भारत में आरक्षण का मुद्दा स्वतंत्रता के तुरंत बाद से ही राजनीतिक, सामाजिक और न्यायिक विमर्श का केंद्र रहा है। आज़ादी के समय से ही यह प्रश्न उठता रहा है कि समाज के कमजोर वर्गों को समान अवसर देने के लिए किस हद तक विशेष प्रावधान किए जाएँ। इसी संदर्भ में एक अहम सवाल है – क्या आरक्षण की 50% सीमा स्थायी रहनी चाहिए या सामाजिक न्याय की ज़रूरतों को देखते हुए इसे बढ़ाया जाना चाहिए? हाल ही में बिहार में विपक्षी दल ने सत्ता में आने पर आरक्षण को 85% तक बढ़ाने का वादा किया है, जबकि दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट ने एससी और एसटी वर्गों पर भी ‘क्रीमी लेयर’ प्रणाली लागू करने की संभावना पर केंद्र सरकार से जवाब मांगा है। इन घटनाओं ने एक बार फिर आरक्षण बहस को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में ला दिया है।
आरक्षण की संवैधानिक नींव
भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान समाज के कमजोर तबकों को शिक्षा, रोजगार और अवसरों में न्याय दिलाने के लिए किया गया है। संविधान के निर्माताओं का उद्देश्य औपचारिक समानता (सभी के लिए समान अधिकार) से आगे बढ़कर व्यावहारिक समानता (सबको अवसर उपलब्ध कराना) सुनिश्चित करना था।
प्रमुख संवैधानिक अनुच्छेद
- अनुच्छेद 15(4) और 15(5): राज्य को अधिकार है कि वह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (Backward Classes), अनुसूचित जातियों (SCs) और अनुसूचित जनजातियों (STs) की प्रगति के लिए विशेष प्रावधान करे। विशेषकर शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण दिया जा सकता है।
- अनुच्छेद 16(4): राज्य को यह शक्ति है कि यदि सार्वजनिक सेवाओं में पिछड़े वर्गों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त न हो तो उनके लिए आरक्षण लागू किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 16(4A): एससी और एसटी के लिए पदोन्नति (Promotion) में भी आरक्षण की अनुमति देता है।
- अनुच्छेद 16(4B): यदि आरक्षित पद खाली रह जाते हैं तो उन्हें आने वाले वर्षों में Carry Forward किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 46: यह राज्य का नीति–निर्देशक तत्व है, जिसके तहत कमजोर वर्गों, विशेषकर एससी और एसटी की शैक्षणिक और आर्थिक प्रगति को बढ़ावा देने की जिम्मेदारी राज्य पर डाली गई है।
वर्तमान आरक्षण व्यवस्था (केंद्र स्तर पर)
केंद्र सरकार के अधीन जो आरक्षण व्यवस्था लागू है, वह इस प्रकार है:
वर्ग | प्रतिशत आरक्षण |
---|---|
अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) | 27% |
अनुसूचित जाति (SC) | 15% |
अनुसूचित जनजाति (ST) | 7.5% |
आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) | 10% |
कुल | 59.5% |
यानी वर्तमान में केंद्र स्तर पर कुल आरक्षण लगभग 60% तक पहुँच चुका है। हालांकि, राज्यों में यह अनुपात भिन्न-भिन्न है। तमिलनाडु, राजस्थान, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में आरक्षण पहले से ही 50% सीमा से ऊपर है।
न्यायपालिका के महत्वपूर्ण फैसले
भारत के न्यायिक इतिहास में कई महत्वपूर्ण फैसलों ने आरक्षण की दिशा तय की है:
(क) Balaji vs State of Mysore (1962)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आरक्षण “उचित सीमा (reasonable limits)” के भीतर होना चाहिए। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि 50% से अधिक आरक्षण नहीं होना चाहिए। यही से 50% सीमा की अवधारणा शुरू हुई।
(ख) State of Kerala vs N.M. Thomas (1975)
इस मामले में कोर्ट ने कहा कि आरक्षण अवसर की समानता (Equality of Opportunity) को बढ़ावा देने का साधन है। यह निर्णय औपचारिक समानता से आगे बढ़कर सार्थक समानता (Substantive Equality) की ओर संकेत करता है। हालांकि, 50% सीमा पर कोई प्रत्यक्ष टिप्पणी नहीं की गई।
(ग) Indra Sawhney Case (1992) – मंडल आयोग केस
यह मामला भारतीय आरक्षण नीति का टर्निंग प्वाइंट माना जाता है। इसमें:
- 27% OBC आरक्षण को बरकरार रखा गया।
- 50% सीमा को स्पष्ट रूप से दोहराया गया।
- Creamy Layer सिद्धांत लागू किया गया, जिसके तहत आर्थिक और सामाजिक रूप से उन्नत OBC को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।
(घ) Janhit Abhiyan vs Union of India (2022)
सुप्रीम कोर्ट ने EWS आरक्षण (10%) को संवैधानिक ठहराया। कोर्ट ने कहा कि 50% सीमा पिछड़े वर्गों पर लागू होती है, लेकिन EWS पर नहीं। यह फैसला इस बहस को और जटिल बनाता है।
(ङ) State of Punjab vs Davinder Singh (2024)
कोर्ट ने सुझाव दिया कि SC और ST के लिए भी Creamy Layer बहिष्करण पर विचार किया जा सकता है। यह टिप्पणी भविष्य में बड़ी नीति–परिवर्तनकारी हो सकती है।
50% सीमा के सामने चुनौतियाँ
(क) जनसंख्या का तर्क
भारत की पिछड़ी जातियों और समुदायों की जनसंख्या मौजूदा आरक्षण अनुपात से कहीं अधिक है। यही कारण है कि जातिगत जनगणना की माँग तेज़ होती जा रही है। जब तक वास्तविक आँकड़े सामने नहीं आते, तब तक 50% सीमा पर आधारित तर्क अधूरा लगता है।
(ख) रिक्त पदों की समस्या
आरक्षण लागू होने के बावजूद केंद्र स्तर पर 40–50% पद खाली रह जाते हैं। इसका कारण योग्य उम्मीदवारों की कमी नहीं बल्कि भर्ती प्रक्रिया, कैडर वितरण और नीति–गत खामियाँ हैं। इससे समाज के अंतिम पंक्ति तक आरक्षण का लाभ नहीं पहुँच पाता।
(ग) उप–जातियों में असमानता
रोहिणी आयोग की रिपोर्ट बताती है कि OBC आरक्षण का लाभ कुछ चुनिंदा जातियों तक सीमित है। लगभग 1,000 समुदायों को इसका कोई लाभ नहीं मिल पाया। इसी तरह SC/ST वर्गों में भी अपेक्षाकृत सम्पन्न जातियाँ ही अधिक लाभ उठाती हैं।
(घ) आरक्षण लाभों का केंद्रीकरण
- OBC वर्ग की लगभग 25% जातियाँ ही करीब 97% लाभ ले रही हैं।
- SC/ST वर्गों में क्रीमी लेयर की व्यवस्था न होने से सम्पन्न तबके अधिक अवसर हासिल कर लेते हैं।
- वास्तविक रूप से वंचित तबके पीछे छूट जाते हैं।
(ङ) नीति शून्यता
सुप्रीम कोर्ट की बार-बार की टिप्पणियों के बावजूद केंद्र सरकार ने अगस्त 2024 में दोहराया कि SC/ST वर्गों पर क्रीमी लेयर लागू नहीं होगी। इससे नीति–गत शून्यता बनी रहती है और असमानता का समाधान नहीं हो पाता।
आरक्षण सीमा बढ़ाने के पक्ष और विपक्ष के तर्क
पक्ष में
- सामाजिक न्याय का तकाज़ा: जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण आवश्यक है।
- प्रतिनिधित्व की कमी: पिछड़े वर्गों की सेवाओं और उच्च शिक्षा में अभी भी भागीदारी बहुत कम है।
- संवैधानिक अनुमति: संविधान का उद्देश्य समान अवसर देना है, और 50% सीमा कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं, बल्कि न्यायालयीन व्याख्या है।
- विशेष परिस्थितियाँ: कुछ राज्यों (जैसे तमिलनाडु) में 69% तक आरक्षण पहले से लागू है और यह व्यवस्था स्थिर बनी हुई है।
विपक्ष में
- योग्यता आधारित प्रणाली पर असर: आरक्षण की सीमा बढ़ने से मेरिट का अवसर कम होता है।
- प्रतिस्पर्धा पर दबाव: अत्यधिक आरक्षण से सामान्य वर्ग के छात्रों और उम्मीदवारों में असंतोष बढ़ता है।
- न्यायिक अवरोध: सुप्रीम कोर्ट बार-बार कह चुका है कि 50% सीमा से अधिक आरक्षण “अपवाद स्वरूप” ही संभव है।
- लाभ का असमान वितरण: आरक्षण बढ़ाने से पिछड़े वर्गों के भीतर भी सम्पन्न तबके को ही अधिक लाभ मिल सकता है।
आगे की दिशा
भारत में आरक्षण की बहस केवल प्रतिशत की सीमा तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि इसमें निम्न मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा:
- जातिगत जनगणना: वास्तविक जनसंख्या आँकड़ों के बिना नीति अधूरी है।
- क्रीमी लेयर का विस्तार: SC और ST वर्गों में भी इसे लागू करने पर विचार होना चाहिए ताकि अवसर समान रूप से वितरित हों।
- लक्षित नीतियाँ: अत्यंत पिछड़े और वंचित वर्गों तक आरक्षण का लाभ पहुँचाने के लिए उप-कोटा (sub-quota) प्रणाली की ज़रूरत है।
- शिक्षा और कौशल विकास: आरक्षण के साथ-साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण पर ज़ोर देना होगा।
- समय–सीमा और समीक्षा: आरक्षण नीति का समय-समय पर मूल्यांकन और समीक्षा आवश्यक है, ताकि यह केवल राजनीतिक घोषणाओं तक सीमित न रह जाए।
निष्कर्ष
आरक्षण का उद्देश्य समाज में समानता और न्याय की स्थापना है। 50% सीमा का निर्धारण ऐतिहासिक और न्यायिक परिप्रेक्ष्य में हुआ था, लेकिन बदलते सामाजिक और जनसांख्यिकीय परिदृश्यों में यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या इसे कठोर रूप से लागू किया जाए या परिस्थितियों के अनुसार लचीला बनाया जाए। बिहार जैसे राज्यों में 85% आरक्षण की माँग और सुप्रीम कोर्ट में चल रही क्रीमी लेयर पर बहस इस बात का संकेत है कि आने वाले वर्षों में आरक्षण की नीतियाँ एक बड़े बदलाव की ओर बढ़ सकती हैं।
भारत को संतुलन साधना होगा – सामाजिक न्याय और अवसर की समानता के बीच। यदि आरक्षण का लाभ वास्तव में अंतिम पंक्ति के लोगों तक पहुँचना है, तो मात्र प्रतिशत बढ़ाने से समाधान नहीं होगा, बल्कि सटीक आँकड़े, क्रीमी लेयर की सख्त व्यवस्था और शिक्षा–आधारित अवसर विस्तार ही सही रास्ता दिखा सकते हैं।
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