प्राकृतिक संसाधन किसी भी देश की अर्थव्यवस्था की नींव होते हैं। वे न केवल आर्थिक संरचना के विकास का आधार प्रदान करते हैं, बल्कि किसी देश के विकास की गति, दिशा और स्वरूप को भी तय करते हैं। वनों से प्राप्त वनोपज, खनिजों से प्राप्त कच्चा माल, कृषि उत्पादों से मिलने वाला भोजन, जल, वायु, मिट्टी तथा ऊर्जा के स्रोत – ये सभी तत्व अर्थव्यवस्था के सुचारु संचालन और विस्तार के लिए आवश्यक हैं।
वर्तमान युग में, जब हम सतत विकास (sustainable development) की बात करते हैं, तब प्राकृतिक संसाधनों का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है। यह आवश्यक हो जाता है कि हम इन संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग करें ताकि भावी पीढ़ियाँ भी इनका लाभ उठा सकें। इस लेख में हम विस्तारपूर्वक समझने का प्रयास करेंगे कि प्राकृतिक संसाधन किस प्रकार किसी देश की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करते हैं, उनका विकास में क्या योगदान है, और इनसे जुड़ी कौन-कौन सी चुनौतियाँ सामने आती हैं।
प्राकृतिक संसाधनों की परिभाषा
प्राकृतिक संसाधन वे सभी तत्व हैं जो हमें प्रकृति से बिना मानवीय हस्तक्षेप के प्राप्त होते हैं और जिनका उपयोग मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करता है। इनमें भूमि, जल, वायु, खनिज, वन, पशुधन, जलवायु, सूर्य की ऊर्जा आदि शामिल हैं। इन्हें दो भागों में बाँटा जा सकता है –
- नवीकरणीय संसाधन (Renewable Resources) जैसे – जल, वन, सूर्य की ऊर्जा, पवन, आदि।
- अ-नवीकरणीय संसाधन (Non-Renewable Resources) जैसे – कोयला, पेट्रोलियम, खनिज आदि।
अर्थव्यवस्था और प्राकृतिक संसाधनों का संबंध
किसी देश की अर्थव्यवस्था का स्वरूप, विकास का स्तर एवं विकास की गति उस देश में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की मात्रा, उनकी विविधता एवं गुणवत्ता पर निर्भर रहती है। वास्तव में प्राकृतिक संसाधन अर्थव्यवस्था के लिए एक प्रकार से आधार प्रस्तुत करते हैं और उसके लगभग हर पहलू को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए जलवायु का प्रभाव देश की वनस्पति, खेती की पैदावार, वहाँ के निवासियों की आवश्यकताएँ, व्यवसाय, कार्यक्षमता और उद्योगों की स्थिति आदि पर पड़ता है।
खेती की विविधता तथा उत्पादकता बहुत बड़ी सीमा तक उस स्थान की भूमि व मिड्डी पर निर्भर करती है। वनों से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को अनेक प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष लाभ प्राप्त होते हैं। इसमें ईंधन, इमारती लकड़ी, अनेक वनोपजें आदि प्राप्त होते है जिनके आधार पर विभिन्न प्रकार के उद्योगों की स्थापना होती है। साथ ही वर्षा और जलवायु पर वन अच्छा प्रभाव डालते हैं, बाढ़ के वेग को काम करते हैं, मिट्टी के कटाव को रोकते हैं। इसके साथ ही वनों से पशुओं को चारा और भूमि के लिए खाद प्राप्त होती है।
देश के आर्थिक विकास में खनिजों का तो और भी अधिक महत्वपूर्ण स्थान है। खानों से विभिन्न प्रकार के उद्योगों को कच्चामाल प्राप्त होता है। तेल एवं कोयला के रूप में ऊर्जा प्राप्त होती है। इसी प्रकार किसी देश का औद्योगिक विकास और परिणामस्वरूप सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था का स्वरूप एवं विकास का स्तर बहुत-कुछ वहाँ के खनिज संसाधनों का विशेष महत्व होता है। अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैण्ड, रूस आदि देशों के आर्थिक इतिहास से बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते है।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था उसके प्राकृतिक संसाधनों से सीधा संबंध रखती है। अर्थव्यवस्था का विकास, उद्योगों की स्थापना, कृषि की उत्पादकता, परिवहन, ऊर्जा उत्पादन, मानव जीवन की गुणवत्ता आदि सभी पर प्राकृतिक संसाधनों का गहरा प्रभाव पड़ता है। प्राकृतिक संसाधन आर्थिक विकास को निम्न प्रकार से प्रभावित करते है-
1. कच्चा माल की आपूर्ति (Supply of Raw Material)
कृषि, वन और खनिज संसाधनों से प्राप्त कच्चा माल विभिन्न प्रकार के उद्योगों की नींव रखता है। उदाहरण के लिए – कपास से कपड़ा उद्योग, लकड़ी से फर्नीचर उद्योग, लोहा और बॉक्साइट से इस्पात और एल्यूमिनियम उद्योग।
जिन देशों में प्राकृतिक संसाधन अधिक मात्रा में उपलब्ध हैं, वे उद्योगों को अधिक तीव्र गति से विकसित कर पाते हैं। यही कारण है कि अमेरिका, चीन, रूस जैसे देशों की औद्योगिक प्रगति में इन संसाधनों की प्रमुख भूमिका रही है।
2. ऊर्जा स्रोतों – ईधन की पूर्ति (Supply of Fuel)
औद्योगीकरण और शहरीकरण की गति ऊर्जा पर निर्भर करती है। कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, यूरेनियम जैसे खनिजों से ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है। आधुनिक सभ्यता की गति का संचालन इन्हीं स्रोतों से होता है।
आज जब हम ऊर्जा संकट से जूझ रहे हैं, तब वैकल्पिक ऊर्जा स्रोत जैसे – सौर ऊर्जा, जलविद्युत, पवन ऊर्जा आदि का महत्व बढ़ गया है। इन स्रोतों का संबंध भी सीधे तौर पर प्रकृति से है।
3. कृषि एवं खाद्य सुरक्षा में योगदान (Supply of Consumer Goods)
भूमि, जल, जलवायु और जैव विविधता – ये सभी तत्व कृषि की नींव हैं। किसी भी क्षेत्र की उत्पादकता वहां की मृदा की गुणवत्ता, सिंचाई की उपलब्धता, वर्षा की मात्रा और मौसम के स्वरूप पर निर्भर करती है।
वनों से चारा और खाद मिलता है जो पशुपालन एवं कृषि को सहयोग प्रदान करता है। इस प्रकार खाद्य उत्पादन, पशु आहार, औषधियाँ आदि सभी प्राकृतिक संसाधनों से ही प्राप्त होते हैं।
4. मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएँ (Essentials of Life)
हमारे जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ जैसे – हवा, पानी, सूरज की रोशनी, मिट्टी आदि सभी प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त होती हैं। इनका शुद्ध एवं संतुलित होना मानव स्वास्थ्य एवं जीवन के लिए आवश्यक है।
जलवायु, वनस्पति, तापमान आदि न केवल जैव विविधता को नियंत्रित करते हैं, बल्कि मानव समाज की जीवनशैली, कार्यक्षमता और रहन-सहन पर भी प्रभाव डालते हैं।
5. अवशोषण क्षमता (Absorption Capacity)
पर्यावरण में प्रदूषण को शुद्ध करने की क्षमता विद्यमान है। उत्पादन एवं उपभोग की विभिन्न क्रियाओं से अनेक विषैले गैसें एवं अपशिष्ट पदार्थ जल एवं वायु को प्रदूषित करते है। प्रकृति में परिशुद्धता क्षमता होने के कारण विद्यमान प्रदूषण को यह परिष्कृत करके शुद्ध कर देती है, किन्तु वर्तमान में प्रदूषण इतना अधिक होता है कि यह प्रकृति की इस परिशुद्धता क्षमता से भी अधिक है, जिससे प्रदूषण की समस्या ने एक जटिल स्वरूप धारण कर लिया है।
अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर प्रभाव
1. कृषि क्षेत्र
कृषि पूरी तरह प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित क्षेत्र है। जल, भूमि, जलवायु, वनों से प्राप्त जैविक खाद – ये सभी कृषि उत्पादकता के मूल आधार हैं। जलवायु परिवर्तन या संसाधनों की कमी से कृषि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
2. औद्योगिक क्षेत्र
उद्योगों को ऊर्जा और कच्चे माल की आवश्यकता होती है। प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता से ही यह संभव है। उदाहरण के लिए – खनिज क्षेत्रों के निकट भारी उद्योग स्थापित होते हैं क्योंकि इससे परिवहन लागत कम होती है।
3. सेवा क्षेत्र और पर्यटन
प्राकृतिक सौंदर्य जैसे – पर्वत, झीलें, वन, समुद्र तट आदि पर्यटन को बढ़ावा देते हैं। इससे होटल, परिवहन, गाइड सेवा, हस्तशिल्प आदि क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।
4. निर्माण एवं आवास क्षेत्र
इमारती लकड़ी, रेत, पत्थर, मिट्टी, सीमेंट आदि निर्माण कार्यों में उपयोग होते हैं। इनका स्रोत भी प्रकृति ही है।
प्राकृतिक संसाधनों के लाभ
- आर्थिक समृद्धि – संसाधनों से उद्योग और कृषि का विकास होता है जिससे राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।
- रोजगार सृजन – वनों, खदानों, कृषि और उद्योगों में लाखों लोगों को रोजगार मिलता है।
- विदेशी व्यापार – खनिज, वनोपज, कृषि उत्पाद आदि का निर्यात विदेशी मुद्रा अर्जित करता है।
- सामाजिक स्थिरता – संसाधनों से जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है जिससे सामाजिक असंतोष कम होता है।
- पर्यावरणीय संतुलन – वनों, जल स्रोतों और जैव विविधता से पारिस्थितिक तंत्र संतुलित रहता है।
प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी चुनौतियाँ
- अत्यधिक दोहन – अधिक उत्पादन और शहरीकरण की मांग के कारण संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है।
- प्रदूषण – औद्योगिक अपशिष्ट, धुआँ, रासायनिक खेती आदि से जल, वायु और मृदा प्रदूषित हो रहे हैं।
- नवीकरणीय और अनवीकरणीय संसाधनों का असंतुलन – ऊर्जा के पारंपरिक स्रोत सीमित होते जा रहे हैं जबकि वैकल्पिक स्रोतों का विकास धीमा है।
- भूमि क्षरण – वनों की कटाई, अत्यधिक खेती, रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग मृदा की उर्वरता को नष्ट कर रहा है।
- जल संकट – भूजल स्तर में गिरावट और नदियों में प्रदूषण के कारण जल संकट गहरा रहा है।
सतत विकास की आवश्यकता
वर्तमान समय में यह आवश्यक हो गया है कि हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग विवेकपूर्वक करें। हमें सतत विकास की ओर अग्रसर होना होगा, जिसमें विकास की गति बनी रहे, लेकिन साथ ही पर्यावरणीय संतुलन और संसाधनों का संरक्षण भी हो। इसके लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं –
- वनीकरण और पुनर्वनीकरण
- वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का विकास
- पुनर्चक्रण (Recycling) को बढ़ावा
- जैविक खेती और मृदा संरक्षण
- जल संरक्षण योजनाएँ
अर्थशास्त्रियों की दृष्टि से प्राकृतिक संसाधनों का महत्व
विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने समय-समय पर प्राकृतिक संसाधनों के महत्व को रेखांकित किया है।
- डब्ल्यू. ए. लुइस के अनुसार, – किसी देश के विकास की सीमा प्राकृतिक संसाधनों द्वारा निर्धारित होती है।
- विलियम जे. बॉमाल ने प्राकृतिक संसाधनों को आर्थिक विकास का एक निर्णायक घटक माना है।
- परम्परागत अर्थशास्त्रियों का मत था कि संसाधनों की सीमित उपलब्धता विकास की गति को रोक सकती है, इसलिए तकनीकी विकास आवश्यक है।
- आधुनिक अर्थशास्त्र में यह भी माना जाता है कि विकासशील देशों में संसाधनों का महत्व अधिक होता है, जबकि विकसित देशों में तकनीक संसाधनों की जगह लेने लगती है।
प्राकृतिक संसाधन किसी भी देश की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ होते हैं। इनका समुचित उपयोग, संरक्षण और विकास न केवल वर्तमान पीढ़ी के लिए, बल्कि भविष्य की स्थिरता के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रबंधन ही किसी देश को आत्मनिर्भर, समृद्ध और स्थायी विकास की ओर अग्रसर कर सकता है।
जब तक मनुष्य प्रकृति को केवल उपयोग की वस्तु समझकर उसका अंधाधुंध दोहन करता रहेगा, तब तक न तो आर्थिक प्रगति स्थायी होगी और न ही जीवन संतुलित। इसलिए आवश्यकता है एक ऐसे दृष्टिकोण की, जिसमें प्रकृति और विकास के बीच सामंजस्य स्थापित हो। यही सतत विकास की सच्ची परिभाषा है और यही समृद्ध अर्थव्यवस्था की आधारशिला।
Environmental Economics – KnowledgeSthali
Current Affairs – KnowledgeSthali
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