भारत में जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था एक प्राचीन सामाजिक संरचना है, जिसका आधार कर्म (व्यवसाय) और जन्म पर टिका हुआ है। यह व्यवस्था हजारों वर्षों से भारतीय समाज में व्याप्त है और सामाजिक तथा आर्थिक जीवन को गहराई से प्रभावित करती रही है।
वर्ण व्यवस्था
आर्य समाज के लोग गौर वर्ण के थे। वैदिक काल के प्रारंभ में आर्य समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तीन वर्णों में ही विभाजित था। परन्तु जब आर्यों का अनार्यों के साथ युद्ध हुआ तो पराजित अनार्यों को भी आर्य समाज में जगह दी गई। परन्तु इन पराजित अनार्यों से खेतों में कार्य कराया गया तथा उन्हें नौकर और मजदूर बना कर रखा गया। और इनको एक नये वर्ण के रूप में आर्य समाज में रखा गया जिसको शूद्र वर्ण नाम दिया गया।
इस प्रकार से आर्यों ने उस समय अपने समाज को उस समय के रहने वाले लोगों के व्यवसाय अथवा कार्य के अनुसार चार भागों अथवा वर्णों में बांट रखा था जिनके नाम थे –
- ब्राह्मण | Brahmin (Priests, Scholars, Teachers)
- वेदों के अध्ययन, यज्ञ-याग, शिक्षा और धर्म के प्रचार का कार्य करते थे।
- समाज में सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और इन्हें ज्ञान तथा आध्यात्मिकता का प्रतिनिधि माना जाता था।
- क्षत्रिय | Kshatriya (Warriors, Rulers, Administrators)
- राजा, योद्धा और प्रशासनिक कार्यों में संलग्न रहते थे।
- समाज की रक्षा, शासन और न्याय व्यवस्था का उत्तरदायित्व निभाते थे।
- वैश्य | Vaishya (Farmers, Merchants, Artisans, Herders)
- व्यापार, कृषि और अर्थव्यवस्था के संचालन में संलग्न रहते थे।
- इन्हें समाज के आर्थिक पक्ष को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी दी गई थी।
- सूद्र | Shudra (Farm Workers, Servants, Laborer)
- सेवा कार्यों में लगे रहते थे और अन्य तीन वर्णों की सहायता करते थे।
- समाज में निम्न स्थान दिया गया, हालांकि बाद में भक्ति आंदोलन और समाज सुधारकों ने इनके उत्थान के प्रयास किए।
इसके अलावा एक और वर्ग समाज में रहता था जिसको अछूत (untouchable) कहा जाता था जिनसे सभी वर्गों के लोग दूरियां बना कर रहते थे। इनमे बहुत ही निम्न तबके के लोग आते थे जिनके पास कुछ नहीं होता था। ये लोग संभवतः चर्मकार (Tanners) और धोबी (Laundresses) का कार्य करते थे।
आर्यों की वर्ण व्यवस्था प्रारंभ में समाज के सुचारू संचालन के लिए बनाई गई थी, लेकिन समय के साथ यह जन्म-आधारित और कठोर हो गई, जिससे सामाजिक असमानता बढ़ी। आधुनिक भारत में जाति प्रथा के प्रभाव को कम करने के लिए कई सुधार किए गए हैं, और अब समानता तथा सामाजिक न्याय पर अधिक जोर दिया जाता है।
वर्ण व्यवस्था की विशेषताएँ
- कर्म आधारित विभाजन – प्रारंभ में यह जन्म के बजाय कर्म और गुणों पर आधारित थी।
- व्यवसायगत वर्गीकरण – समाज को संगठित रूप से चलाने के लिए कार्यों का विभाजन किया गया था।
- समय के साथ कठोरता – प्रारंभ में लचीली रही यह व्यवस्था बाद में जन्म-आधारित हो गई और सामाजिक भेदभाव बढ़ा।
- धार्मिक समर्थन – मनुस्मृति और अन्य ग्रंथों में वर्ण व्यवस्था को धार्मिक आधार मिला, जिससे यह समाज में गहराई से स्थापित हो गई।
जाति व्यवस्था
वर्ण व्यवस्था से ही जाति व्यवस्था का विकास हुआ, जो जन्म-आधारित सामाजिक संरचना बन गई। यह व्यवस्था कर्म की बजाय जन्म पर आधारित हो गई, जिससे समाज में ऊँच-नीच, भेदभाव और अस्पृश्यता जैसी समस्याएँ उत्पन्न हुईं। जाति व्यवस्था मुख्य रूप से निम्नलिखित विशेषताओं पर आधारित रही:
- आजीविका आधारित जातियाँ – प्रत्येक जाति का एक पारंपरिक व्यवसाय होता था।
- विवाह प्रतिबंध (अंतर्जातीय विवाह निषेध) – एक जाति के लोग आमतौर पर अपनी ही जाति में विवाह करते थे।
- भोजन संबंधी नियम – उच्च जातियाँ निम्न जातियों से भोजन स्वीकार नहीं करती थीं।
- सामाजिक विभाजन – उच्च जातियों को विशेषाधिकार प्राप्त थे, जबकि निम्न जातियों को भेदभाव और शोषण का सामना करना पड़ा।
जाति व्यवस्था के प्रभाव
सकारात्मक प्रभाव
- समाज में श्रम विभाजन हुआ, जिससे कारीगरी, व्यापार और प्रशासनिक कार्यों का संगठन हुआ।
- कई जातियों ने विशिष्ट कौशल विकसित किए, जिससे परंपरागत कलाएँ और व्यवसाय फले-फूले।
नकारात्मक प्रभाव
- सामाजिक भेदभाव और असमानता बढ़ी।
- जाति आधारित शोषण और अस्पृश्यता ने निचली जातियों के उत्थान को बाधित किया।
- जातिवाद ने सामाजिक एकता को कमजोर किया और समाज में संघर्ष को जन्म दिया।
जाति व्यवस्था में परिवर्तन
- भक्तिकाल में सुधार – संत कबीर, गुरु नानक, रविदास, चैतन्य महाप्रभु जैसे संतों ने जातिवाद का विरोध किया।
- ब्रिटिश काल में परिवर्तन – अंग्रेजों ने जाति आधारित जनगणना की और कुछ जातियों को विशेषाधिकार दिए, जिससे समाज में नई सामाजिक गतिशीलता आई।
- संविधान और सामाजिक सुधार – भारतीय संविधान ने जाति आधारित भेदभाव को समाप्त करने के लिए कई प्रावधान किए।
- अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम
- आरक्षण नीति – शिक्षा और नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को आरक्षण दिया गया।
- अस्पृश्यता निषेध अधिनियम, 1955
आधुनिक भारत में जाति व्यवस्था
हालांकि कानूनी रूप से जाति आधारित भेदभाव समाप्त कर दिया गया है, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक रूप से जाति अभी भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- राजनीति में जाति का प्रभाव – चुनावों में जातिगत समीकरण महत्वपूर्ण होते हैं।
- शहरीकरण और जाति – शहरीकरण और औद्योगीकरण से जाति का प्रभाव कम हो रहा है, लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है।
- जातिगत आरक्षण पर बहस – कुछ लोग इसे सामाजिक न्याय का साधन मानते हैं, जबकि कुछ इसे मेरिट के खिलाफ मानते हैं।
अन्य धर्मों पर जाति एवं वर्ण व्यवस्था का प्रभाव
भारत में जाति और वर्ण व्यवस्था का प्रभाव न केवल हिंदू समाज तक सीमित रहा, बल्कि यह अन्य धर्मों—बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम और ईसाई धर्म पर भी पड़ा। भले ही ये धर्म जातिविहीन समाज की अवधारणा को अपनाने का प्रयास करते रहे, लेकिन सामाजिक संरचना के कारण जाति व्यवस्था उनमें भी किसी न किसी रूप में प्रवेश कर गई।
जाति और वर्ण व्यवस्था ने भारत के विभिन्न धर्मों को प्रभावित किया। हालांकि बौद्ध, जैन, सिख, इस्लाम और ईसाई धर्म समानता की अवधारणा को मानते हैं, लेकिन भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत प्रवृत्तियों ने इन धर्मों को भी प्रभावित किया। आधुनिक समय में सामाजिक सुधार और शिक्षा ने जातिवाद को कमजोर करने की कोशिश की है, लेकिन यह अब भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है।
बौद्ध धर्म पर प्रभाव
बौद्ध धर्म मूल रूप से जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के विरोध में अस्तित्व में आया था। गौतम बुद्ध ने कर्म और ज्ञान को सामाजिक स्थिति से अधिक महत्वपूर्ण बताया।
प्रभाव
- प्रारंभ में बौद्ध धर्म ने जातिवाद का विरोध किया, जिससे इसे निम्न जातियों का समर्थन मिला।
- समय के साथ, भारत में हीनयान और महायान संप्रदायों के बीच विभाजन हुआ, और जाति का प्रभाव बौद्ध मठों में भी दिखने लगा।
- कुछ क्षेत्रों में, उच्च जातियों ने बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद भी अपनी जाति-आधारित श्रेष्ठता बनाए रखी।
जैन धर्म पर प्रभाव
जैन धर्म भी अहिंसा, समानता और जातिविहीन समाज की अवधारणा का समर्थक था, लेकिन समाज में व्याप्त जातिगत प्रवृत्तियों ने इसे प्रभावित किया।
प्रभाव
- प्रारंभ में जैन धर्म ने जाति व्यवस्था को अस्वीकार किया।
- धीरे-धीरे जैन समाज में भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों का प्रभाव दिखने लगा।
- दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायों के बीच विभाजन हुआ, और कई जैन परिवारों ने जातिगत पहचान बनाए रखी।
सिख धर्म पर प्रभाव
गुरु नानक और अन्य सिख गुरुओं ने जातिवाद का कड़ा विरोध किया और लंगर (सामूहिक भोजन) जैसी परंपराएँ शुरू कीं, जिससे जाति के आधार पर भेदभाव समाप्त हो।
प्रभाव
- सिख धर्म में जाति की कोई आधिकारिक मान्यता नहीं है, लेकिन समाज में जातिगत पहचान बनी रही।
- पंजाब में जाट सिख, मजहबी सिख (दलित), रामगढ़िया और खत्री सिखों जैसी जातियाँ बनी रहीं।
- गुरुद्वारों में लंगर की परंपरा ने जातिगत भेदभाव को कम करने में मदद की, लेकिन सामाजिक स्तर पर जातिगत संरचना बनी रही।
इस्लाम पर प्रभाव
इस्लाम समानता और भाई-चारे पर आधारित धर्म है, लेकिन भारत में इसे जाति व्यवस्था के प्रभाव से बचना कठिन हुआ।
प्रभाव
- भारतीय मुस्लिम समाज में अशराफ (उच्च वर्ग, जैसे सैयद, शेख, पठान, मुगल) और अजलाफ (स्थानीय या परिवर्तित मुस्लिम, जिनमें पिछड़ी जातियों के लोग शामिल हैं) का भेद देखा गया।
- कुछ क्षेत्रों में पसमांदा मुस्लिम (दलित और पिछड़े वर्ग) के साथ भेदभाव जारी है।
- इस्लाम में जाति का प्रभाव उतना प्रबल नहीं रहा जितना हिंदू समाज में, लेकिन सामाजिक विभाजन बना रहा।
ईसाई धर्म पर प्रभाव
ईसाई धर्म जाति और वर्ण के खिलाफ था, लेकिन भारत में इसका अनुसरण करने वालों ने जातिगत पहचान को बनाए रखा।
प्रभाव
- भारतीय ईसाई समाज में भी उच्च जाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, नायर, रेड्डी) और निम्न जाति (दलित ईसाई) का अंतर बना रहा।
- चर्चों में भी जातिगत भेदभाव देखा गया, खासकर दक्षिण भारत में।
- दलित ईसाइयों को सामाजिक और आर्थिक भेदभाव का सामना करना पड़ा, जिससे वे अनुसूचित जाति के आरक्षण के लिए संघर्ष करते रहे।
भारत में जाति और वर्ण व्यवस्था का वितरण
भारत में जाति और वर्ण व्यवस्था विभिन्न क्षेत्रों, धर्मों और सामाजिक समूहों में अलग-अलग रूपों में प्रचलित रही है। निम्नलिखित तालिका जाति व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को सारांश रूप में प्रस्तुत करती है:
1. वर्ण आधारित वर्गीकरण
वर्ण | परंपरागत कार्य | वर्तमान परिदृश्य |
---|---|---|
ब्राह्मण | शिक्षा, पूजा-पाठ, यज्ञ, पुरोहित कार्य | शिक्षक, प्रशासनिक अधिकारी, धार्मिक नेता, राजनीति |
क्षत्रिय | शासक, योद्धा, रक्षा कार्य | सेना, पुलिस, प्रशासन, राजनीति |
वैश्य | व्यापार, कृषि, पशुपालन | उद्योगपति, व्यापारी, कारोबारी |
शूद्र | सेवा कार्य, श्रम कार्य | मजदूरी, कारीगरी, कृषि श्रमिक |
2. जाति व्यवस्था का धार्मिक आधार पर वितरण
धर्म | जातिगत प्रभाव |
---|---|
हिंदू धर्म | वर्ण व्यवस्था स्पष्ट रूप से मौजूद, जातियों में विभाजन प्रमुख |
बौद्ध धर्म | जातिवाद का विरोध, लेकिन कुछ जातिगत पहचान बनी रही |
जैन धर्म | जाति आधारित विभाजन कम, लेकिन पारंपरिक सामाजिक वर्गीकरण मौजूद |
सिख धर्म | जाति व्यवस्था का विरोध, फिर भी जाट, मजहबी सिख जैसे वर्ग मौजूद |
इस्लाम | आधिकारिक रूप से जातिविहीन, लेकिन अशराफ, अजलाफ, पसमांदा जैसी श्रेणियाँ |
ईसाई धर्म | समानता की शिक्षा, लेकिन उच्च जाति और दलित ईसाईयों के बीच भेदभाव |
3. जातिगत वर्गीकरण एवं आरक्षण प्रणाली
श्रेणी | प्रमुख जातियाँ | आरक्षण (%) |
---|---|---|
अनुसूचित जाति (SC) | चमार, पासी, बाल्मीकि, कोरी आदि | 15% |
अनुसूचित जनजाति (ST) | गोंड, भील, संथाल, मीणा आदि | 7.5% |
अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) | यादव, कुर्मी, जाट, गुर्जर, कोली आदि | 27% |
सामान्य वर्ग (GEN) | ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया, कायस्थ आदि | कोई आरक्षण नहीं* |
(*आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के लिए 10% आरक्षण लागू किया गया है।)
4. भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जाति का वितरण
क्षेत्र | प्रमुख जातियाँ |
---|---|
उत्तर भारत | ब्राह्मण, राजपूत, यादव, जाट, कुर्मी, चमार, पासी |
दक्षिण भारत | ब्राह्मण (अयंगर, अय्यर), रेड्डी, नायर, वोक्कालिगा, दलित जातियाँ (पल्लर, परैया) |
पूर्वी भारत | कायस्थ, भूमिहार, राजवंशी, संताल, उरांव |
पश्चिमी भारत | मराठा, कोली, मीणा, गडरिया, ब्राह्मण |
जाति और वर्ण व्यवस्था भारत में समाज की एक गहरी जड़ वाली संरचना रही है। हालांकि आधुनिक कानून और संविधान ने इसे कमजोर करने का प्रयास किया है, लेकिन जाति की भूमिका अब भी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बनी हुई है
जाति एवं वर्ण व्यवस्था की आलोचना करने वाले प्रमुख विचारक
जाति और वर्ण व्यवस्था के खिलाफ कई समाज सुधारकों, धार्मिक नेताओं और आधुनिक विचारकों ने आवाज उठाई। उन्होंने इसे सामाजिक असमानता, भेदभाव और अन्याय का स्रोत माना।
प्राचीन एवं मध्यकालीन आलोचक
विचारक | समयकाल | मुख्य विचार |
---|---|---|
गौतम बुद्ध | 563-483 ईसा पूर्व | कर्म और आचरण को महत्व दिया, जाति को अस्वीकार किया। |
महावीर स्वामी | 599-527 ईसा पूर्व | समानता पर बल दिया, जाति आधारित भेदभाव का विरोध किया। |
कबीरदास | 15वीं सदी | जाति-पांति के खिलाफ दोहे लिखे, “जाति न पूछो साधु की”। |
गुरु नानक | 1469-1539 | सिख धर्म की स्थापना की, जातिवाद का विरोध किया। |
रविदास | 15वीं सदी | समाज में समानता और जातिविहीन समाज की वकालत की। |
आधुनिक भारत के प्रमुख आलोचक
विचारक | समयकाल | मुख्य योगदान |
---|---|---|
राजा राममोहन राय | 1772-1833 | जाति-आधारित भेदभाव को अस्वीकार किया, सामाजिक सुधारों की शुरुआत की। |
ज्योतिबा फुले | 1827-1890 | शूद्रों और महिलाओं की शिक्षा के लिए कार्य किया, “गुलामगिरी” पुस्तक लिखी। |
स्वामी विवेकानंद | 1863-1902 | जाति व्यवस्था की आलोचना की, मानवता को सर्वोपरि बताया। |
पेरियार ई.वी. रामास्वामी | 1879-1973 | द्रविड़ आंदोलन का नेतृत्व किया, ब्राह्मणवाद और जातिवाद का कड़ा विरोध किया। |
डॉ. भीमराव अंबेडकर | 1891-1956 | “जाति का विनाश” पुस्तक लिखी, संविधान में जातिगत भेदभाव के खिलाफ कानून बनाए। |
महात्मा गांधी | 1869-1948 | अस्पृश्यता के खिलाफ “हरिजन आंदोलन” चलाया |
समकालीन आलोचक
विचारक | मुख्य योगदान |
---|---|
कांशीराम | बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना की, दलितों के राजनीतिक सशक्तिकरण पर जोर दिया। |
राम मनोहर लोहिया | “पिछड़ा पावे सौ में साठ” का नारा दिया, सामाजिक न्याय की वकालत की। |
यू.आर. अनंतमूर्ति | साहित्य में जाति व्यवस्था की आलोचना की, “संस्कार” उपन्यास लिखा। |
अरुंधति रॉय | जातिवाद और ब्राह्मणवाद की आलोचना की, “द डॉक्टर एंड द सेंट” लेख लिखा। |
जाति व्यवस्था की आलोचना प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक होती रही है। समाज सुधारकों और विचारकों ने इसे असमानता, शोषण और अन्याय का कारण बताया। भारतीय संविधान और कानूनी सुधारों के बावजूद जातिवाद पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, लेकिन इन आलोचकों के प्रयासों से समाज में जागरूकता बढ़ी है और समानता की दिशा में प्रगति हुई है।
जाति और वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज का एक ऐतिहासिक हिस्सा रही है, जिसने समाज को एक संरचना दी, लेकिन समय के साथ यह भेदभाव और असमानता का कारण भी बनी। संविधान और कानूनी सुधारों के बावजूद जाति की भूमिका अभी भी बनी हुई है। सामाजिक जागरूकता, शिक्षा और आर्थिक सुधार जातिवाद को समाप्त करने में सहायक हो सकते हैं, जिससे एक समतावादी समाज का निर्माण संभव हो सके।
Polity – KnowledgeSthali
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