आवारा कुत्तों पर सुप्रीम कोर्ट का संशोधित आदेश: नागरिक सुरक्षा और पशु कल्याण के बीच संतुलन

भारत के शहरों में आवारा कुत्तों की समस्या लंबे समय से एक गंभीर सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी चुनौती रही है। एक ओर ये कुत्ते स्थानीय पारिस्थितिकी और सामाजिक जीवन का हिस्सा बन गए हैं, तो दूसरी ओर इनके कारण डॉग बाइट्स, रेबीज और सड़क दुर्घटनाओं जैसी घटनाओं ने आम जनता की चिंता बढ़ा दी है। इस द्वंद्व के बीच हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक संशोधित आदेश जारी किया है, जिसने इस मुद्दे पर नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। अदालत का यह निर्णय पशु कल्याण और नागरिकों की सुरक्षा, दोनों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास है।

पृष्ठभूमि: सुप्रीम कोर्ट का पूर्व आदेश और विवाद

बढ़ती डॉग बाइट घटनाएँ

दिल्ली–एनसीआर में पिछले कुछ वर्षों से डॉग बाइट्स की घटनाएँ तेज़ी से बढ़ रही थीं। कई रिपोर्टों के अनुसार, प्रतिवर्ष हजारों लोग आवारा कुत्तों के काटने से प्रभावित होते हैं, जिनमें बच्चे और बुज़ुर्ग सबसे अधिक असुरक्षित रहते हैं। इसके अतिरिक्त, रेबीज जैसी बीमारी की आशंका ने स्थिति को और गंभीर बना दिया।

सुप्रीम कोर्ट का पहला आदेश

इन्हीं कारणों से सुप्रीम कोर्ट ने नगर निगमों को आदेश दिया था कि सभी आवारा कुत्तों को 6–8 सप्ताह के भीतर पकड़कर शेल्टर होम्स (आश्रयों) में रखा जाए। इस निर्देश का उद्देश्य था – नागरिकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना और सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट को रोकना।

पशु अधिकार समूहों का विरोध

हालांकि, इस आदेश के खिलाफ कई पशु कल्याण संगठन और NGOs सामने आए। उनका तर्क था कि यह कदम Animal Birth Control (ABC) Rules, 2023 का उल्लंघन करता है। इन नियमों के अनुसार, आवारा कुत्तों को नसबंदी और वैक्सीनेशन के बाद उनके मूल क्षेत्र में वापस छोड़ना अनिवार्य है। NGOs का कहना था कि सभी कुत्तों को शेल्टर में बंद करना न केवल अव्यावहारिक है, बल्कि कुत्तों के प्राकृतिक जीवन अधिकार का भी हनन है।

हालिया संशोधित आदेश: नई रूपरेखा

सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न पक्षों की दलीलें सुनने के बाद अपने पूर्व आदेश में संशोधन किया और एक नया संतुलित दृष्टिकोण अपनाया।

1. आवारा कुत्तों की रिहाई

  • सभी कुत्तों को नसबंदी, डिवर्मिंग और वैक्सीनेशन के बाद उसी क्षेत्र में वापस छोड़ा जाएगा, जहाँ से उन्हें पकड़ा गया था।
  • आक्रामक या रेबीज से प्रभावित कुत्तों को नसबंदी और वैक्सीनेशन के बाद विशेष आश्रयों या पाउंड में रखा जाएगा, ताकि वे आम जनता के लिए खतरा न बनें।

2. भोजन पर नियम

  • सड़क पर आवारा कुत्तों को अनियंत्रित रूप से खाना खिलाना प्रतिबंधित होगा।
  • नगर निगमों को हर वार्ड में विशेष फीडिंग ज़ोन स्थापित करने होंगे। इन स्थानों पर साइनबोर्ड लगाए जाएंगे और नागरिकों को इन्हीं निर्धारित जगहों पर भोजन कराने की अनुमति होगी।

3. गोद लेने की व्यवस्था

  • पशु प्रेमियों को कुत्तों को गोद लेने का विकल्प दिया गया है।
  • जो कुत्ते गोद लिए जाएंगे, उन्हें सड़क पर वापस छोड़ने की अनुमति नहीं होगी।

4. निगरानी और प्रवर्तन

  • नगर निगमों को हेल्पलाइन नंबर स्थापित करने होंगे, ताकि नागरिक नियमों के उल्लंघन की शिकायत कर सकें।
  • यदि कोई NGO या व्यक्ति कार्यान्वयन में बाधा डालता है, तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

कानूनी दृष्टिकोण: पशु अधिकार बनाम मानव अधिकार

यह मामला केवल सामाजिक समस्या ही नहीं है, बल्कि कानूनी और संवैधानिक प्रश्नों को भी जन्म देता है।

  • संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत हर नागरिक को जीवन और सुरक्षा का अधिकार है। इसका अर्थ है कि राज्य को नागरिकों को डॉग बाइट्स और संक्रमण जैसी समस्याओं से बचाने का कर्तव्य है।
  • दूसरी ओर, अनुच्छेद 51A (g) हर नागरिक को पशुओं के प्रति करुणा दिखाने और पर्यावरण की रक्षा करने का दायित्व भी देता है।
  • अदालत को इन दोनों अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करना पड़ा। संशोधित आदेश इसी संतुलन का परिणाम है।

सामाजिक दृष्टिकोण: नागरिक और आवारा कुत्तों का रिश्ता

भारत में आवारा कुत्ते केवल सड़क का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि कई बार स्थानीय समाज का अभिन्न हिस्सा बन जाते हैं।

  • कई लोग इन्हें नियमित भोजन कराते हैं और इन्हें अपने घरों के बाहर सुरक्षा गार्ड जैसा मानते हैं।
  • वहीं, कई लोग इन्हें खतरा मानते हैं, खासकर उन इलाकों में जहाँ बच्चों पर हमले या झुंड में दौड़ाने की घटनाएँ हुई हैं।
  • अदालत का यह आदेश इन दोनों भावनाओं को ध्यान में रखते हुए एक संतुलित समाधान प्रस्तुत करता है।

प्रशासनिक चुनौतियाँ

सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को लागू करना आसान नहीं होगा। नगर निगमों को कई व्यावहारिक चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा:

  1. नसबंदी और वैक्सीनेशन की व्यवस्था – बड़ी संख्या में कुत्तों के लिए पशु-चिकित्सक और संसाधन उपलब्ध कराना कठिन कार्य है।
  2. फीडिंग ज़ोन की स्थापना – प्रत्येक वार्ड में स्थान चयन, साइनबोर्ड लगाना और निगरानी करना प्रशासनिक बोझ बढ़ाएगा।
  3. शेल्टर और पाउंड की क्षमता – आक्रामक या बीमार कुत्तों के लिए पर्याप्त आश्रय केंद्र तैयार करना आवश्यक होगा।
  4. निगरानी और कानूनी प्रवर्तन – यह सुनिश्चित करना कि नियमों का पालन हो रहा है, एक दीर्घकालिक चुनौती होगी।

नागरिकों की भूमिका

सुप्रीम कोर्ट के आदेश का सफल कार्यान्वयन केवल नगर निगमों पर निर्भर नहीं है।

  • नागरिकों को सड़क पर अनियंत्रित भोजन कराने की आदत छोड़नी होगी।
  • उन्हें निर्धारित फीडिंग ज़ोन का उपयोग करना होगा।
  • यदि कोई उल्लंघन हो, तो हेल्पलाइन पर रिपोर्ट करना उनकी जिम्मेदारी होगी।
  • पशु प्रेमियों को गोद लेने की प्रक्रिया को अपनाना चाहिए, जिससे कुत्तों को स्थायी घर मिल सके।

NGOs और पशु कल्याण समूहों की जिम्मेदारी

पशु कल्याण संगठन लंबे समय से कुत्तों की सुरक्षा और उनके अधिकारों के लिए काम करते आए हैं। अब उनकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो गई है:

  • वे नसबंदी और वैक्सीनेशन कार्यक्रमों में नगर निगमों की सहायता कर सकते हैं।
  • वे नागरिकों को फीडिंग ज़ोन का महत्व समझा सकते हैं।
  • उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि कार्यान्वयन में बाधा डालने के बजाय वे सकारात्मक सहयोग करें।

अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य

भारत में आवारा कुत्तों की समस्या अनोखी नहीं है।

  • तुर्की में भी आवारा कुत्ते बड़ी संख्या में पाए जाते हैं, और वहाँ नगरपालिका विशेष फीडिंग ज़ोन और मेडिकल सुविधाएँ उपलब्ध कराती है।
  • रोमानिया में पहले बड़े पैमाने पर आवारा कुत्तों को मारने का प्रयास किया गया, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद वहाँ भी ABC जैसे मॉडल को अपनाया गया।
  • भारत का नया आदेश इसी वैश्विक प्रवृत्ति के अनुरूप है, जहाँ नसबंदी और सामुदायिक सहयोग को समाधान माना जाता है।

आगे की राह

सुप्रीम कोर्ट का संशोधित आदेश एक व्यावहारिक और मानवीय दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। लेकिन यह तभी सफल होगा जब –

  • नगर निगम पर्याप्त संसाधन लगाएंगे,
  • नागरिक अपनी आदतों में बदलाव लाएंगे,
  • NGOs सहयोगात्मक भूमिका निभाएंगे,
  • और मीडिया जन-जागरूकता फैलाएगा।

निष्कर्ष

आवारा कुत्तों का मुद्दा केवल सड़क की समस्या नहीं है, बल्कि यह मानव–पशु सह-अस्तित्व, कानूनी अधिकार, सार्वजनिक स्वास्थ्य और प्रशासनिक दक्षता का मिश्रण है। सुप्रीम कोर्ट का संशोधित आदेश इस दिशा में एक बड़ा कदम है। यह न तो केवल नागरिकों की सुरक्षा की अनदेखी करता है और न ही पशु अधिकारों को दबाता है।

यह आदेश हमें यह सिखाता है कि समस्या का समाधान केवल कठोर कदमों से नहीं, बल्कि संतुलित, संवेदनशील और व्यावहारिक दृष्टिकोण से ही संभव है। यदि सभी हितधारक मिलकर काम करें तो दिल्ली–एनसीआर ही नहीं, पूरे भारत में आवारा कुत्तों से जुड़ी समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है।


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