आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचनाओं की भाषागत एवं शैलीगत विशेषताएँ

आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (1864–1938) का स्थान केवल एक लेखक या निबंधकार के रूप में नहीं, बल्कि एक युगप्रवर्तक साहित्य-संस्कारक के रूप में सुरक्षित है। वे उस संक्रमणकाल के प्रतिनिधि साहित्यकार थे, जब हिंदी साहित्य भारतेन्दु युग की भावुकता, अलंकरणप्रियता और भाषिक असंयम से निकलकर वैचारिक परिपक्वता, सामाजिक उत्तरदायित्व और बौद्धिक अनुशासन की ओर अग्रसर हो रहा था।

द्विवेदी जी ने हिंदी को मात्र भावाभिव्यक्ति की भाषा न मानकर उसे विचार, विवेक और समाज-सुधार का सशक्त माध्यम बनाया। उनकी दृष्टि में साहित्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि पाठक को चिन्तनशील, नैतिक और जागरूक नागरिक बनाना था। इसी उद्देश्य के अनुरूप उनकी भाषा और शैली का स्वरूप भी विकसित हुआ।

वे केवल निबंधकार नहीं थे—
वे एक संपादक, आलोचक, अनुवादक, भाषा-सुधारक और सांस्कृतिक चिंतक थे। सरस्वती पत्रिका के संपादन के माध्यम से उन्होंने न केवल स्वयं श्रेष्ठ लेखन किया, बल्कि समूचे हिंदी साहित्य को भाषा, विषय और शैली—तीनों स्तरों पर अनुशासन सिखाया। उनके लेखन में जो भाषागत और शैलीगत विशेषताएँ दिखाई देती हैं, वही आगे चलकर आधुनिक हिंदी गद्य की स्थायी आधारशिला बनती हैं।

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द्विवेदी जी की भाषा-दृष्टि : साहित्य को समाज से जोड़ने का सशक्त माध्यम

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की भाषा-दृष्टि आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माण में एक निर्णायक मोड़ सिद्ध हुई। उनकी दृष्टि में भाषा केवल भावों को सजाने या अलंकारिक चमत्कार दिखाने का साधन नहीं थी, बल्कि वह समाज के बौद्धिक, नैतिक और सांस्कृतिक उत्थान का सशक्त उपकरण थी। वे मानते थे कि यदि साहित्य को समाजोपयोगी बनाना है, तो उसकी भाषा भी समाज से जुड़ी, स्पष्ट और उद्देश्यपूर्ण होनी चाहिए।

द्विवेदी जी की भाषा-दृष्टि मूलतः सामाजिक चेतना और बौद्धिक उत्तरदायित्व से प्रेरित थी। उनके लिए भाषा का प्रमुख उद्देश्य था—

  • विचारों की स्पष्ट और निर्भ्रांत अभिव्यक्ति।
  • समाज के अधिकतम वर्ग तक साहित्य की पहुँच।
  • पाठकों के नैतिक और बौद्धिक स्तर का उत्थान।
  • साहित्य को जीवनोपयोगी और उद्देश्यपरक बनाना।

वे इस तथ्य से भली-भाँति परिचित थे कि यदि भाषा अत्यधिक अस्पष्ट, दुरूह या अनियंत्रित होगी, तो साहित्य सीमित वर्ग तक सिमट जाएगा और समाज से उसका संबंध टूट जाएगा। इसी कारण उन्होंने ऐसी भाषा का विकास किया जो—

  • न तो अत्यधिक संस्कृतनिष्ठ होकर क्लिष्ट बने।
  • न ही अत्यधिक बोलचाल की होकर साहित्यिक गरिमा खो दे।

यह मध्यमार्गी भाषा उनकी भाषा-दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता है, जिसमें विद्वत्ता और जनसुलभता का अद्भुत संतुलन दिखाई देता है।

विषयानुकूल भाषा-प्रयोग : द्विवेदी साहित्य की केंद्रीय विशेषता

द्विवेदी जी की भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण और विशिष्ट विशेषता है—विषयानुकूल भाषा-प्रयोग। वे किसी एक निश्चित भाषिक ढाँचे में बँधकर लेखन नहीं करते थे, बल्कि विषय, उद्देश्य और पाठक-वर्ग के अनुसार अपनी भाषा का स्वरूप बदल लेते थे। यही कारण है कि उनकी भाषा कभी एकरूप या यांत्रिक नहीं लगती।

(क) आलोचनात्मक एवं वैचारिक लेखों में भाषा

जब द्विवेदी जी साहित्यिक आलोचना, काव्यशास्त्र या वैचारिक विमर्श करते हैं, तब उनकी भाषा—

  • गंभीर
  • तर्कपूर्ण
  • संस्कृतनिष्ठ
  • शास्त्रीय आधार से युक्त

हो जाती है। यहाँ भाषा का उद्देश्य भावों को उभारना नहीं, बल्कि तर्क की सुदृढ़ स्थापना और विचार की प्रमाणिक प्रस्तुति होता है। इस प्रकार की भाषा पाठक की बुद्धि को संबोधित करती है और उसे तार्किक निष्कर्ष तक पहुँचाती है।

(ख) सामाजिक सुधार और नैतिक विषयों पर भाषा

सामाजिक कुरीतियों, नैतिक मूल्यों, शिक्षा और समाज-सुधार से जुड़े विषयों पर लिखते समय द्विवेदी जी की भाषा अपेक्षाकृत—

  • सरल
  • व्यावहारिक
  • प्रेरणादायक
  • संवादात्मक

हो जाती है। इसका उद्देश्य होता है कि सामान्य पाठक भी बिना किसी भाषिक बाधा के विचार को ग्रहण कर सके। वे भाषा को उपदेशात्मक या बोझिल नहीं बनाते, बल्कि उसे संवाद का माध्यम बना देते हैं। इससे पाठक लेखक से जुड़ता है और विचार को आत्मसात करता है।

(ग) सांस्कृतिक और भावात्मक विषयों पर भाषा

जब विषय संस्कृति, परंपरा, मानव-मूल्य या भावलोक से संबंधित होता है, तब द्विवेदी जी की भाषा में—

  • प्रवाह
  • सरसता
  • काव्यात्मक लय
  • हल्की-सी चित्रात्मकता

आ जाती है। यद्यपि वे अतिशय भावुकता से बचते हैं, फिर भी उनकी भाषा में संवेदना और सौंदर्य का सहज समावेश हो जाता है। यही भाषिक लचीलापन उनकी भाषा को जीवंत और प्रभावी बनाता है।

संस्कृतनिष्ठता और तत्सम शब्दावली का संतुलित प्रयोग

द्विवेदी जी संस्कृत के गंभीर अध्येता थे और इसका प्रभाव उनकी भाषा में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। उनकी रचनाओं में—

  • तत्सम शब्दों की पर्याप्त बहुलता
  • शास्त्रीय शब्दावली
  • दार्शनिक पदावली

का प्रयोग विशेष रूप से मिलता है, विशेषकर—

  • साहित्यिक आलोचना
  • काव्यशास्त्रीय विवेचन
  • सांस्कृतिक और दार्शनिक निबंधों में

किन्तु यह संस्कृतनिष्ठता कहीं भी बोझिल या कृत्रिम नहीं लगती। वे कठिन शब्दों का प्रयोग तभी करते हैं, जब—

  • उससे विचार अधिक स्पष्ट और सटीक हो
  • उसका कोई सरल और उपयुक्त पर्याय उपलब्ध न हो

इस प्रकार द्विवेदी जी ने यह सिद्ध किया कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी भी सरल, प्रभावशाली और जनसुलभ हो सकती है, यदि उसका प्रयोग विवेक और संयम के साथ किया जाए।

संस्कृत उद्धरण और शास्त्रीय संदर्भों का विवेकपूर्ण प्रयोग

द्विवेदी जी की रचनाओं में संस्कृत सूक्तियों, श्लोकों और शास्त्रीय संदर्भों का प्रचुर प्रयोग मिलता है, किंतु यह प्रयोग विद्वत्ता-प्रदर्शन के लिए नहीं बल्कि तर्क की पुष्टि और विचार की सुदृढ़ता के लिए किया गया होता है। उनके शास्त्रीय संदर्भ—

  • लेख को प्रामाणिकता प्रदान करते हैं।
  • विचार को ऐतिहासिक और दार्शनिक गहराई देते हैं।
  • पाठक को भारतीय बौद्धिक परंपरा से जोड़ते हैं।

उनके लिए शास्त्र कोई आडंबर नहीं, बल्कि विचार की नींव थे।

भावात्मक विषयों में काव्यात्मकता और संवेदनशीलता

अक्सर यह माना जाता है कि द्विवेदी जी केवल गंभीर और शुष्क लेखक थे, किंतु यह धारणा पूर्णतः सही नहीं है। उनके लेखन में भावनात्मक संवेदनशीलता भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

जब विषय—

  • मानव-मूल्य
  • संस्कृति
  • नैतिकता
  • राष्ट्रीय चेतना

से जुड़ा होता है, तब उनकी भाषा—

  • कोमल
  • प्रवाहपूर्ण
  • सरस
  • कहीं-कहीं काव्यात्मक

हो जाती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि वे केवल तर्कशील विवेचक नहीं, बल्कि संवेदनशील और मानवीय दृष्टि वाले साहित्यकार भी थे।

मुहावरे, लोकोक्तियाँ और जीवंत भाषा

द्विवेदी जी की भाषा की एक प्रमुख शक्ति उसका मुहावरेदार और सजीव स्वरूप है। उनकी रचनाओं में प्रयुक्त मुहावरे और लोकोक्तियाँ—

  • भाषा को जीवंत बनाती हैं।
  • विचार को अधिक प्रभावशाली बनाती हैं।
  • पाठक से आत्मीय संबंध स्थापित करती हैं।

ये मुहावरे बनावटी नहीं होते, बल्कि वाक्य-प्रवाह में स्वाभाविक रूप से घुले रहते हैं, जिससे भाषा सहज और प्रभावी बनती है।

उर्दू और अंग्रेज़ी शब्दों का यथोचित प्रयोग

यद्यपि द्विवेदी जी शुद्ध हिंदी के समर्थक थे, किंतु वे भाषिक संकीर्णता के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने—

  • उर्दू के प्रचलित और स्वीकृत शब्दों
  • अंग्रेज़ी के आवश्यक और तकनीकी शब्दों

का भी विवेकपूर्ण प्रयोग किया। यह प्रयोग—

  • भाषा को व्यावहारिक बनाता है।
  • समकालीन यथार्थ से जोड़ता है।
  • हिंदी को कृत्रिम शुद्धता से बचाता है।

बोलचाल की भाषा और जनसंपर्क

द्विवेदी जी का दृढ़ विश्वास था कि साहित्य समाज से कटकर जीवित नहीं रह सकता। इसी कारण उनकी भाषा में—

  • बोलचाल के शब्द
  • सामान्य जनजीवन की अभिव्यक्तियाँ
  • सहज और स्वाभाविक वाक्य-रचना

का प्रयोग मिलता है। वे ऐसी भाषा के पक्षधर थे जो—

  • पाठक को भयभीत न करे
  • विचार को सरल बनाए
  • समाज के व्यापक वर्ग तक पहुँचे

स्पष्टता, तर्कशीलता और भाषिक अनुशासन

द्विवेदी जी की भाषा की सबसे प्रमुख विशेषता है—स्पष्टता और अनुशासन। उनके वाक्य—

  • सुसंगठित
  • क्रमबद्ध
  • तर्कसंगत

होते हैं। उन्होंने भावुकता और अनियंत्रित कल्पना के स्थान पर हिंदी गद्य को—

  • विवेक
  • तर्क
  • बौद्धिक गंभीरता

से जोड़ा। इसी कारण उन्हें आधुनिक हिंदी गद्य का शिल्पकार कहा जाता है।

शैलीगत विविधता : द्विवेदी साहित्य का सौंदर्य

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की साहित्यिक महत्ता का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष उनकी शैलीगत बहुरूपता है। वे ऐसे साहित्यकार थे जिन्होंने किसी एक शैली को अपनी सीमा नहीं बनने दिया। विषय, उद्देश्य और पाठक—इन तीनों को ध्यान में रखते हुए वे अपनी शैली का चयन करते थे। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में भाव, विचार, तर्क, विवेचन, वर्णन और व्यंग्य—सभी का संतुलित और सार्थक प्रयोग दिखाई देता है।

द्विवेदी जी की शैलीगत विविधता केवल तकनीकी कौशल नहीं, बल्कि उनकी सजग साहित्यिक दृष्टि और सामाजिक उत्तरदायित्व का प्रमाण है। उनकी शैली सदैव उद्देश्यपरक रही—जहाँ जो शैली अधिक प्रभावी हो सकती थी, वहीं उसका प्रयोग किया गया।

(क) भावात्मक शैली

भावात्मक शैली द्विवेदी जी के साहित्य का वह पक्ष है, जो यह सिद्ध करता है कि वे केवल तर्कप्रधान और शुष्क लेखक नहीं थे। जब विषय मानवीय संवेदना, नैतिक मूल्य, संस्कृति, राष्ट्रबोध या आदर्शों से जुड़ा होता है, तब उनकी भाषा भावात्मक हो उठती है।

इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं—

  • भाषा की कोमलता और माधुर्य
  • वाक्य-प्रवाह में लयात्मकता
  • सूक्ष्म भावों की सहज अभिव्यक्ति
  • सीमित किंतु प्रभावशाली चित्रात्मकता

यद्यपि द्विवेदी जी भावुकता के अतिरेक से बचते हैं, फिर भी उनके भावात्मक लेखन में गंभीर संवेदना और आत्मिक स्पर्श स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। उनकी यह शैली पाठक को भावनात्मक रूप से झकझोरती नहीं, बल्कि विवेक के साथ भावबोध कराती है। यही संतुलन उनकी भावात्मक शैली को विशिष्ट बनाता है।

(ख) गवेषणात्मक शैली

गवेषणात्मक शैली द्विवेदी जी की बौद्धिक दृढ़ता और विद्वत्ता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। साहित्यिक आलोचना, काव्यशास्त्रीय विवेचन और परंपरागत मान्यताओं के परीक्षण में उन्होंने इस शैली का भरपूर प्रयोग किया।

इस शैली की विशेषताएँ हैं—

  • गंभीर और संस्कृतनिष्ठ भाषा
  • क्रमबद्ध तर्क-प्रणाली
  • शास्त्रीय ग्रंथों के संदर्भ और उद्धरण
  • विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण

इस शैली में वे किसी भी विषय को—

  • ऐतिहासिक संदर्भ में
  • शास्त्रीय कसौटी पर
  • तर्क और प्रमाण के आधार पर

परखते हैं। उनका गवेषणात्मक लेखन भावनाओं पर नहीं, बुद्धि पर प्रभाव डालता है। यह शैली हिंदी साहित्य को आलोचना और शोध की ठोस भूमि प्रदान करती है।

(ग) विचारात्मक शैली

विचारात्मक शैली द्विवेदी जी के चिंतक-स्वरूप को उजागर करती है। समाज, शिक्षा, भाषा, साहित्य, नैतिकता और राष्ट्र से जुड़े प्रश्नों पर लिखते समय उनकी शैली गहन चिंतन से युक्त होती है।

इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं—

  • विचारों की स्पष्टता
  • तर्कसंगत क्रमबद्धता
  • भावुकता से रहित प्रस्तुति
  • निष्कर्षपरक दृष्टि

द्विवेदी जी इस शैली में पाठक से भावनात्मक अपील नहीं करते, बल्कि उसे सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। वे प्रश्न उठाते हैं, समस्याओं का विश्लेषण करते हैं और समाधान की दिशा भी संकेतित करते हैं। यह शैली आधुनिक हिंदी गद्य को विचारधारा और बौद्धिकता से जोड़ने में निर्णायक सिद्ध हुई।

(घ) वर्णनात्मक शैली

जब द्विवेदी जी किसी घटना, स्थिति, परंपरा या सामाजिक यथार्थ का चित्र प्रस्तुत करते हैं, तब उनकी वर्णनात्मक शैली सामने आती है। यह शैली तथ्यप्रधान और स्पष्ट होती है।

इस शैली की विशेषताएँ हैं—

  • सरल और सीधी भाषा
  • अनावश्यक अलंकरण का अभाव
  • यथार्थपरक दृष्टि
  • वस्तुनिष्ठ विवरण

उनका वर्णन न तो कल्पनाप्रधान होता है और न ही भावुक अतिशयोक्ति से भरा हुआ। वे घटनाओं को उसी रूप में प्रस्तुत करते हैं, जैसे वे हैं। इससे पाठक को यथार्थ का स्पष्ट बोध होता है और लेखक की विश्वसनीयता भी बढ़ती है।

(ङ) हास्य–व्यंग्य शैली

द्विवेदी जी का हास्य–व्यंग्य तीखा और कटु न होकर संयमित, शालीन और सुधारात्मक है। वे व्यंग्य को मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक सुधार का माध्यम मानते थे।

इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं—

  • कटाक्ष में संयम
  • भाषा में मर्यादा
  • उद्देश्य में सुधार
  • व्यक्तिगत आक्षेप से दूरी

वे सामाजिक कुरीतियों, अज्ञानता, आडंबर और रूढ़िवादिता पर व्यंग्य करते हैं, किंतु व्यक्ति विशेष पर नहीं, बल्कि प्रवृत्तियों और मानसिकताओं पर प्रहार करते हैं। उनका व्यंग्य पाठक को हँसाने के साथ-साथ आत्ममंथन के लिए विवश करता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की शैलीगत विविधता उनके साहित्य का वास्तविक सौंदर्य है। उन्होंने—

  • विषय के अनुरूप शैली का चयन किया
  • भाषा और शैली को उद्देश्य का साधन बनाया
  • साहित्य को भाव, विचार और विवेक—तीनों से समृद्ध किया

उनकी शैली न तो आत्मप्रदर्शन है और न ही भावुकता का अतिरेक। वह अनुशासन, संतुलन और बौद्धिक गरिमा से युक्त है। इसी कारण द्विवेदी जी की रचनाएँ आज भी प्रासंगिक हैं और आधुनिक हिंदी गद्य के लिए मार्गदर्शक आदर्श बनी हुई हैं।

निष्कर्ष

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचनाओं की भाषा और शैली केवल निबंधों तक सीमित नहीं, बल्कि उनकी समस्त साहित्यिक साधना में समान रूप से प्रवाहित होती है। उन्होंने हिंदी भाषा को—

  • अनुशासन दिया
  • वैचारिक दृढ़ता प्रदान की
  • सामाजिक उत्तरदायित्व से जोड़ा

द्विवेदी जी की भाषा विचार, तर्क, संवेदना और व्यवहार—चारों के बीच अद्भुत संतुलन स्थापित करती है। यही कारण है कि वे केवल हिंदी निबंध के नहीं, बल्कि संपूर्ण आधुनिक हिंदी गद्य के संस्कारक, मार्गदर्शक और शिल्पकार माने जाते हैं।


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सर्वनाम (Pronoun) किसे कहते है? परिभाषा, भेद एवं उदाहरण भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग | नाम, स्थान एवं स्तुति मंत्र प्रथम विश्व युद्ध: विनाशकारी महासंग्राम | 1914 – 1918 ई.