सिंधु घाटी सभ्यता के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे ही आर्य अथवा वैदिक सभ्यता के नाम से जाना जाता है। वैदिक सभ्यता ही हिन्दू सभ्यता है। इस काल की जानकारी हमे मुख्यत: वैदिक साहित्य से प्राप्त होती है, जिसमे ऋग्वेद सर्वप्राचीन होने के कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।
इस काल की जानकारी हमे मुख्यत: वेदों से प्राप्त होती है, वैदिक संस्कृति का भारतीय इतिहास में सबसे प्रमुख स्थान है। आधुनिक भारत पर भी इसका प्रभाव व्यापक रूप से प्रचलित है। भारत में बहुमत का गठन करने वाले हिंदुओं के धर्म, दर्शन और सामाजिक रीति-रिवाज वैदिक संस्कृति से जुड़े हुए हैं।
वेद VEDAS
वेद दुनिया के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेद ही हिन्दू धर्म के सर्वोच्च और सर्वोपरि धर्मग्रन्थ हैं। ऐसा कहा जाता है कि वेदों के आधार पर ही दुनिया के सभी धर्मो और मजहबों की उत्पत्ति हुई, जिन्होंने वेदों के ज्ञान को अपने अपने तरीके से भिन्न भिन्न भाषा में प्रचारित किया।
वेद शब्द संस्कृत के “विद” शब्द से निर्मित है अर्थात इस एक मात्र शब्द में ही सभी प्रकार का ज्ञान समाहित है। प्राचीन भारतीय ऋषि जिन्हें मंत्रद्रिष्ट कहा गया है, उन्हें मंत्रो के गूढ़ रहस्यों को पता कर, समझ कर, मनन कर एवं उनकी अनुभूति कर उस ज्ञान को जिन ग्रंथो में संकलित कर संसार के समक्ष प्रस्तुत किया वो प्राचीन ग्रन्थ “वेद” कहलाये। ऐसी मान्यता है कि इनके मन्त्रों को परमेश्वर ने प्राचीन ऋषियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था। इसलिए वेदों को श्रुति भी कहा जाता है।
सामान्य भाषा में वेद का अर्थ है “ज्ञान”। वस्तुत: ज्ञान वह प्रकाश है जो मनुष्य के मन के अज्ञान-रूपी अन्धकार को नष्ट कर देता है। कहा जाता है कि, वेदों में मानव की हर समस्या का समाधान है। वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है।
ऐसी मान्यता है की वेद प्रारंभ में एक ही था और उसे पढने के लिए सुविधानुसार चार भागो में विभक्त कर दिया गया। जिनके नाम हैं –
- ऋग्वेद
- यजुर्वेद
- सामवेद
- अथर्ववेद
ऐसा श्रीमदभागवत में उल्लेखित एक श्लोक द्वारा ही स्पष्ट होता है। इन वेदों में हजारों मन्त्र और रचनाएँ हैं जो एक ही समय में संभवत: नहीं रची गयी होंगी और न ही एक ऋषि द्वारा। संभवतः वेदों की रचना समय-समय पर अलग अलग ऋषियों द्वारा होती रही होगी और वे एकत्रित होते गए होंगे।
भारतीय पौराणिक मान्यताओं के अनुसार प्रथम तीन वेदों को अग्नि, वायु और सूर्य से जोड़ा गया है। इन तीनो नामों के ऋषियों से इनका सम्बन्ध बताया गया है, क्योंकि इसका कारण यह है की अग्नि उस अंधकार को समाप्त करती है जो अज्ञान का अँधेरा है। इस कारण यह ज्ञान का प्रतीक बन गया है।
वायु प्राय: चलायमान है, उसका काम चलना (बहना) है। इसका तात्पर्य है की कर्म अथवा कार्य करते रहना। इसलिए यह कर्म से सम्बंधित है। सूर्य सबसे तेजयुक्त है जिसे सभी प्रणाम करते हैं, नतमस्तक होकर उसे पूजते हैं। इसलिए कहा गया है की वह पूजनीय अर्थात उपासना के योग्य है। एक ग्रन्थ के अनुसार ब्रम्हाजी के चार मुखो से चारो वेदों की उत्पत्ति हुई।
ऋग्वेद
ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान ऋग्वेद सबसे पहला वेद है जो पद्यात्मक है। इसके 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त है जिसमें 11 हजार मंत्र हैं। इस वेद की 5 शाखाएं हैं – शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन करने के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है।
ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इस वेद में जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा का आदि की भी जानकारी मिलती है। ऋग्वेद के दसवें मंडल में औषधि सूक्त यानी दवाओं का जिक्र मिलता है। इसमें औषधियों की संख्या 125 के लगभग बताई गई है, जो कि 107 स्थानों पर पाई जाती है। औषधि में सोम का विशेष वर्णन है। ऋग्वेद में च्यवनऋषि को पुनः युवा करने की कथा भी मिलती है।
जिस कथा में कहा गया है की च्यवनऋषि को जिन औषधियों के मिश्रण से पुनः युवा कर दिया गया था उसी मिश्रण को आज च्यवनप्राश नाम से जाना जाता है। इस प्रकार ऋग्वेद का मनुष्य जीवन में बहुत ही महत्त्व है
यजुर्वेद
यजुर्वेद का संधि विच्छेद होता है :- यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील अथवा कर्म तथा जु का अर्थ होता है आकाश अथवा श्रेष्ठ। अर्थात श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियों के बारे में बताया गया है और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का भी वर्णन है। यह वेद गद्य मय है। इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिए गद्य मंत्र हैं। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण।
शुक्ल : याज्ञवल्क्य ऋषि का सम्बन्ध शुक्ल से है। शुक्ल की दो शाखाएं हैं। इसमें 40 अध्याय हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में च्ब्रीहिधान्यों का वर्णन प्राप्त होता है। इसके अलावा, दिव्य वैद्य और कृषि विज्ञान का भी विषय इसमें मौजूद है। जबकि कृष्ण की चार शाखाएं हैं।
सामवेद
साम का अर्थ होता है, रूपांतरण और संगीत। जबकि इसका एक अन्य अर्थ होता है सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। सामवेद गीतात्मक यानी गीत के रूप में है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। 1824 मंत्रों के इस वेद में 75 मंत्रों को छोड़कर शेष सब मंत्र ऋग्वेद से ही लिए गए हैं।इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसमें मुख्य रूप से 3 शाखाएं हैं, 75 ऋचाएं हैं।
अथर्ववेद
थर्व का अर्थ होता है कंपन और अथर्व का अर्थ होता है अकंपन। अर्थात ज्ञान से श्रेष्ठ कर्म करते हुए जो प्राणी परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्देद आदि का जिक्र है। इसके 20 अध्यायों में 5687 मंत्र है। इसके आठ खण्ड हैं जिनमें भेषज वेद और धातु वेद ये दो नाम मिलते हैं।
उपवेद किसे कहते हैं?
- ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद
- यजुर्वेद का उपवेद धनुर्वेद
- सामवेद का उपवेद गंधर्ववेद
- अथर्ववेद का उपवेद स्थापत्यवेद
ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं। इसी प्रकार ऋग का अर्थ होता है स्थिति, यजु का रूपांतरण, सामका गतिशील और अथर्व का अर्थ होता है जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।
वेदों से सम्बंधित कुछ तथ्य
वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के ‘भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट’ में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।
वैदिक सभ्यता को दो हिस्सों में बाटा गया है:-
पूर्व वैदिक अथवा ऋग्वेदिक काल The Early Vedic Age (1500-1000 ई.पू.)
वैदिक संस्कृति का एकमात्र स्रोत वैदिक साहित्य है। वैदिक साहित्य उस विपुल ग्रन्थ राशि को कहते है, जिसमें वैदिक संहिताएँ, ब्राह्मण ग्रन्थ, अरण्यक, उपनिषद् और वेदांग आते हैं। इनमें वैदिक संहिता को सबसे प्राचीन हैं। वैदिक संहिता में चारों वेद ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद आते है। ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम वेद होने के कारण इस समय को ऋग्वेद काल भी कहते हैं।
ऋग्वेद भजन का एक संग्रह है। साम-वेद अधिकतर ऋग्वेद से लिए गए गीतों का एक संग्रह है। यजुर-वेद यज्ञीय सूत्रों का संग्रह है। अथर्ववेद मंत्र और मंत्रों का एक संग्रह है। ब्राह्मणों में विभिन्न बलि संस्कारों और समारोहों के दर्शन होते हैं। अरण्यकों में सत्य की प्रकृति के बारे में दार्शनिक अटकलें हैं। और उपनिषदों में अरण्यकों के दार्शनिक कथनों का विस्तृत वर्णन है।
उपनिषदों ने बलि धर्म के खिलाफ एक प्रतिक्रिया को चिह्नित किया और परम सत्य और वास्तविकता को उजागर किया, जिसका ज्ञान मनुष्य की मुक्ति के लिए अपरिहार्य माना जाता था। इसके अलावा, कुछ अन्य हिंदू धर्मग्रंथों को भी वैदिक साहित्य में शामिल किया गया है। छः वेदांग, सूत्र और स्मृतियाँ इसमें सम्मिलित हैं। सूत्रों में महत्वपूर्ण हैं- ग्रहा-सूत्र और धर्म-सूत्र तथा स्मृतिकारों में से हैं- मनु-स्मृति, नारद-स्मृति, ब्रहस्पति-स्मृति आदि। इसके अलावा कुछ हिंदू दार्शनिक ग्रंथ यानी कपिल द्वारा सांख्य-दर्शन, पतंजलि द्वारा योग-दर्शन, गौतम द्वारा किया गया न्याय-दर्शन आदि भी इसमें शामिल हैं।
ऊपर वर्णित वैदिक और अन्य संबद्ध हिंदू धार्मिक साहित्य मानव ज्ञान के लिए सबसे उपयोगी माने गए हैं। इसलिए, हिंदुओं ने दावा किया है कि उनके धार्मिक ग्रंथों में मानव ज्ञान के हर पहलू शामिल हैं। इसके अलावा, इनमें से कई ग्रंथ हमें उपयोगी ऐतिहासिक सामग्री भी प्रदान करते हैं
भारत में अपने विकास के प्रारंभिक चरण के दौरान, आर्यों ने ऋग्वेद के केवल संहिता (भजन) की रचना की थी। इसलिए, प्रारंभिक वैदिक संस्कृति का एकमात्र स्रोत ऋग्वेद है। इसके वर्तमान पाठ में 1,028 भजन हैं जो दस मंडलों (पुस्तकों) में विभाजित हैं। इसकी रचना की अवधि के बारे में विद्वानों में कोई एकमत नहीं है।
बाल गंगाधर तिलक का मानना था कि इसकी रचना 6000 ईसा पूर्व के दौरान हुई थी। जैकोबी ने 2500 ईसा पूर्व के समय को निर्धारित किया था। और मैक्स मुलर ने कहा था कि यह 1200-1000 ईसा पूर्व के बीच किसी समय में रचा गया था। हालांकि, अधिकांश विद्वान स्वीकार करते हैं कि इसके अधिकांश भजनों की रचना 1500 और 1000 ईसा पूर्व के बीच हुई थी।
ऋग्वेद में प्रयुक्त सप्तसिंधव शब्द का निहितार्थ निश्चित देश है। इसका मतलब सात नदियों का देश था और मैक्स मुलर के अनुसार, सात नदियां सिंधु, इसकी पांच सहायक नदियां शतुद्रि (सतलुज ) व्यास, रावी, झेलम, चिनाब और आधुनिक हरियाणा में सरस्वती (सरस्वती जो अब लुप्त हो चुकी हैं) थी। यमुना नदी का वर्णन बहुत कम किया गया है, जबकि गंगा नदी का वर्णन केवल एक बार किया गया है।
इस समय के दौरान, आर्य मुख्य रूप से पंजाब तक ही सीमित थे, हालांकि पूर्व की ओर उनकी बाहरी बस्तियां यमुना और गंगा के किनारे तक पहुंच गई थीं। हालाँकि, काबुल, स्वात, कुर्रम और गोमल नदी के संदर्भ से संकेत मिलता है कि कुछ आर्य जनजातियाँ अभी भी सिंधु नदी के पश्चिमी किनारे पर हैं। इस प्रकार, अफगानिस्तान, उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत, पंजाब, कश्मीर, सिंध और राजपुताना के कुछ हिस्सों और पूर्वी भारत में सरयू नदी तक को आर्यों द्वारा बसाया गया था।
आर्यों की उत्पत्ति
आर्यों की उत्पत्ति विवादास्पद है। विभिन्न विद्वानों ने आर्यों की मूल मातृभूमि के बारे में अलग-अलग राय व्यक्त की है और इतिहास, दार्शनिक, नस्लीय नृविज्ञान और पुरातात्विक खोजों के आधार पर उनकी सामग्री को सही ठहराने की कोशिश की है। भारत, मध्य एशिया, दक्षिण रूस, पामीर का पठार, स्कैंडेनेविया, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी आदि को वैकल्पिक रूप से आर्यों के मूल घर के रूप में सुझाया गया है। परन्तु अभी तक इस सवाल पर कोई सहमति नहीं है।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने तिब्बत को आर्यों का मूल घर बताया। लेकिन इस विवाद को सही ठहराने के लिए कोई सबूत नहीं हैं। भारतीय राष्ट्रवादी नेता बाल गंगाधर तिलक ने विचार व्यक्त किया कि आर्य भारत के स्वदेशी हैं। उन्होंने वेदों के आधार पर अपने तर्कों का समर्थन करने की कोशिश की। कई अन्य भारतीय विद्वानों ने इस दृष्टिकोण का समर्थन करने की कोशिश की है।
अविनाश चंद्र दास ने कहा है कि यह सप्तसिंधु प्रदेश था, जो कि पंजाब और गंगा-जमुना दोआब पर स्थित था। जबकि राजबली पांडे का कथन है कि यह मध्य-देश था, अर्थात आधुनिक उत्तर प्रदेश। इन विद्वानों ने विभिन्न आधारों पर अपने विवाद को सही ठहराने की कोशिश की है। उनका तर्क है कि वैदिक साहित्य भारत के बाहर किसी अन्य भूमि या देश का वर्णन नहीं करता है।
इस प्रकार, हम पाते हैं कि भारत-आर्यों के मूल घर के बारे में विभिन्न विद्वानों द्वारा अलग-अलग राय व्यक्त की गई है, और अभी भी कोई सहमति नहीं है। इसलिए, इसके बारे में सकारात्मक रूप से कहना मुश्किल है। हालाँकि, अधिकांश लोगों का मानना है कि पोलैंड और दक्षिण रूस से लेकर मध्य एशिया तक फैले महान स्टेपी भूमि में आर्यों का निवास था।
आर्य थोड़ी बहुत कृषि करना जानते थे। संभवतः, आबादी की प्राकृतिक वृद्धि या चरागाह भूमि की खोज ने उन्हें पूर्व, पश्चिम और दक्षिण की ओर बढ़ने के लिए मजबूर किया। उन्होंने घोड़ों का नामकरण किया था, जो कि वे हल्के पहियों वाले रथों में इस्तेमाल करते थे, जिससे उन्हें अपने दुश्मनों पर विजय मिलती थी।
कुछ आर्यों ने यूनानियों, लेटिन, सेल्ट्स और ट्यूटन के पूर्वजों को हराने के लिए यूरोप पर आक्रमण किया। जबकि कुछ अन्य आर्य अनातोलिया पहुंचे, जहां आर्यों और वहां के मूल निवासियों के मिश्रण से, हाइट्स का महान साम्राज्य बड़ा हुआ।
कुछ अन्य आर्य दक्षिण की ओर चले गए। और फिर आगे की ओर बढ़ते हुए लगभग 2000 ईसा पूर्व में अफगानिस्तान के माध्यम से भारत में प्रवेश किया। कुछ विद्वानों का मानना है की आर्यो का आगमन 1500 ई.पू. से कुछ पहले हुआ। भारत में उन्होंने सर्वप्रथम सप्त सैन्धव प्रदेश में बसना प्रारम्भ किया। इस प्रदेश में बहने वाली सात नदियों का ज़िक्र हमें ऋग्वेद से मिलता है। जिनके नाम सिन्धु, सरस्वती शतुद्रि (सतलुज ) व्यास, रावी, झेलम, चिनाब आदि हैं।
इन्हें भारत-आर्य कहा जाता था। भारत पर आर्यों का आक्रमण एकल कार्रवाई नहीं थी, बल्कि सदियों से चली आ रही थी। द्रविड़ जो तब भारत में थे, उन्होंने ने आर्यों का विरोध किया और एक भयंकर संघर्ष किया। यह केवल दो राष्ट्रीयताओं के बीच का संघर्ष नहीं था, बल्कि दो प्रकार की सभ्यता के बीच का संघर्ष था। इसमें कोई संदेह नहीं है द्रविड़ों ने पूरी बहादुरी के साथ लड़ाई लड़ी, लेकिन आखिरकार आक्रमणकारियों के हमलों के आगे झुक गए और उनकी हार हो गई।
इस जीत ने आर्यों को धीरे-धीरे उत्तर भारत के बड़े हिस्से और वंचित मूल निवासियों, द्रविड़ों के साथ-साथ अन्य लोगों पर भी विजय प्राप्त करने में सक्षम बना दिया। भारत में आर्यों ने अपने धार्मिक ग्रंथों का निर्माण किया और न केवल वैदिक संस्कृति बल्कि भारतीय संस्कृति की भी नींव रखी। आर्यों ने जिन ग्रंथो की रचना की उनमे चारो वेद, पुराण, ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद और महाग्रंथ – रामायण और महाभारत आदि प्रमुख हैं।
आर्यों की राजनीतिक व्यवस्था
सर्वप्रथम जब आर्य भारत में आये तो उनका यहाँ के दास अथवा दस्यु कहे जाने वाले पाँच लोगों से संघर्ष, अन्ततः आर्यो को विजय मिली में ऋग्वेद में आर्यों के पांच कबीले के होने की वजह से उन्हें पंचजन्य कहा गया। ये थे पुरु, यदु, तुर्वश, द्रुह्म और अनु। भरत, क्रिव एवं त्रित्सु आर्य शासक वंश के थे। भरत कुल के नाम से ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इनके पुरोहित वशिष्ठ थे ।
कहा जाता है की भरत वंश के राजा सुदास तथा अन्य दस जनों, पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रह्म अकिन, पक्थ, भलानस, विषणिन और शिव के मध्य दाशराज्ञ यु़द्ध परुष्णी (रावी) नदी के किनारे लड़ा गया जिसमें सुदास को विजय मिली। कुछ समय पश्चात् पराजित राजा पुरु और भरत के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित होने से एक नवीन की वंश की स्थापना की गई जिसे कुरु वंश कहा गया।
आर्यों की जाति अथवा वर्ण व्यवस्था
आर्यों ने उस समय अपने समाज को उस समय के रहने वाले लोगों के व्यवसाय अथवा कार्य के अनुसार चार भागों अथवा वर्णों में बांट रखा था जिनके नाम थे
- ब्राह्मण (Priests, Scholars, Teachers)
- क्षत्रिय (Warriors, Rulers, Administrators)
- वैश्य (Farmers, Merchants, Artisans, Herders)
- सूद्र (Farm Workers, Servants, Labourer)
इसके अलावा एक और वर्ग समाज में रहता था जिसको अछूत (untouchable) कहा जाता था जिनसे सभि वर्गों के लोग दुरिया बना कर रहते थे इसमें बहुत ही निम्न तबके के लोग आते थे जिनके पास कुछ नहीं होता था ये लोग संभवतः Tanners और Laundresses का कार्य करते थे
आर्यों की प्रशासनिक व्यवस्था
ऋग्वैदिक काल में प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल या गृह था। उसके ऊपर ग्राम था। उसके ऊपर विश था। सबसे ऊपर जन होता था। ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख 275 बार हुआ है, जबकि जनपथ शब्द का उल्लेख एक बार भी नहीं हुआ है। विश शब्द का उल्लेख 170 बार हुआ है।
इसमें कुल सबसे छोटी इकाई थी । कुल का मुखिया कुलप था। ग्राम का शासन ग्रामणी देखता था। विश ग्राम से बड़ी प्रशासनिक ईकाई थी। इसका शासक विश्पति कहा जाता था। जन काबीलाई संगठन था। इनका शासन प्रमुख पुरोहित हुआ करता था। इन्हीं के नाम पर आगे जनपद बने। राष्ट्र शासन की सबसे बड़ी ईकाई थी। इसका शासक राजा होता था।
ऋग्वैदिक भारत का राजनीतिक ढाँचा आरोही क्रम में- कुल > ग्राम > विशस > जन > राष्ट्र
आर्यों की न्याय व्यवस्था
न्याय व्यवस्था धर्म पर आधारित होती थी। राजा क़ानूनी सलाहकारों तथा पुरोहित की सहायता से न्याय करता था। चोरी, डकैती, राहजनी, आदि अनेक अपराधों का उल्लेख मिलता है। इसमें पशुओं की चोरी सबसे अधिक होती थी जिसे पणि लोग करते थे। इनके अधिकांश युद्ध गायों को लेकर हुए हैं।
ऋग्वेद में युद्ध का पर्याय गाविष्ठ (गाय का अन्वेषण) है। इस युग में मुत्यु दंड की प्रथा नहीं थी। अपराधियों को शरीरदण्ड तथा जुर्माने की सज़ा दी जाती थी। वेरदेय (बदला चुकाने की प्रथा) का प्रचलन था। एक व्यक्ति को शतदाय कहा जाता था क्योंकि उसके जान की कीमत 100 गाय थी। हत्या का दण्ड द्रव्य के रूप में दिया जाता था। सूद का भुगतान वस्तु के ऊपर में किया जाता था। दिवालिए को ऋणदाता का दास बनाया जाता था। पुत्र सम्पत्ति का अधिकारी होता था।
आर्यों का सामाजिक जीवन
ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार या कुल होती थी। ऋग्वेद में ‘कुल’ शब्द का उल्लेख नहीं है। परिवार के लिए ‘गृह’ शब्द का प्रयुक्त हुआ है। कई परिवार मिलकर ग्राम या गोत्र तथा कई ग्राम मिलकर विश का निर्माण एवं कई विश मिलकर जन का निर्माण करते थे। ऋग्वेद में जन शब्द लगभग 275 तथा विश शब्द 170 बार प्रयुक्त हुआ है।
ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक समाज था। परिवार का मुखिया पिता होता था। ऋग्वेद के कुछ उल्लेखों से पिता के असीमित अधिकारों की पुष्टि होती है। वरूणसूक्त के शुनः शेष के आख्यान से ज्ञात होता है कि पिता अपनी सन्तान को बेच सकता था। किन्तु उद्धरणों से यह तात्पर्य कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि पिता-पुत्र के संबंध कटुतापूर्ण थे। इसे अपवादस्वरूप ही समझा जाना चाहिए। इस समय पुत्र की प्राप्ति के लिए देवी देवताओं से प्रार्थना की जाती थी। इस समय का परिवार संयुक्त परिवार होता था।
आर्यों का आर्थिक जीवन
ऋग्वेद में आर्यो के मुख्य व्यवसाय के रूप में पशुपालन एवं कृषि का विवरण मिलता है परन्तु पूर्व वैदिक आर्यो ने पशुपालन को ही अपना मुख्य व्यवसाय बनाया था। ऋग्वैदिक सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी। इस वेद में ‘गव्य एवं गव्यति शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त है। इस काल में गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप मे भी होता था। अवि (भेड़), अजा (बकरी) का ऋग्वेद में अनेक बार ज़िक्र हुआ है। धनी व्यक्ति को गोपत कहा गया था। राजा को गोपति कहा जाता था युद्ध के लिए गविष्ट, गेसू, गव्य ओर गम्य शब्द प्रचलित थे। समय की माप के लिए गोधुल शब्द का प्रयोग किया जाता था। दूरी का मान के लिए गवयतु।
आर्यों का धार्मिक जीवन
वैदिक धर्म पूर्णतः प्रतिमार्गी हैं वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की अराधना मानव के रूप में की जाती थी किन्तु कुछ देवताओं की अराधना पशु के रुप में की जाती थी। जैसे कि इन्द्र की कल्पना वृषभ (बैल) के रूप में एवं सूर्य की कल्पना अश्व के रूप में की गई है।
ऋग्वेद में पशुओं के पूजा का प्रचलन नहीं था। ऋग्वैदिक देवताओं में किसी प्रकार का उँच-नीच का भेदभाव नहीं था। वैदिक ऋषियों ने सभी देवताओं की महिमा गाई है। ऋग्वैदिक लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया है। इस समय ‘बहुदेववाद’ का प्रचलन था। ऋग्वैदिक आर्यो की देवमण्डली तीन भागों में विभाजित थी।
- आकाश के देवता – सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन्, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत्, आदिंत्यगग, अश्विनद्वय आदि।
- अन्तरिक्ष के देवता– इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहिर्बुघ्न्य।
- पृथ्वी के देवता– अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, तथा नदियां।
इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन था, यह निर्धारित करना कठिन है ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की स्तुति की उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का अरोपण कर दिया। मैक्स मूलर ने इस प्रवृत्ति की ‘हीनाथीज्म’ कहा है। सूक्तों की संख्या की दृष्टि यह मानना न्यायसंगत होगा कि इनका सर्वप्रधान देवता इन्द्र था।
ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय ‘इन्द्र’ का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है, ऋग्वेद के क़रीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हे वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होंने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हे वृत्रहन कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे पुरन्दर कहे जाते हैं।
इन्द्र वृत्र की हत्या करके जल को मुक्त करते हैं इसलिए उन्हे पुर्मिद कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण अन्सुजीत (पानी को जीतने वाला) भी आता है। इन्द्र के पिता द्योंस हैं अग्नि उसका यमज भाई है और मरुत उसका सहयोगी है। विष्णु ने वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय हथियार बज्र है इसलिए उन्हे ब्रजबाहू भी कहा गया है।
इन्द्र कुशल रथ-योद्धा (रथेष्ठ), महान् विजेता (विजेन्द्र) और सोम का पालन करने वाला (सोमपा) है। इन्द्र तूफ़ान और मेध के भी देवता है । एक शक्तिशाली देवता होने के कारण इन्द्र का शतक्रतु (एक सौ शक्ति धारण करने वाला) कहा गया है वृत्र का वध करने का कारण वृत्रहन और मधवन (दानशील) के रूप में जाना जाता है। उनकी पत्नी इन्द्राणी अथवा शची (ऊर्जा) हैं प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इन्द्र के साथ कृष्ण के विरोध का उल्लेख भी मिलता है।
ऋग्वेद में दूसरा महत्त्वपूर्ण देवता ‘अग्नि’ था, जिसका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियाँ दी जाती थीं। ऋग्वेद में क़रीब 200 सूक्तों में अग्नि का ज़िक्र किया गया है। वे पुरोहितो के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। ऋग्वेद मे वरुण को वायु का सांस कहा गया है।
वरुण देव लोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। इन्हे असुर भी कहा जाता हैं। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तियों में की गयी है। देवताओं के तीन वर्गो (पृथ्वी स्थान, वायु स्थान और आकाश स्थान) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। वे देवताओं के देवता है। ऋग्वेद का 7 वाँ मण्डल वरुण देवता को समर्पित है। वे दण्ड के रूप में लोगों को ‘जलोदर रोग’ से पीड़ित करते थे।
उत्तर वैदिक काल (1000-500) ई.पू.
इसका समय 1000 ई.पू.से 600 ई. पू. तक माना जाता हैं। परन्तु कही कही इस काल का समय 1000 ई.पू.से 500 ई. पू. तक माना जाता है। उत्तर वैदिक-काल में आर्य सभ्यता, पंजाब से निकलकर कुरुक्षेत्र अर्थात् गंगा यमुना के दोआब क्षेत्र में फैल गयी। इसी काल के अंतिम दौर में लगभग 500 ई. पू. में आर्य लोग कोसल, विदेह और अंग क्षेत्र से परिचित हो गये थे।
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था इस काल की विशेषता थी, इस काल में कबायली संरचना में दरार पड़ना और वर्ण व्यवस्था का जन्म तथा बडे, साम्राज्यों का उदय हुआ । इसी काल में उत्तरी भारत में लौह युग का आरम्भ हुआ। लौह तकनीकों का प्रयोग सर्वप्रथम युद्धास्त्रों के लिए होता था। लेकिन बाद में धीरे-धीरे कृषि एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों में होने लगा।
हस्तिनापुर, आलमगीरपुर, नोह, अतरंजीखेड़ा, वाटेसर आदि सभी कुरु पांचाल प्रदेश में ही पड़ते थे। वरछी, शीर्ष, बाणाग्र, कुल्हाड़ी तथा दराती प्राप्त हुई है। अभी तक के खुदाई से सबसे अधिक लौह अस्त्र अतरंजी खेड़ा से प्राप्त हुए हैं। राजत्व के दैवी उत्पत्ति के सिद्धान्त का प्रारम्भ इसी काल से शुरू हुआ माना जाता है। अतरंजी खेड़ा से जौ ,चावल तथा गेहूँ के अवशेष मिले हैं। हस्तिनापुर से चावल तथा जंगली किस्म के गन्ने मिले हैं।
इस काल में ब्राह्मण और क्षत्रिय जैसे अनुत्पादी वर्गों का उदय हो चुका था। कृषि के अतिरिक्त अन्य शिल्पों का उदय भी उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था की विशेषता थी।इस काल में अभी तक मुद्रा का आविर्भाव नहीं हुआ था। अत: बलि, भाग, शुल्क जो राजा को दिये जाते थे, वस्तु के रूप में ही होते थे।
वैदिक साहित्य में वर्णित निष्क कोई नियमित स्वर्ण मुद्रा न होकर, उस धातु का एक ढेर मात्र था। कौशांबी के उत्खनन कर्ता जी.आर.शर्मा का यह दावा है कि उन्हें वहाँ पर एक 900 ई.पू. का ताँबे का सिक्का मिला है जो मान्य नहीं हैं। ये लोग समुद्र से परिचित थे। उत्पादन के अपने कर्तव्य के अतिरिक्त वैश्यों को सेवाऐं भी देनी पड़ती थी।
इस काल में रजा स्रावतंत्जार होता था वह अपनी इच्छानुसार शूद्रों को पीट भी सकता था। यद्यपि एक पत्नी विवाह आदर्श माना जाता था लेकिन बहुपत्नी विवाह काफी प्रचलित था। याज्ञवल्क्य-गार्गी विवाद का उल्लेख मुंडकोपनिषद् में किया गया है। कुरु की राजधानी आसन्दीवत् (हस्तिनापुर) तथा पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी। उत्तर वैदिक काल में कुरु, पांचाल, कोशल, काशी तथा विदेह प्रमुख राज्य थे। जैमिनीय उपनिषेद ब्राह्मण महाग्रामों का उल्लेख करता है।
उत्तर वैदिक काल की राजनीतिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक काल में भी राजतंत्र ही लोकप्रिय शासन तंत्र था। कहीं-कहीं गणराज्यों के संकेत भी मिलते हैं।साम्राज्य का संस्थापक सम्राट कहलाता था। अब राजा सामान्य उपाधियों के स्थान पर राजाधिराज, सम्राट, एकराट जैसी विशाल उपाधियाँ धारण करता था। अथर्ववेद में एकराट सर्वोच्च शासक को कहा गया है।
राजसूय तथा अश्वमेध जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान कर सम्राट अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते थे।राजा देवता का प्रतीक समझा जाने लगा। जनता ने आपस में समझौता करके राजा को प्रतिष्ठित किया था।वैराज्य का तात्पर्य उस राज्य से है जहाँ राजा नहीं होता था।राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धान्त सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है।
अथर्ववेद में एक स्थान पर विश् के द्वारा राजा के निर्वाचन का उल्लेख है। अभिषेक, अनुष्ठान, राजसूय के नाम से विख्यात थे। राज्याभिषेक का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण से मिलता है। अभिषेक 17 प्रकार के जलों से होता था।अथर्ववेद में सभा और समिति दोनों को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है।सभा में संभवत: राज्य के वयोवृद्ध और सम्मानित व्यक्ति सम्मिलित होते थे। जबकि समिति में गाँव के सभी वयस्क सदस्य शामिल थे। सभा और समिति के साथ-साथ हमें विदथ नामक एक अन्य संस्था का उल्लेख मिलता है लेकिन प्रशासन में यह भाग नहीं लेती थी।
पंचविंश ब्राह्मण में रत्नियों को वीर कहा गया हैं, ये राज्य के पदाधिकारी थे। राजा एक मात्र राजकर का अधिकारी था वह ग्राम की भूमि का मौलिक स्वामी न था। इस काल में परिवार पितृ सत्तात्मक होता था। वाजसनेयी संहिता में ब्राह्मण, क्षत्रिय, शूद्र और आर्य का उल्लेख मिलता है। यहाँ आर्य शब्द समस्त आर्य समुदाय के लिए प्रयुक्त है।
ऋग्वेद में वैश्य शब्द नहीं मिलता है। सर्वप्रथम इसका उल्लेख उत्तर वैदिक साहित्य में हुआ है। उत्तर वैदिक साहित्य में इस वर्ण को ‘अन्यस्य बलिकृत’ कहा गया है। छान्दोग्य उपनिषद् चाण्डाल को श्वान और शूकर की कोटि में रखता है।
उत्तर वैदिक काल की आर्थिक व्यवस्था
ब्राह्मण तथा क्षत्रिय अधिकांशत: राजकीय करों से मुक्त थे। राज्य को कर का अधिकांश भाग वैश्यों से ही प्राप्त होता था। वैश्य को ब्राह्मण साहित्य में बलिकृत कहा गया है। आय का 16 वाँ भाग राजा को प्राप्त होता था। कालान्तर में नियमित करों की प्रतिष्ठा हुई और संग्रह करने के लिए भागदुध की नियुक्ति होने लगी। कभी-कभी राजा के लिए विशमत्ता का प्रयोग मिलता है। हाकिन्स ने इसका अर्थ जनता का भक्षक लगाया है।
शतपथ ब्राह्मण साहित्य में कृषि की चारों क्रियाओं-जोताई, बोआई, कटाई, मड़ाई का उल्लेख मिलता है।काष्क संहिता में 24 बैलों द्वारा खींचे जाने वाले हल का उल्लेख है। अथर्ववेद में दो प्रकार के धान का उल्लेख है- एक ब्रीहि तथा दूसरा तन्दुल । इसके अतिरिक्त इस वेद में यव (जौ), उड़द, गन्ना, तिल आदि का उल्लेख भी मिलता है। वर्ष में दो फसलें होती थी।वाजसनेयी संहिता में गोधूम (गेहूँ), यव, ब्रीहि (धान), उड़द, मूँग, मसूर, तिल, प्रियंग, निवार आदि की उपज का वर्णन है।
शतपथ ब्राह्मण में सूकर का वर्णन है। पशुओं में गाय, बैल, भेड़, बकरी, गधे आदि पशु प्रमुख रूप से पाले जाते थे। इस समय लोगों ने हाथी को पालना प्रारम्भ कर दिया था। अथर्ववेद में ऊँट गाड़ी का उल्लेख मिलता है।सोने और चाँदी के पश्चात् महत्त्वपूर्ण धातु अयस थी। मैक्समूलर का मत है कि लोह शब्द का अर्थ तांबे में प्रयुक्त होता था। तैत्तरीय संहिता में एक स्थान पर रजत के लिए रजतहिरण्य का प्रयोग मिलता है।
शपतथ ब्राह्मण में कुलाल चक्र का उल्लेख मिलता है। इससे प्रकट होता है कि मिट्टी के घड़े, प्याले, तश्तरियाँ आदि चक्र के ऊपर बनते थे। भिषक उत्तर वैदिक काल के चिकित्साशास्त्र में तंत्र-मंत्र का भी विशेष स्थान था। राजकर अन्न और पशुओं के रूप में दिया जाता था। शपतथ ब्राह्मण में पहली बार सहाजनी प्रथा का उल्लेख किया गया है। इस काल में चिकित्साशास्त्र में तंत्र-मंत्र का भी विशेष स्थान था। इस काल में अन्न और पशुओं के रूप में राज कर दिया जाता था ।
उत्तर वैदिक काल की सामाजिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक काल में ही रामायण और महाभारत का भी रचना काल मन जाता है रामायण का रचना काल 600 ई. पू और महाभारत का रचना काल 500 ई. पू. के लगभग माना जाता है क्योकि दक्षिण की ओर आर्यों का बढ़ना भी 800 ई. पू. माना जाता है। राम का दक्षिण को पारकर लंका पर विजय प्राप्त करने का वर्णन स्पष्ट रूप से दक्षिण में आर्यों के प्रवेश का संकेत है।
इस समय जो लोग आर्य जाती के नहीं थे उन जातियों को पणि या दास कहते थे। सामान्य रूप से गोमास खाना वर्जित था परन्तु कुछ अवसरों पर गोमांस खाना शुभ माना जाता था। उत्तर वैदिक काल में सेनापति और पुरोहित जो ब्राह्मण अक्सर ब्राह्मण हुआ करते थे, और राजा को शासन चलाने में मदद करते थे। आर्यों को द्विज अर्थात् दो बार जन्म लेने वाली जाति का कहा जाता था।
इस काल में बाल विवाह प्रथा नहीं थी परन्तु जीवन -साथी चुनने का पर्याप्त अवसर मिलता था। साथ ही साथ दहेज प्रथा प्रचलित थीं।इसके साथ ही अथर्ववेद में ऐसी कन्याओं का उल्लेख भी मिलता है जो अविवाहित रूप में रहकर आजीवन अपने माता-पिता के साथ रहती थी।
उत्तर वैदिक काल में विवाहित पुरुष को यज्ञ का अधिकार न था। यज्ञादि के लिए पुत्र आवश्यक था, उसकी प्राप्ति के लिए विवाह आवश्यक था ।तैत्तरीय संहिता से पता चलता है कि उत्तर वैदिक काल में विधवा विवाह की प्रथा भी प्रचलित थी । अथर्ववेद में एक स्थान पर पंचौदन क्रिया के द्वारा पत्नी और उसके द्वितीय पति के बीच अपार्थक्य और अभिन्नता उत्पन्न करने की योजना का जिक्र भी मिलता है। इस काल में अधिकांशत: सजातीय विवाह होते थे लकिन तैत्तरीय संहिता में आर्य पुरुष और शूद्र नारी के सम्बन्ध का उल्लेख है।
सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में कहीं पर भी ‘सपिण्ड शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। गोत्रों का उदय हो गया था। उपनिषदों में गौतम, भारद्वाज, कश्यप, भार्गव, कात्यायन आदि नाम मिलते हैं। ये सब गोत्रों के नाम थे।
सपिण्ड सगोत्र और सप्रवर विवाहों का उल्लेख सूत्रकाल में मिलता है। गौत्रीय वर्हिविवाह की प्रथा का आरम्भ हो गया था। उत्तर वैदिक काल में नारी की चतुर्मुखी शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था। अथर्ववेद का कथन है कि स्त्री के चार पति होते हैं (i) सोम (ii) अग्नि (iii) गन्धर्व (iv) वास्तविक पति।
प्रथम अवस्था (जिसमें उसका पति सोम कहा गया है) उसके सौन्दर्य, शील और संस्कृति के विकास की अवस्था है। द्वितीय अवस्था में (जिसमें उसका पति अग्नि कहा गया है) कन्या में चारित्रिक भावना का विकास होता है। तृतीय अवस्था में (जब उसका पति गन्धर्व बताया गया है) उसे नृत्य संगीत तथा अन्य ललित कलाओं की शिक्षा दी जाती है।
अथर्ववेद के अनुसार स्त्रियाँ पति के साथ यज्ञ में सम्मिलित होती थी। उत्तर वैदिक कालीन आर्य समाज स्त्री की घरेलू शिक्षा के प्रति भी उदासीन न था। पितृकाल में कन्याओं को पाक शास्त्र की शिक्षा दी जाती थी।
समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी नहीं थी। अथर्ववेद में पुत्री के जन्म पर खिन्नता उल्लेखनीय है। एतरेय ब्राह्मण पुत्री को कृपण कहता था । मैत्रायणी संहिता में मनु की दस पत्नियों का उल्लेख मिलता है। स्त्रियों को पर्याप्त शिक्षा दी जाती थी वे उत्सवों तथा धार्मिक समारोहों में भाग ले सकती थी। परन्तु स्त्रियों को राजनीतिक तथा धन सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे। उनकी सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिष्ठा ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा कम हो गयी थी ।
इस काल में मैत्रीयणी संहिता प्रचलित थी जो स्त्री को द्यूत और मदिरा की श्रेणी में रखती है। इस काल में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। वस्त्रों के ऊपर कढाई का काम भी स्त्रियाँ करती थीं। ऐसी स्त्री को पेशस्कारी कहते थे।
तैत्तरीय संहिता में ऋण के लिए कुसीद शब्द तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिए कुसीदिन शब्द मिलता है। ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिए कुसीदिन शब्द मिलता है। उत्तरवैदिक काल में साधारण व्यापार विनिमय द्वारा होता था। इस समय भी गाय व्यापार का माध्यम थी।
उत्तर वैदिक में निष्क का प्रयोग आभूषण और निश्चित तौल के धातु खण्ड दोनों रूपों में होता है। जल तथा थल दोनों मार्गों से व्यापार होता था। शतमान भी क्रय-विक्रय का माध्यम था। सिक्के का प्रचलन नहीं था। गन्धार, बलूचिस्तान, पूर्वी पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 1000 ई. पू. के लगभग लोहे का प्रयोग प्रारम्भ हो चुका था।
इस काल में चावल को दूध में पकाया जाता था। जिसे क्षीरौदन कहा जाता था। तथा दूध में पके हुए तिल को तिलौंदन कहा जाता था। गेहूँ, जौ, चावल आदि अन्नों को पीसकर बनाये गये पदार्थ पिष्ट कहलाते थे। उत्तर वैदिक काल में मांसाहार प्रचलित था। बैल, बकरी, भेड़ आदि का मांस विशेष रूप से खाया जाता था। पेय पदार्थों में सोम रस सर्वोत्कृष्ट समझा जाता था।
मनोरंजन के लिए घुड़दौड़ ,रथदौड़ तथा आखेट करना आदि प्रचलित थे। इस काल में पासे अथवा चौपड़ का खेल बहुत ही लोकप्रिय था। आर्यों में संगीत व नृत्य का बड़ा महत्त्व था। पुरुष के अतिरिक्त स्त्रियाँ भी सम गान करती थी। वाद्य यन्त्रों में वीणा, शंख आदि का उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में विश्ववारा ,घोषा, तथा अपाला आदि महिलायें ब्रह्म और आत्मा तथा विश्व और आत्मा के दार्शनिक रहस्यों का चिंतन करती थी। इस काल में शिक्षा का लक्ष्य आत्मज्ञान प्राप्त करना था। उत्तर वैदिक काल में शिक्षा राजकीय संस्थाओं में नहीं दी जाती थी, बल्कि विद्वान ब्राह्मणों द्वारा व्यक्तिगत आधार पर दी जाती थी। अत: इस समय गुरुकुल शिक्षा के केन्द्र हुआ करते थे।उत्तर वैदिक ग्रन्थों में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है– (i) ब्रह्मचर्य (ii) गृहस्थ (iii) वानप्रस्थ
उत्तर वैदिक काल की धार्मिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक में ऋग्वैदिक काल के वरुण, इन्द्र आदि का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रूद्रशिव ने ले लिया। इस काल में राजसूय, तथा अश्वमेघ जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान किया जाने लगा। प्रेतात्माओं, जादू टोना, इन्द्रजाल, वंशीकरण आदि में लोगों का विश्वास बढ़ रहा था। ऋग्वेद में जहाँ कुल सात पुरोहित हुआ करते थे वही इस काल में बढ़कर 17 पुरोहित हो गये थे जिसमे एक मुख्य पुरोहित के रूप में सारे यज्ञ का पर्यवेक्षण करता था।
उत्तर वैदिक काल में यज्ञ से सम्बन्धित एक महान् देवता के रूप में विष्णु का आविर्भाव हो चुका था। पुनर्जन्म का सिद्धान्त सर्व प्रथम शतपथ ब्राह्मण के कुल में मन जाता था । हिन्दुत्व के प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्तों इस युग में ही आये। उपनिषदों की शिक्षा का मुख्य उद्देश्य तत्त्व ज्ञान प्राप्त करके इस माया रूपी संसार से मुक्ति प्राप्त करना था ।
उत्तर वेदिक कालीन संस्कृति सम्पूर्ण वैदिक दर्शन का सार है। आत्मा का ब्रह्म से तादात्म्य और मोक्ष, आत्मा का ब्रह्म में विलीन हो जाने से प्राप्त होता है। मायावाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन इसी युग में हुआ। इस युग में देवों के अतिरिक्त पितरों का श्राद्ध तर्पण भी आरम्भ हो चुका था । श्राद्ध की प्रथा सर्वप्रथम दत्रोत्रय ऋषि के बेटे निमि ने चलाई थी । ऋषदर्शन तथा भागवत सम्प्रदाय का बीजारोपण इसी समय हुआ।
वैदिक काल से सम्बंधित महत्वपूर्ण तथ्य
- वृहदारण्यक तथा छान्दोग्य उपनिषदों में कहा गया हैं कि ब्रह्म लोक में सभी समान माने जाते हैं। सर्वप्रथम उत्त्र कालीन वैदिक ग्रन्थों में विशाल नगरों का उल्लेख हुआ।
- सदानीरा– राप्ती या गंडक को कहा जाता था।
- शल्य क्रिया का उल्लेख अथर्ववेद में प्राप्त होता है।
- चित्रित धूसर मृदभाण्ड इस युग की मुख्य विशेषता है।
- आर्य जगत का केन्द्र मध्य देश था।
- वेदांग संख्या में छ: हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द, ज्योतिष।
- वैदिक सभ्यता तथा सिन्धु सभ्यता में मुख्य अन्तर इस प्रकार है –
- वैदिक सभ्यता ग्राम्य और कृषि प्रधान जबकि सिन्धु सभ्यता नगरीय और व्यापार प्रधान थी।
- आर्य मूर्ति पूजक नहीं थे, जबकि सैन्धव मूर्तिपूजक थे।
- वैदिक जीवन में अग्नि का विशेष महत्त्व था जबकि सिन्धु निवासियों के धार्मिक जीवन में इसका कोर्इ विशेष महत्त्व नहीं था।
- वैदिक लोग लोहे से परिचित थे लेकिन सैन्धव लोग नहीं थे।
- वैदिक लोग घोड़े से परिचित थे लेकिन सिन्धु निवासी घोड़े से अपरिचित थे।
- वैदिक लोग व्याघ्र और हाथी से भली-भांति परिचित नहीं थे जबकि सिन्धु निवासी भली भांति परिचित थे।
- वैदिक लोग मांसाहारी होते हुए भी मछली का प्रयोग नहीं करते थे जबकि सैन्धव लोग मछली के प्रेमी थे।
- इस्वांक्षु – सूर्यवंशी,
- इला-चन्द्रवंशी
- ऋग्वेद में 1017 मंत्र हैं। ऋग्वेद में 10462 श्लोक है।
- ऋग्वेद का कार्य काल 1500 से 1000 ई . पू. था।
- गविष्टि – गायों की गवेषणा थी। इसी प्रकार गवेषण, गोषु, गव्य, गभ्य आदि सभी युद्ध के लिए प्रयुक्त होते थे। चूँकि पशु ही सम्पत्ति का मुख्य अंग था इसलिए इसमें पशुओं की चोरी तथा युद्ध होना सामान्य बात थी।
- रयि का अर्थ सम्पत्ति होता था।
- वैदिक साहित्य में आर्य निवास के लिए सप्तसैंधव शब्द का प्रयोग किया गया है। पर्याप्त मतभेदों के बावजूद जिसे आजकल पंजाब (भारत व पाकिस्तान का इलाका) कहा जाता है सम्भवत: सप्तसैंधव वही क्षेत्र था।
- वैदिक काल की सप्तसैंधव – सिंधु, सरस्वती, शतुद्रि (सतलज), विपासा (व्यास) परूष्णी (रावी), अस्किनी (चिनाब), वितस्ता (झेलम), इसके अतिरिक्त कुभा (काबुल), सुस्वातु (स्वात), गोमती (गोमल), क्रुमु (कुर्रम) आदि नदियों का उल्लेख है।
- ऋग्वेद में सरस्वती नदी का बड़ा महत्त्व था। पशुचारण की तुलना में कृषि का धन्धा नगण्य था। उर्दर, धान्य, वपंति ये तीन शब्द कृषि के लिए प्रयुक्त हुए हैं। कृष-खेती करना, कृष्टि शब्द का उल्लेख 33 बार हुआ है। ऋग्वेद में एक ही अनाज यव का उल्लेख हुआ था ।
- ब्राह्मण ग्रन्थ – ये गद्य रचनायें हैं।
- आरण्यक – ये ग्रन्थ वन में लिखे गये थे।
- अदेवयु – देवताओं में श्रद्धा न रखने वाले।
- अब्रह्मण – वेदों को न मानने वाले।
- अनार्य – चपटी नाक वाले।
- अयज्वन् – यज्ञ न करने वाले।
- मृध्रवाक – कटु वाणी वाले।
वैदिक साहित्य
- वेद से संबंधित ब्राह्मण ग्रन्थ का एतरेय और कौषीतकि ब्राह्मण थे।
- शुक्ल यजुर्वेद का शतपथ ब्राह्मण था।
- कृष्ण यजुर्वेद का तैतिरीय ब्राह्मण था।
- सामवेद का पंचविश षड्विश, छान्दोग्य उपनिषद आदि थे।
- अथर्ववेद का गोपथ ब्राह्मण था।
- इस समय सात आरण्यक उपलब्ध थे – ऐतरेय, शाखायन, तैत्तरीय, माध्यन्दिन, याध्यन्दिन बृहदारण्यक, तलकार और आरण्यका।
- ब्राह्मण गद्य साहित्य के सर्वप्राचीन ग्रन्थ हैं।
- उपनिषदों में हम वैदिक चिन्तन का चरम विकास पाते हैं इसी कारण इन्हें वेदान्त भी कहा गया है। उपनिषदों की रचना गंगा घाटी में हुई ।
- वैदिक संहिताएं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद।
- यजुर्वेद – दो भाग – कृष्ण यजुर्वेद तथा शुक्ल् यजुर्वेद
- वेदांग – (छ:) शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, ज्योतिष एवं दन्दछन्द
- कल्पसूत्र – श्रौतसूत्र, गृह्य सूत्र, धर्मसूत्र और शूल्वसूत्र
- प्रमुख उपवेद – आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद, शिल्पवेद
- पुराण की संख्या – 18
वेदांग
- शिक्षा को वेद की नासिका कहा गया है।
- कल्प को वेद का हाथ कहा गया है।
- व्याकरण का वेद का मुख कहा गया है।
- निरुक्त को वेद का श्रोत कहा गया है।
- छन्द को वेद को दोनों पैर कहा गया है।
- ज्योतिषि को वेद का नेत्र कहा गया है।
सूत्र साहित्य
- स्रौत सूत्र– इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियमों का उल्लेख है।
- गृहसूत्र– इसमें मनुष्यों के लौकिक एवं पारलौकिक कर्तव्यों का विवेचन है।
- धर्म सूत्र– इसमें सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक कत्तव्यों का विवरण हैं
- शुल्ब सूत्र – इसमें यज्ञवेदी के निर्माण से संबद्ध नाप आदि का तथा वेदी के निर्माण आदि के नियमों का वर्णन है।
शतपथ ब्राह्मण में रत्नियों की संख्या
- सेनानी
- पुरोहित
- युवराज
- महिषी
- सूत
- ग्रामिणी
- क्षता
- संग्रहीता
- भागदुध
- अक्षवाप
- पालागल
उत्तर वैदिक काल के प्रमुख यज्ञ
- राजसूय यज्ञ– राजा के राज्याभिषेक हेतु सम्पादित होता था।
- अश्वमेघ यज्ञ– यह अन्य राज्यों को चुनौती के उद्देश्य से एक अभिषिक्त घोड़े को छोड़कर सम्पादित किया जाता था। यह राजा के प्रभुत्व का प्रतीक था।
- वाजपेय यज्ञ – इस यज्ञ में राजा रथों की दौड़ का आयोजन करता था। इसका उद्देश्य प्रजा के मनोरंजन के साथ राजा द्वारा शौर्य प्रदर्शन होता था।
- अग्निष्टोम यज्ञ – यह यज्ञ एक दिन का होता था इसमें प्रात: दोपहर तथा शाम को सोम पीसा जाता था तथा अग्नि को पशुबलि दी जाती थी।
- पंचमहायज्ञ– ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ तथा नृयज्ञ ये पंच महायज्ञ कहलाते है। गृहस्थों के लिए यह पाँचों यज्ञ करना आवश्यक था।
ऋषि और मंडल
- गृत्समद – द्वितीय मंडल
- विश्वामित्र – तृतीय मंडल
- वामदेव – चतुर्थ मंडल
- अत्रि – पंचम मंडल
- भारद्वाज – षष्ठम मंडल
- वशिष्ठ – सप्तम मंडल
यह ग्यान धरोहर है और यह महत्वपूर्ण तथ्य अध्ययन योग्य है ।