चीन–पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) का काबुल तक विस्तार

दक्षिण एशिया का सामरिक भूगोल हमेशा से ही वैश्विक शक्तियों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत चल रही चीन–पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (China–Pakistan Economic Corridor – CPEC) परियोजना अब एक नए मोड़ पर पहुँच गई है। हाल ही में चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों की त्रिपक्षीय बैठक में यह सहमति बनी कि CPEC को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल तक विस्तारित किया जाएगा। इस कदम से न केवल अफगानिस्तान क्षेत्रीय आर्थिक नेटवर्क से जुड़ेगा, बल्कि मध्य एशिया, दक्षिण एशिया और पश्चिम एशिया की भू-राजनीतिक दिशा भी प्रभावित होगी।

इस आर्टिकल में हम विस्तार से देखेंगे कि CPEC का काबुल तक विस्तार किन आर्थिक, राजनीतिक और सुरक्षा आयामों को जन्म देता है, इसका चीन, पाकिस्तान और तालिबान प्रशासन के लिए क्या महत्व है, और सबसे अहम – भारत पर इसके क्या प्रभाव पड़ सकते हैं।

(China–Pakistan Economic Corridor – CPEC) का परिचय

चीन–पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC), चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का सबसे प्रमुख हिस्सा है। इसकी शुरुआत 2015 में हुई थी और इसका उद्देश्य पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को चीन के शिनजियांग प्रांत से जोड़ना है। इस गलियारे के माध्यम से चीन को अरब सागर तक सीधी पहुंच मिलती है, जबकि पाकिस्तान को आधारभूत संरचना, ऊर्जा और कनेक्टिविटी के क्षेत्र में बड़े निवेश का अवसर मिलता है।

CPEC की कुल अनुमानित लागत लगभग 62 अरब अमेरिकी डॉलर बताई जाती है। इसमें सड़कें, रेलवे, पाइपलाइन, ऊर्जा संयंत्र और विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZs) शामिल हैं। अब जब इसे अफगानिस्तान तक बढ़ाने की योजना बनाई गई है, तो यह परियोजना मध्य एशिया के लिए भी एक महत्वपूर्ण संपर्क मार्ग का काम कर सकती है।

काबुल तक विस्तार की पृष्ठभूमि

त्रिपक्षीय बैठक

हाल ही में चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के विदेश मंत्रियों की बैठक में तीन प्रमुख विषयों पर सहमति बनी:

  1. संपर्क और आर्थिक एकीकरण
    • CPEC को अफगानिस्तान तक विस्तार देना।
    • अफगानिस्तान–पाकिस्तान रेलवे परियोजनाओं को गति देना।
    • अफगानिस्तान के खनिज संसाधनों में चीनी निवेश को बढ़ावा देना।
  2. राजनीतिक और कूटनीतिक सामान्यीकरण
    • अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच राजनयिक प्रतिनिधित्व को मज़बूत करना।
    • तालिबान प्रशासन को, वैश्विक मान्यता न होने के बावजूद, चीन की BRI रूपरेखा में शामिल करना।
  3. सुरक्षा सहयोग
    • पाकिस्तान चाहता है कि तालिबान, पाकिस्तान में आतंक मचाने वाले TTP (Tehreek-e-Taliban Pakistan) पर सख्त कार्रवाई करे।
    • चीन चिंतित है कि ETIM (East Turkestan Islamic Movement) के लड़ाके अफगानिस्तान से चीन पर हमले कर सकते हैं।

चीन के लिए महत्व

  1. सुरक्षा और स्थिरता: चीन चाहता है कि अफगानिस्तान स्थिर रहे ताकि CPEC और BRI परियोजनाएँ सुरक्षित रह सकें।
  2. खनिज संसाधनों तक पहुँच: अफगानिस्तान दुनिया के सबसे बड़े लिथियम और रेयर-अर्थ मिनरल्स भंडारों में से एक है। चीन इलेक्ट्रिक वाहनों और हाई-टेक इंडस्ट्री के लिए इन संसाधनों तक पहुंच बनाने में बेहद दिलचस्पी रखता है।
  3. मध्य एशिया से संपर्क: अफगानिस्तान के जरिए चीन मध्य एशियाई गणराज्यों से सीधी कनेक्टिविटी बना सकता है।

पाकिस्तान के लिए महत्व

  1. TTP पर दबाव: पाकिस्तान लंबे समय से TTP के हमलों से जूझ रहा है। CPEC वार्ता के जरिए वह तालिबान पर दबाव बनाता है कि वे TTP पर लगाम लगाएँ।
  2. CPEC परियोजनाओं का पुनर्जीवन: पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था संकटग्रस्त है। ऐसे में CPEC का अफगानिस्तान तक विस्तार नए निवेश और बुनियादी ढांचे के लिए सहायक हो सकता है।
  3. मध्य एशिया का प्रवेश द्वार: पाकिस्तान खुद को मध्य एशियाई बाजारों से जोड़ने के लिए अफगानिस्तान को पुल की तरह इस्तेमाल करना चाहता है।

तालिबान प्रशासन के लिए महत्व

  1. राजनीतिक मान्यता: तालिबान सरकार को अभी तक अंतरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली है। चीन और पाकिस्तान के साथ इस तरह का सहयोग उन्हें अप्रत्यक्ष वैधता दिलाता है।
  2. आर्थिक निवेश: अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था बेहद कमजोर है। CPEC में शामिल होने से चीनी निवेश और रोजगार के अवसर बढ़ सकते हैं।
  3. अलगाव से मुक्ति: क्षेत्रीय जुड़ाव से तालिबान अंतरराष्ट्रीय अलगाव से निकलने की कोशिश करेगा।

भारत पर प्रभाव

भारत इस पूरे परिदृश्य को गहरी चिंता से देखता है। इसके कई कारण हैं:

1. CPEC का विरोध

भारत CPEC का विरोध करता रहा है क्योंकि यह पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) से होकर गुजरता है। अब अफगानिस्तान तक इसके विस्तार से पाकिस्तान और चीन की स्थिति और मजबूत होगी, जिससे भारत के क्षेत्रीय दावे कमजोर पड़ सकते हैं।

2. रणनीतिक हाशिए पर जाना

भारत ने अफगानिस्तान में बड़े पैमाने पर निवेश किया है – संसद भवन, अस्पताल, स्कूल, सड़कें, डैम और शिक्षा परियोजनाएँ। लेकिन चीन–पाकिस्तान–तालिबान का यह त्रिकोण भारत को पूरी तरह से अलग कर देता है।

3. सुरक्षा के खतरे

यदि तालिबान को बिना शर्त अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलती है, तो यह कट्टरपंथी समूहों को नई ताकत दे सकता है। अफगानिस्तान से संचालित आतंकी नेटवर्क भारत के खिलाफ सक्रिय हो सकते हैं।

4. कनेक्टिविटी की प्रतिस्पर्धा

चीन की पश्चिम की ओर कनेक्टिविटी पहल भारत की चाबहार पोर्ट परियोजना और अंतर्राष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा (INSTC) जैसी योजनाओं के लिए चुनौती बनती है।

क्षेत्रीय परिदृश्य और संभावित परिणाम

  1. नया शक्ति संतुलन: CPEC के विस्तार से दक्षिण एशिया और मध्य एशिया में चीन का प्रभाव और गहराएगा।
  2. अफगान खनिजों पर कब्ज़े की होड़: अमेरिका, रूस, ईरान और तुर्की जैसे देश भी अफगान खनिज संसाधनों में रुचि रखते हैं। चीन का तेज कदम उन्हें प्रतिस्पर्धा में पीछे छोड़ सकता है।
  3. भारत–ईरान सहयोग की अहमियत: इस स्थिति में भारत के लिए चाबहार पोर्ट और INSTC का महत्व और बढ़ जाता है।

भारत की रणनीतिक चुनौतियाँ और विकल्प

भारत के लिए यह जरूरी है कि वह अपनी कूटनीति और क्षेत्रीय नीतियों को नए सिरे से संतुलित करे। इसके लिए कुछ संभावित कदम हो सकते हैं:

  1. ईरान और मध्य एशिया से जुड़ाव बढ़ाना: चाबहार पोर्ट और INSTC को प्राथमिकता देनी होगी।
  2. अमेरिका और यूरोप के साथ साझेदारी: भारत को पश्चिमी शक्तियों के साथ मिलकर तालिबान को जिम्मेदार ठहराने की कोशिश करनी चाहिए।
  3. क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे: SCO (Shanghai Cooperation Organization) और BRICS जैसे मंचों का इस्तेमाल कर भारत को अपनी सुरक्षा चिंताओं को उठाना चाहिए।
  4. अफगान जनता के साथ संबंध: भारत को मानवीय सहायता, शिक्षा और स्वास्थ्य परियोजनाओं के जरिए अफगान जनता के साथ जुड़ाव बनाए रखना चाहिए।

निष्कर्ष

चीन–पाकिस्तान–अफगानिस्तान त्रिपक्षीय सहयोग और CPEC का काबुल तक विस्तार, दक्षिण एशिया की राजनीति और अर्थव्यवस्था के लिए दूरगामी परिणाम लेकर आएगा। यह कदम न केवल चीन और पाकिस्तान को लाभ पहुँचाता है, बल्कि तालिबान प्रशासन को भी अंतरराष्ट्रीय वैधता की ओर एक धक्का देता है।

भारत के लिए यह स्थिति चुनौतीपूर्ण है क्योंकि उसका अफगानिस्तान में निवेश और रणनीतिक प्रभाव कमजोर पड़ सकता है। साथ ही, क्षेत्रीय सुरक्षा जोखिम भी बढ़ सकते हैं। इसलिए भारत को अपनी कूटनीति को संतुलित रखते हुए वैकल्पिक कनेक्टिविटी और सुरक्षा ढांचे को मजबूत करना होगा।

अंततः, यह स्पष्ट है कि CPEC का काबुल तक विस्तार केवल एक आर्थिक परियोजना नहीं, बल्कि एक भू-राजनीतिक रणनीति है, जो दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के शक्ति संतुलन को पुनः परिभाषित करेगी।


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