प्राकृतिक संसाधन मानव जीवन के आधारस्तंभ हैं, जिनके बिना सभ्यता की कल्पना भी असंभव है। ये संसाधन पृथ्वी की गोद से उत्पन्न होते हैं और मानव की प्रत्येक आवश्यक गतिविधि—भोजन, वस्त्र, आवास, ऊर्जा, परिवहन से लेकर औद्योगीकरण तक—में सहायक होते हैं। इन संसाधनों की प्रकृति, उपयोगिता और संरक्षण की रणनीतियों को समझने के लिए इनका वर्गीकरण आवश्यक हो जाता है।
उत्पत्ति के आधार पर प्राकृतिक संसाधनों का वर्गीकरण—विज्ञान और पर्यावरण अध्ययन का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण पक्ष है, क्योंकि इससे यह स्पष्ट होता है कि कौन-से संसाधन जीवन-युक्त (जैविक) हैं और कौन-से निर्जीव (अजैविक)। इस वर्गीकरण से न केवल संसाधनों की विशेषताओं को समझा जा सकता है, बल्कि उनके सतत दोहन और प्रबंधन के लिए नीति निर्धारण में भी सहायता मिलती है।
यह लेख उत्पत्ति के आधार पर प्राकृतिक संसाधनों को दो प्रमुख वर्गों—अजैविक संसाधन और जैविक संसाधन—में बाँटकर उनकी परिभाषा, उदाहरण, विशेषताओं, आपसी संबंधों तथा सतत विकास में भूमिका का गहन विश्लेषण करता है। साथ ही यह यह भी स्पष्ट करता है कि कैसे संसाधनों की विवेकपूर्ण संरचना और उपयोग आज की सबसे बड़ी वैश्विक आवश्यकता बन चुकी है।
यह अध्ययन न केवल छात्रों, शिक्षकों और पर्यावरणविदों के लिए उपयोगी है, बल्कि नीति निर्माताओं और आम नागरिकों के लिए भी अत्यंत प्रासंगिक है, जो पृथ्वी के सीमित संसाधनों का जिम्मेदारीपूर्ण उपयोग करना चाहते हैं।
उत्पत्ति के आधार पर प्राकृतिक संसाधन
मानव सभ्यता का विकास प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों पर निर्भर रहा है। जल, वायु, मिट्टी, वन, खनिज, जीव-जंतु और ऊर्जा—ये सभी संसाधन न केवल हमारे जीवन का आधार हैं, बल्कि हमारे सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास के भी मूल स्तंभ हैं। इन संसाधनों की प्रकृति, संरचना और पुनर्नवीकरण की क्षमता के आधार पर इन्हें विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया गया है।
इनमें सबसे प्रमुख वर्गीकरण का आधार है — उत्पत्ति। उत्पत्ति के आधार पर प्राकृतिक संसाधनों को मुख्यतः दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है:
- अजैविक संसाधन (Abiotic Resources)
- जैविक संसाधन (Biotic Resources)
इन दोनों वर्गों में स्पष्ट अंतर होते हुए भी ये परस्पर जुड़े हुए हैं। यह लेख इन्हीं दोनों श्रेणियों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए उनके बीच के अंतर्संबंध, उपयोग, संरक्षण की आवश्यकता और प्रासंगिक उदाहरणों का विश्लेषण करेगा।
1. अजैविक संसाधन (Abiotic Resources)
परिभाषा और प्रकृति
अजैविक संसाधन वे प्राकृतिक संसाधन हैं जिनमें जीवन नहीं होता और न ही ये जैविक क्रियाओं में भाग लेते हैं। ये अकार्बनिक (Inorganic) प्रकृति के होते हैं और इनमें पुनरुत्पादन या नवीनीकरण की स्वाभाविक क्षमता नहीं होती।
इनकी उत्पत्ति भौतिक और रासायनिक प्रक्रियाओं से होती है, जो लाखों वर्षों में पृथ्वी की भूगर्भीय संरचना के अंतर्गत घटित होती हैं।
उदाहरण
- जल (Water)
- मिट्टी (Soil)
- खनिज (Minerals) — जैसे लोहा, तांबा, सोना, चाँदी, बॉक्साइट आदि।
- वायुमंडलीय गैसें
- सूर्य से प्राप्त ऊष्मा और प्रकाश (यद्यपि यह ऊर्जा स्वरूप है, पर अजैविक है)
विशेषताएँ
- नवीनीकरण की सीमित क्षमता:
इनमें से अधिकांश संसाधन जैसे खनिज और मिट्टी, पुनः उत्पन्न नहीं किए जा सकते। एक बार इनका दोहन हो जाने के बाद ये समाप्तप्राय हो जाते हैं। - स्थानिक असमानता:
अजैविक संसाधनों का वितरण धरातल पर असमान होता है। उदाहरण के लिए, भारत के झारखंड और छत्तीसगढ़ में लोहा भरपूर है जबकि राजस्थान में खनिज लवण। सोना और यूरेनियम जैसे संसाधन अत्यंत सीमित क्षेत्रों में पाए जाते हैं। - निर्धारित भंडार:
इन संसाधनों की मात्रा निश्चित होती है और इन्हें कृत्रिम रूप से नहीं बनाया जा सकता। जैसे, मनुष्य जल और मिट्टी का निर्माण नहीं कर सकता। - पर्यावरणीय निर्भरता:
इनका स्वरूप और उपयोग प्राकृतिक परिस्थितियों जैसे जलवायु, स्थलाकृति और भूगर्भीय संरचना पर निर्भर करता है।
सतत उपयोग की आवश्यकता
अजैविक संसाधनों के सीमित और समाप्त होने की प्रवृत्ति को देखते हुए इनका सतत एवं विवेकपूर्ण उपयोग आवश्यक हो जाता है। उदाहरणस्वरूप, खनिज संसाधनों का पुनः उपयोग (Recycling), वैकल्पिक संसाधनों की खोज और ऊर्जा दक्षता के उपायों को अपनाकर इनका संरक्षण किया जा सकता है।
2. जैविक संसाधन (Biotic Resources)
परिभाषा और प्रकृति
जैविक संसाधन वे संसाधन हैं जो जीवमंडल (Biosphere) में पाए जाते हैं और जिनमें जीवन होता है अथवा ये किसी समय जीवित रहे हैं। इन संसाधनों में जीवन चक्र होता है तथा इनका संबंध जैविक क्रियाओं से होता है।
इन संसाधनों का जन्म, विकास, प्रजनन और मृत्यु होती है और ये विभिन्न जैविक प्रक्रियाओं का हिस्सा बनते हैं।
उदाहरण
- वन और वनस्पति
- पशु और पक्षी
- मनुष्य
- जीवाश्म से उत्पन्न संसाधन – कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस
- सूक्ष्मजीव, कीट, प्लवक आदि
प्रमुख लक्षण
- जीवन क्रियाशीलता:
इन संसाधनों में जन्म, वृद्धि, प्रजनन और मरण जैसी विशेषताएँ होती हैं। इनमें जैविक ऊर्जा का संचार होता है। - कुछ नवीकरणीय, कुछ अ-नवीकरणीय:
वनस्पति और पशु संसाधनों को नियंत्रित तरीके से बढ़ाया जा सकता है (जैसे—वृक्षारोपण, पशुपालन), जबकि खनिज तेल और कोयला जैसे जीवाश्म संसाधन सीमित मात्रा में ही उपलब्ध होते हैं और लाखों वर्षों में बनते हैं, अतः अ-नवीकरणीय माने जाते हैं। - मानव क्रियाओं का प्रभाव:
वनों की कटाई, शिकार, प्रदूषण आदि के माध्यम से मनुष्य जैविक संसाधनों को घटा सकता है। वहीं वृक्षारोपण, संरक्षण, वन्यजीव सुरक्षा, मत्स्य पालन, जैविक खेती आदि क्रियाओं से इनकी मात्रा बढ़ा भी सकता है। - तकनीकी एवं वैज्ञानिक प्रगति का प्रभाव:
जैविक संसाधनों का उपयोग करने की दक्षता, उनकी वृद्धि तथा संरक्षण तकनीकी विकास पर निर्भर करता है। उदाहरणतः—जेनेटिक इंजीनियरिंग से कृषि उपज बढ़ाना।
विविधता और गतिशीलता
जैविक संसाधन अत्यधिक विविध होते हैं। प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र की जलवायु, स्थलाकृति, मृदा आदि के अनुसार विशिष्ट जैविक विविधता पाई जाती है। जैसे, हिमालयी क्षेत्र में चीड़ और देवदार जैसे पेड़ होते हैं, जबकि पश्चिमी भारत में बबूल और खेजड़ी।
ये संसाधन समय के साथ बदलते रहते हैं। पशुओं की संख्या, पेड़ों की घनता, पक्षियों की प्रवासीय प्रवृत्ति जैसी विशेषताएँ इनके गतिशील (Dynamic) होने का प्रमाण हैं।
अजैविक और जैविक संसाधनों के बीच तुलना
मापदंड | अजैविक संसाधन | जैविक संसाधन |
---|---|---|
जीवन की उपस्थिति | नहीं होती | होती है |
नवीनीकरण की क्षमता | बहुत सीमित या नहीं | कुछ में होती है |
उपयोग के बाद | समाप्त हो जाते हैं | कुछ पुनर्नवीकरणीय हैं |
मानव प्रभाव | सीमित | अधिक |
विविधता | सीमित | अत्यधिक |
निर्माण | प्राकृतिक प्रक्रियाओं से | जैविक प्रक्रियाओं से |
संरक्षण के उपाय | सीमित (जैसे रीसाइक्लिंग) | विविध (जैसे वृक्षारोपण, प्रजनन) |
भौतिक एवं जैविक संसाधनों में अंतर्संबंध
यद्यपि भौतिक और जैविक संसाधनों का वर्गीकरण अलग है, लेकिन वे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जैविक संसाधनों के लिए जल, मिट्टी और वायुमंडल जैसे अजैविक संसाधनों की आवश्यकता होती है। वनस्पतियाँ मिट्टी, जल और धूप के बिना जीवित नहीं रह सकतीं। इसी प्रकार, जैविक प्रक्रियाएँ (जैसे—पौधों का अपघटन) मृदा निर्माण में सहायक होती हैं।
इस प्रकार, संसाधनों की पारस्परिक निर्भरता पारिस्थितिक तंत्र (Ecosystem) की स्थिरता में प्रमुख भूमिका निभाती है।
संसाधन प्रबंधन और सतत विकास
प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक और असंतुलित दोहन पर्यावरणीय संकट को जन्म देता है। जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिकी तंत्र की क्षति, जैव विविधता में कमी जैसे गंभीर परिणाम सामने आ रहे हैं।
इसलिए, आज आवश्यकता है—सतत विकास (Sustainable Development) की, जिसमें संसाधनों का ऐसा उपयोग किया जाए कि वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके, लेकिन भविष्य की पीढ़ियाँ भी इनका लाभ उठा सकें।
कुछ प्रमुख उपाय:
- विकल्पों का विकास: जैसे—सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा जैसे विकल्पों का प्रयोग।
- पुनः उपयोग और पुनर्चक्रण (Recycling): विशेषकर धातुओं और जल संसाधनों का।
- वृक्षारोपण और वनों का संरक्षण
- जैविक खेती और परंपरागत ज्ञान का उपयोग
- शिक्षा और जन-जागरूकता
भारत में संसाधन नीति की दिशा
भारत सरकार ने समय-समय पर विभिन्न योजनाएँ और कानून बनाए हैं, जिनमें राष्ट्रीय वन नीति, जल संरक्षण अधिनियम, खनिज नीति, बायोडायवर्सिटी अधिनियम आदि उल्लेखनीय हैं। हाल के वर्षों में ‘लाइफ मिशन’ (LiFE – Lifestyle for Environment) जैसे अभियानों से भी संसाधनों के सतत उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है।
निष्कर्ष
उत्पत्ति के आधार पर प्राकृतिक संसाधनों का वर्गीकरण न केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है, बल्कि इससे उनके उपयोग और संरक्षण की रणनीतियाँ भी स्पष्ट होती हैं। जैविक संसाधन जीवंत और पुनरुत्पादनक्षम होते हैं, वहीं अजैविक संसाधन स्थैतिक और सीमित हैं।
इन दोनों के बीच का संतुलन ही पर्यावरणीय संतुलन और मानवीय विकास की कुंजी है। वर्तमान समय की आवश्यकता है कि हम संसाधनों का विवेकपूर्ण, न्यायसंगत और संतुलित उपयोग करें, ताकि पृथ्वी पर जीवन और विकास की धारा निरंतर प्रवाहित होती रहे।
Environmental Economics – KnowledgeSthali
इन्हें भी देखें –
- पर्यावरणीय अध्ययन का क्षेत्र | Scope of Environmental Studies
- पर्यावरण का अर्थ एवं परिभाषा | Meaning and Definition of Environment
- पर्यावरणीय अर्थशास्त्र की अवधारणा | Concept of Environmental Economics
- पर्यावरणीय अर्थशास्त्र: अर्थ एवं क्षेत्र | Environmental Economics: Meaning and Scope
- अरुण श्रीनिवास | मेटा इंडिया के नए प्रबंध निदेशक की भूमिका में एक नया अध्याय
- पूर्व मध्यकाल (भक्ति काल 1350 ई. – 1650 ई.) – हिंदी साहित्य का स्वर्ण युग
- आदिकाल (वीरगाथा काल -1000 ई० -1350 ई०) | स्वरूप, प्रवृत्तियाँ और प्रमुख रचनाएँ
- गैर-पुनरुत्पादनीय संसाधनों का प्रबंधन | एक आवश्यक चुनौती
- Axiom-4 मिशन और शुभांशु शुक्ला की अंतरिक्ष यात्रा
- टाटा ग्रुप बना भारत का सबसे मूल्यवान ब्रांड | ब्रांड फाइनेंस इंडिया 100 रिपोर्ट 2025 का विश्लेषण