भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि भाषाई और सांस्कृतिक विविधता का सबसे समृद्ध उदाहरण भी है। यहाँ सैकड़ों भाषाएँ, बोलियाँ और लिपियाँ सह-अस्तित्व में हैं। भारतीय संविधान ने प्रारंभ से ही इस विविधता को एकता के सूत्र में पिरोने का प्रयास किया है। इसी संवैधानिक भावना को मूर्त रूप देते हुए 25 दिसंबर 2025 को राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक विशेष समारोह में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने ओल चिकी लिपि में लिखित संथाली भाषा में भारत के संविधान का आधिकारिक संस्करण जारी किया।
यह केवल एक दस्तावेज़ का विमोचन नहीं था, बल्कि यह आदिवासी समुदायों की भाषाई अस्मिता, संवैधानिक अधिकारों की सुलभता और समावेशी शासन की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम था। इस पहल से लाखों संथाली भाषी नागरिक पहली बार अपनी मातृभाषा में देश के सर्वोच्च कानून को पढ़ने, समझने और उससे जुड़ने में सक्षम हुए हैं।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु और आदिवासी चेतना
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु स्वयं एक आदिवासी पृष्ठभूमि से आती हैं। उनका यह संवेदनशील नेतृत्व भारत की आदिवासी भाषाओं और संस्कृतियों के संरक्षण की दिशा में विशेष महत्व रखता है। समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने इसे संथाली समुदाय के लिए गर्व और आनंद का क्षण बताया और कहा कि—
“भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि पहचान, भागीदारी और संवैधानिक चेतना का आधार है।”
उनके अनुसार, जब संविधान जनता की भाषा में उपलब्ध होता है, तभी लोकतंत्र वास्तव में जीवंत बनता है। यह वक्तव्य भारतीय लोकतंत्र की मूल आत्मा को प्रतिबिंबित करता है।
संथाली भाषा: एक परिचय
भाषाई परिवार और उत्पत्ति
संथाली भाषा ऑस्ट्रो-एशियाटिक (Austro-Asiatic) भाषा परिवार से संबंधित है और इसकी जड़ें मुंडा शाखा में निहित हैं। यह भाषा भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका दूर का संबंध दक्षिण-पूर्व एशिया की भाषाओं जैसे वियतनामी और खमेर से माना जाता है।
भौगोलिक प्रसार
संथाली भाषा का व्यापक प्रसार निम्नलिखित क्षेत्रों में है—
- झारखंड
- ओडिशा
- पश्चिम बंगाल
- बिहार
इसके अतिरिक्त, संथाली भाषा बोलने वाले समुदाय असम, त्रिपुरा, तथा पड़ोसी देशों बांग्लादेश और नेपाल में भी पाए जाते हैं। यह व्यापक भौगोलिक विस्तार इसकी जीवंतता और सामाजिक प्रभाव को दर्शाता है।
जनसांख्यिकीय महत्व
2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 70 लाख से अधिक लोग संथाली भाषा बोलते हैं। यह भारत की सबसे बड़ी आदिवासी भाषा है। इतनी बड़ी भाषाई जनसंख्या के बावजूद लंबे समय तक संविधान जैसी मूलभूत संवैधानिक सामग्री का संथाली में उपलब्ध न होना एक बड़ी कमी थी, जिसे अब दूर किया गया है।
आठवीं अनुसूची में संथाली भाषा का स्थान
92वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2003
संथाली भाषा को 92वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 के माध्यम से संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इसी संशोधन के तहत—
भाषाओं को भी जोड़ा गया था।
आठवीं अनुसूची का महत्व
आठवीं अनुसूची में शामिल होने से—
- भाषा के संरक्षण और विकास को संवैधानिक मान्यता मिलती है
- शिक्षा, प्रशासन और न्याय व्यवस्था में उपयोग की संभावनाएँ बढ़ती हैं
- साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलता है
संथाली के लिए यह मान्यता एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी, जिसे अब संविधान के संथाली संस्करण ने और सुदृढ़ किया है।
ओल चिकी लिपि: संथाली पहचान की आत्मा
ओल चिकी लिपि का परिचय
ओल चिकी, जिसे ओल चेमेट भी कहा जाता है, संथाली भाषा की आधिकारिक और वैज्ञानिक लिपि है। यह लिपि न केवल भाषाई बल्कि सांस्कृतिक पहचान का भी प्रतीक है।
शताब्दी वर्ष 2025
वर्ष 2025, ओल चिकी लिपि के आविष्कार का शताब्दी वर्ष (Centenary Year) है। ऐसे प्रतीकात्मक वर्ष में संविधान का ओल चिकी में विमोचन इस पहल को ऐतिहासिक और भावनात्मक दोनों स्तरों पर विशेष बना देता है।
आविष्कारक: पंडित रघुनाथ मुर्मु
ओल चिकी लिपि का आविष्कार 1925 में पंडित रघुनाथ मुर्मु ने किया था। संथाली समाज उन्हें ‘गुरु गोमके’ (महान शिक्षक) के रूप में सम्मानित करता है। उनका उद्देश्य था—
- संथाली भाषा को स्वतंत्र पहचान देना
- बाहरी लिपियों पर निर्भरता समाप्त करना
- शिक्षा और साहित्य के लिए उपयुक्त माध्यम विकसित करना
ओल चिकी की भाषावैज्ञानिक विशेषताएँ
वर्णमाला आधारित लिपि
जहाँ अधिकांश भारतीय लिपियाँ (जैसे देवनागरी, बंगला, तमिल) अक्षरात्मक (Abugida) हैं, वहीं ओल चिकी एक शुद्ध वर्णमाला (Alphabet) है।
- इसमें 6 स्वर
- और 24 व्यंजन
कुल 30 वर्ण होते हैं।
लेखन शैली
- बाएँ से दाएँ लिखी जाती है
- ध्वन्यात्मक रूप से अत्यंत सटीक
- संथाली भाषा की ग्लॉटल स्टॉप (Glottal Stop) जैसी जटिल ध्वनियों को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करती है
प्रकृति से प्रेरित अक्षर
ओल चिकी के अक्षर—
- प्राकृतिक वस्तुओं
- मानवीय गतिविधियों
- संथाली जीवनशैली
से प्रेरित हैं। उदाहरण के लिए, कुछ अक्षर उड़ते हुए पक्षी, औजार या दैनिक जीवन की क्रियाओं का आभास कराते हैं। यह लिपि को सांस्कृतिक रूप से जीवंत बनाता है।
संथाली संस्कृति और भाषा का सामाजिक जीवन
संथाली भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि लोकजीवन की आत्मा है।
प्रमुख त्योहार
- सोहराय
- बाहा
इन त्योहारों में—
- सामूहिक गायन
- पारंपरिक नृत्य
- लोककथाएँ
के माध्यम से भाषा का जीवंत प्रयोग होता है। ओल चिकी लिपि में साहित्य सृजन ने इस सांस्कृतिक परंपरा को नया आयाम दिया है।
संविधान और भाषाई अधिकार
अनुच्छेद 29 और 30
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 29(1) अल्पसंख्यकों को—
“अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि और संस्कृति के संरक्षण का अधिकार”
प्रदान करता है।
ओल चिकी में संविधान का प्रकाशन इसी अधिकार का व्यावहारिक क्रियान्वयन है।
अनुच्छेद 350A
यह अनुच्छेद राज्यों को निर्देश देता है कि—
“भाषाई अल्पसंख्यकों के बच्चों को उनकी मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराई जाए।”
संथाली में संविधान की उपलब्धता इस संवैधानिक भावना को और मजबूत करती है।
संवैधानिक साक्षरता और लोकतांत्रिक भागीदारी
संविधान का मातृभाषा में उपलब्ध होना—
- अधिकारों की समझ बढ़ाता है
- कर्तव्यों के प्रति जागरूकता लाता है
- लोकतांत्रिक भागीदारी को सशक्त करता है
संथाली समुदाय के लाखों लोग अब—
- मौलिक अधिकार
- नीति निर्देशक तत्व
- नागरिक कर्तव्य
को सीधे समझ सकेंगे।
समावेशी शासन की दिशा में ऐतिहासिक कदम
राष्ट्रपति भवन से संविधान का संथाली संस्करण जारी होना यह संदेश देता है कि—
- संविधान केवल अंग्रेज़ी या हिंदी भाषियों का दस्तावेज़ नहीं
- बल्कि यह हर भारतीय का साझा ग्रंथ है
यह पहल आदिवासी समुदायों को मुख्यधारा से जोड़ने की दिशा में एक सशक्त कदम है।
मुख्य तथ्य (संक्षेप में)
- विमोचन तिथि: 25 दिसंबर 2025
- स्थान: राष्ट्रपति भवन
- विमोचक: राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु
- भाषा: संथाली
- लिपि: ओल चिकी (शताब्दी वर्ष 2025)
- संथाली का दर्जा: आठवीं अनुसूची (92वां संशोधन अधिनियम, 2003)
- महत्त्व: आदिवासी अधिकार, भाषा संरक्षण, संवैधानिक साक्षरता
निष्कर्ष
संथाली भाषा में भारत के संविधान का विमोचन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक मील का पत्थर है। यह पहल सिद्ध करती है कि संविधान केवल कानूनों का संकलन नहीं, बल्कि एक जीवंत सामाजिक अनुबंध है, जो तभी पूर्ण होता है जब वह हर नागरिक की भाषा में बोलता है।
ओल चिकी लिपि के शताब्दी वर्ष में यह कदम संथाली भाषा, संस्कृति और समुदाय को संवैधानिक सम्मान प्रदान करता है। यह न केवल अतीत की विरासत को मान्यता देता है, बल्कि भविष्य के लिए एक समावेशी, संवेदनशील और सहभागी लोकतंत्र की नींव भी रखता है।
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