विश्वभारती विश्वविद्यालय : रवीन्द्रनाथ ठाकुर की दृष्टि और वर्तमान परिदृश्य

हाल ही में पश्चिम बंगाल स्थित विश्वभारती विश्वविद्यालय एक विवाद के चलते सुर्खियों में आया। विश्वविद्यालय प्रशासन ने नोबेल पुरस्कार विजेता और भारत के प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के व्याख्यान को अनुमति देने से इंकार कर दिया। इसका कारण विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी (PRO) ने यह बताया कि उसी समय “रवींद्र सप्ताह विरासत आयोजन” (Rabindra Week Heritage Celebration) का कार्यक्रम चल रहा था, और दोनों कार्यक्रमों में समय का टकराव था।
यह घटना भले ही प्रशासनिक निर्णय के रूप में सामने आई हो, लेकिन इससे पुनः एक बार इस विश्वविद्यालय की ऐतिहासिक धरोहर, उसकी स्थापना की पृष्ठभूमि, उसके आदर्शों और आज की परिस्थितियों पर चर्चा होना स्वाभाविक है।

विश्वभारती विश्वविद्यालय केवल एक शैक्षणिक संस्थान भर नहीं है, बल्कि यह भारत की उस सांस्कृतिक और शैक्षणिक दृष्टि का प्रतीक है जिसे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने प्रतिपादित किया था।

स्थापना और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना 1921 में शांति निकेतन, पश्चिम बंगाल में हुई। इसका आधार उस शैक्षिक प्रयोग में था जिसे ठाकुर ने पहले ब्रह्मचर्य आश्रम (1901) और बाद में शांति निकेतन विद्यालय के रूप में आरंभ किया। उनका उद्देश्य था – शिक्षा को प्राकृतिक परिवेश से जोड़ना और छात्रों को केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं, बल्कि जीवन और संस्कृति से जुड़ा अनुभव कराना।

1951 में मिला राष्ट्रीय महत्व

भारत की स्वतंत्रता के बाद, 1951 में भारत सरकार ने विश्वभारती को केंद्रीय विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय महत्व की संस्था का दर्जा दिया। इसे एक अधिनियम द्वारा विशेष मान्यता प्रदान की गई। यह अपने आप में अद्वितीय था क्योंकि इस विश्वविद्यालय की संरचना पारंपरिक विश्वविद्यालयों से भिन्न थी।

विश्वभारती विश्वविद्यालय का प्रशासनिक ढाँचा

विश्वभारती विश्वविद्यालय की प्रशासनिक संरचना भी विशेष है –

  • भारत के राष्ट्रपति – परिदर्शक (Visitor)
  • पश्चिम बंगाल के राज्यपाल – प्रधान (Rector)
  • भारत के प्रधानमंत्री – आचार्य (Chancellor)
  • उपाचार्य (Vice-Chancellor) – राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं।

इससे यह स्पष्ट है कि यह विश्वविद्यालय केवल एक राज्य या क्षेत्रीय संस्थान नहीं, बल्कि भारत सरकार की उच्चतम प्राथमिकताओं से जुड़ा हुआ है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की दृष्टि

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर केवल साहित्यकार या कवि ही नहीं थे, बल्कि एक महान शिक्षा-दृष्टा भी थे। उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य था –

  • मनुष्य को सृजनशीलता (Creativity) की ओर प्रेरित करना।
  • शिक्षा को प्रकृति और समाज से जोड़ना।
  • छात्रों में विश्वबंधुत्व और मानवता का भाव उत्पन्न करना।
  • भारतीय परंपरा और वैश्विक आदर्शों का समन्वय करना।

उनके अनुसार, शिक्षा केवल नौकरी पाने का साधन नहीं होनी चाहिए, बल्कि वह एक जीवन दृष्टि देनी चाहिए। इसी सोच के कारण उन्होंने विश्वभारती को “जहाँ विश्व एक ही नीड़ में वास करे” (Where the world makes a home in a single nest) के आदर्श पर स्थापित किया।

शैक्षिक दर्शन और विशेषताएँ

1. खुले वातावरण में शिक्षा

विश्वभारती विश्वविद्यालय की सबसे बड़ी विशेषता थी – ओपन-एयर क्लासरूम्स (Open-air Classrooms)। छात्रों को पेड़ों के नीचे, खुले आकाश के नीचे बैठाकर शिक्षा दी जाती थी ताकि वे प्रकृति से सीधा जुड़ाव महसूस करें।

2. समग्र शिक्षा (Holistic Learning)

यहाँ शिक्षा केवल अकादमिक विषयों तक सीमित नहीं थी। कला, संगीत, नृत्य, नाटक, शिल्पकला, साहित्य, कृषि और ग्रामीण विकास – सभी को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया।

3. रचनात्मकता और स्वतंत्रता

ठाकुर मानते थे कि अंधानुकरण शिक्षा का सबसे बड़ा शत्रु है। इसलिए विश्वभारती में छात्रों को स्वतंत्र सोच और रचनात्मक अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता दी जाती थी।

4. सांस्कृतिक आदान-प्रदान

विश्वभारती एक अंतरराष्ट्रीय मंच भी था। यहाँ एशिया, यूरोप और अमेरिका से विद्वान आते थे। नोबेल विजेता वैज्ञानिक और विचारक यहाँ प्रवचन देते थे।

प्रमुख केंद्र और संकाय

विश्वभारती के अंतर्गत अनेक संस्थान और संकाय कार्यरत हैं, जिनमें प्रमुख हैं –

  • कला भवन (Kala Bhavana) – ललित कला और दृश्य कला का केंद्र।
  • संगीत भवन (Sangeet Bhavana) – संगीत और नृत्य की शिक्षा।
  • विद्या भवन (Vidya Bhavana) – मानविकी और सामाजिक विज्ञान।
  • सिखा भवन (Siksha Bhavana) – विज्ञान शिक्षा।
  • पुरी भवन (Palli Bhavana) – ग्रामीण विकास और ग्रामोदय से जुड़े अध्ययन।
  • चीनी भाषा एवं एशियाई अध्ययन केंद्र – एशियाई देशों के साथ शैक्षिक आदान-प्रदान।

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व

विश्वभारती केवल भारत का नहीं, बल्कि विश्व का एक अनूठा केंद्र रहा है।

  • यह पहला विश्वविद्यालय था जहाँ शिक्षा को “ग्लोबलाइजेशन” के वास्तविक अर्थ में लागू किया गया।
  • यहाँ महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्रीय नेता आए।
  • विदेशों से पॉल ड्यूक, स्टेला क्रामरिश और चार्ल्स फैब्री जैसे विद्वान जुड़े।
  • 1920-30 के दशक में यह भारत में अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक केंद्र बन चुका था।

अमर्त्य सेन और विश्वभारती

नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन का भी विश्वभारती से गहरा जुड़ाव रहा है। उनका बचपन शांति निकेतन में बीता। उन्होंने यहाँ की शिक्षा पाई और गुरुदेव की दृष्टि से गहराई से प्रभावित हुए।
इस दृष्टि से जब उनके व्याख्यान को अनुमति नहीं दी गई, तो यह केवल एक प्रशासनिक घटना नहीं रही, बल्कि एक प्रतीकात्मक विवाद बन गया। यह सवाल उठा कि क्या आज का विश्वभारती अपनी मूल आत्मा से भटक रहा है?

समकालीन चुनौतियाँ

आज विश्वभारती कई चुनौतियों से जूझ रहा है –

  1. राजनीतिक हस्तक्षेप – विश्वविद्यालय की प्रशासनिक नियुक्तियाँ और निर्णय प्रायः राजनीति से प्रभावित होते हैं।
  2. वित्तीय संकट – पर्याप्त फंडिंग और आधुनिक संसाधनों की कमी।
  3. गुरुदेव की दृष्टि से दूरी – रचनात्मक स्वतंत्रता और खुले वातावरण की जगह अब पारंपरिक ढांचे हावी हो रहे हैं।
  4. छात्र-शिक्षक असंतोष – हाल के वर्षों में विश्वविद्यालय में कई बार विरोध प्रदर्शन और विवाद देखने को मिले।

भविष्य की दिशा

यदि विश्वभारती को फिर से अपनी गौरवशाली परंपरा से जोड़ना है, तो कुछ कदम आवश्यक हैं –

  • रवीन्द्रनाथ ठाकुर की दृष्टि को पुनर्जीवित करना।
  • राजनीति से मुक्त शैक्षणिक स्वायत्तता।
  • अंतरराष्ट्रीय सहयोग और अनुसंधान पर बल।
  • कला, संगीत और ग्रामीण विकास जैसे विषयों को वैश्विक मंच से जोड़ना।
  • डिजिटल और तकनीकी संसाधनों का समावेश, ताकि आधुनिकता और परंपरा का संतुलन बने।

निष्कर्ष

विश्वभारती विश्वविद्यालय केवल एक शैक्षिक संस्थान नहीं है, बल्कि यह भारत के उस सांस्कृतिक दर्शन का प्रतीक है जिसे गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने जीवन से प्रतिपादित किया। यह वह स्थान है जहाँ शिक्षा, कला, प्रकृति और जीवन का अद्भुत संगम होता है।
हालिया विवाद हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम गुरुदेव की उस दृष्टि से दूर होते जा रहे हैं? आवश्यकता इस बात की है कि विश्वभारती फिर से उस आदर्श की ओर लौटे जहाँ “विश्व एक नीड़ में वास करे” और शिक्षा केवल डिग्री का माध्यम नहीं, बल्कि मानवता और विश्वबंधुत्व की साधना बने।


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