्यावरणीय अर्थशास्त्र

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र को एक अन्य उपशाखा प्राकृतिक संसाधन अर्थशास्त्र (Natural Resource Economics) से जोड़ा जाता है। जहाँ प्राकृतिक संसाधन अर्थशास्त्र मुख्यतः संसाधनों के दोहन, संरक्षण और पुनः पूर्ति के आर्थिक पक्षों का अध्ययन करता है, वहीं पर्यावरणीय अर्थशास्त्र पर्यावरणीय क्षरण, प्रदूषण, बाह्यता और नीति निर्धारण पर केन्द्रित होता है।

उदाहरण के लिए:

  • वन संसाधन: इनका अत्यधिक कटाव पारिस्थितिकी को नष्ट करता है। पर्यावरणीय अर्थशास्त्र इनसे होने वाली हानियों का आर्थिक मूल्यांकन करता है और संरक्षण की रणनीतियाँ सुझाता है।
  • खनिज संसाधन: ये सीमित हैं और इनका दोहन पुनः पूर्ति की तुलना में कहीं अधिक तेजी से हो रहा है। संसाधन अर्थशास्त्र इनके सतत उपयोग की नीति बनाता है।

भारत में पर्यावरणीय अर्थशास्त्र

भारत जैसे विकासशील देशों में आर्थिक विकास की तीव्र गति ने पर्यावरणीय समस्याओं को और भी गंभीर बना दिया है। बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण, नगरीकरण, और कृषि विस्तार ने वनों, नदियों, और वायु की गुणवत्ता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।

सरकार ने इस दिशा में कई कदम उठाए हैं:

  • पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986
  • राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT)
  • क्लीन इंडिया मिशन, 2014
  • राष्ट्रीय जैवविविधता प्राधिकरण
  • प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड

इन सबके बावजूद, ज़रूरत इस बात की है कि पर्यावरणीय अर्थशास्त्र को नीति निर्माण में और अधिक गंभीरता से शामिल किया जाए।

पर्यावरणीय शिक्षा और जनजागरूकता

केवल सरकारी प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। नागरिकों, उद्योगों, शैक्षणिक संस्थाओं और स्वयंसेवी संगठनों को भी यह समझना होगा कि दीर्घकालीन आर्थिक लाभ केवल तब संभव है जब हम पर्यावरण का संरक्षण करें। पर्यावरणीय शिक्षा और जागरूकता अभियान इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

पर्यावरणीय अर्थशास्त्र न केवल एक नई अकादमिक शाखा है, बल्कि यह वर्तमान समय की आवश्यकता भी है। यह उस सोच को परिलक्षित करता है जिसमें आर्थिक विकास को पारिस्थितिक संतुलन के साथ जोड़ने की कोशिश की जाती है। आज यह आवश्यक है कि नीति निर्धारक, अर्थशास्त्री, उद्योगपति और आम जनता सभी मिलकर इस दिशा में कार्य करें ताकि संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण, पर्यावरण का संरक्षण, और सतत विकास संभव हो सके।

यदि हम आने वाली पीढ़ियों को एक सुरक्षित, स्वच्छ और समृद्ध जीवन देना चाहते हैं तो हमें पर्यावरणीय अर्थशास्त्र की अवधारणाओं को अपने जीवन और नीतियों में समाहित करना ही होगा।

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