भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल 1857 के विद्रोह से आरंभ नहीं हुआ था, बल्कि उससे बहुत पहले इस भूमि की वीरांगनाओं और योद्धाओं ने औपनिवेशिक दासता के विरुद्ध शौर्य और स्वाभिमान का परचम लहराया था। इन्हीं में से एक थीं — कित्तूर की रानी चेन्नम्मा, जिन्हें आज कर्नाटक ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में साहस, नारी शक्ति और देशभक्ति के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है।
उनका नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में इसलिए अंकित है क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सत्ता के आगे झुकने से इनकार किया और अपने छोटे से राज्य कित्तूर को बचाने के लिए 1824 में अंग्रेजों के खिलाफ एक सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया — यह घटना 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लगभग तीन दशक पहले की है। इसीलिए उन्हें भारत की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी और दक्षिण भारत में ब्रिटिश विरोधी आंदोलन की अग्रदूत कहा जाता है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
रानी चेन्नम्मा का जन्म 23 अक्तूबर 1778 को कागती गाँव, बेलगावी ज़िला (वर्तमान कर्नाटक) में एक लिंगायत परिवार में हुआ था। उनका परिवार धार्मिक, साहसी और परंपरागत रूप से स्वाभिमानी था। बाल्यकाल से ही उनमें नेतृत्व, न्यायप्रियता और साहस के गुण दिखाई देने लगे थे।
बचपन से ही चेन्नम्मा को उन कलाओं में प्रशिक्षित किया गया जो उस युग में केवल योद्धाओं के लिए आरक्षित थीं — घुड़सवारी, तलवारबाजी, तीरंदाजी, और राजनीतिक ज्ञान। उनके पिता ने उन्हें यह शिक्षा दी कि स्त्री केवल गृहस्थ जीवन तक सीमित नहीं है; वह राष्ट्र और समाज की रक्षा में भी समान भूमिका निभा सकती है। यही संस्कार आगे चलकर उनके भीतर एक ऐसी नारी का निर्माण करते हैं, जो न केवल एक राज्य की रानी बनीं, बल्कि पूरे राष्ट्र की प्रेरणा भी।
कित्तूर की रानी बनना
युवावस्था में चेन्नम्मा का विवाह कित्तूर के राजा मल्लसर्जा से हुआ। कित्तूर उस समय एक छोटा किन्तु समृद्ध राज्य था, जो अपने प्रशासनिक अनुशासन और सांस्कृतिक वैभव के लिए प्रसिद्ध था। विवाह के पश्चात वे राज्य की रानी बनीं और राजकाज में सक्रिय रूप से भाग लेने लगीं।
रानी के जीवन में एक बड़ा मोड़ तब आया जब 1816 में उनके पति राजा मल्लसर्जा का निधन हो गया। इसके कुछ वर्षों बाद उनका एकमात्र पुत्र भी असमय चल बसा। इस दुखद परिस्थिति में राज्य की उत्तराधिकार की समस्या उत्पन्न हुई। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस स्थिति का लाभ उठाकर कित्तूर को अपने अधीन करने की योजना बनाई।
लेकिन रानी चेन्नम्मा ने हार नहीं मानी। उन्होंने अपने रिश्तेदार के पुत्र शिवलिंगप्पा को गोद लेकर राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। यही कदम आगे चलकर ब्रिटिशों के साथ संघर्ष का कारण बना, क्योंकि कंपनी ने इस गोद लेने को अस्वीकार कर दिया।
ब्रिटिश नीति और संघर्ष की पृष्ठभूमि
उस समय ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के विभिन्न राज्यों पर नियंत्रण बढ़ाने के लिए कई नीतियाँ अपना रही थी। उनमें से एक थी — व्यपगत का सिद्धांत (Doctrine of Lapse)।
हालाँकि यह नीति औपचारिक रूप से गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा 1848 में लागू की गई थी, लेकिन रानी चेन्नम्मा के समय (1824 में) इसका आरंभिक रूप सामने आ चुका था। इस सिद्धांत के अनुसार, यदि किसी भारतीय राज्य का शासक बिना किसी जैविक पुरुष उत्तराधिकारी के मर जाता है, तो उसका राज्य स्वतः ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित हो जाएगा। दत्तक पुत्र को उत्तराधिकारी नहीं माना जाएगा।
रानी चेन्नम्मा के मामले में भी ब्रिटिशों ने इसी नीति का हवाला देते हुए उनके गोद लिए हुए पुत्र शिवलिंगप्पा को मान्यता देने से इनकार कर दिया। कंपनी ने यह दावा किया कि अब कित्तूर का शासन ब्रिटिश नियंत्रण में आएगा। यह रानी के आत्मसम्मान और राज्य की स्वतंत्रता पर सीधा प्रहार था।
कित्तूर का विद्रोह (1824)
रानी चेन्नम्मा ने ब्रिटिश अधिग्रहण को रोकने के लिए हर संभव कूटनीतिक प्रयास किए। उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों को पत्र लिखकर यह समझाने की कोशिश की कि गोद लेना भारतीय परंपरा का हिस्सा है और शिवलिंगप्पा वैध उत्तराधिकारी हैं। लेकिन कंपनी ने इन तर्कों को अस्वीकार कर दिया।
जब कूटनीति विफल हो गई, तब रानी ने हथियार उठाने का निर्णय लिया। उन्होंने अपनी सेना का नेतृत्व स्वयं संभाला और ब्रिटिश सेनाओं के खिलाफ 1824 में कित्तूर के युद्ध की शुरुआत की।
पहला चरण – ब्रिटिश पराजित
ब्रिटिश अधिकारी जॉन थैकेरी (John Thackeray) ने कित्तूर पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया, लेकिन रानी की सेना ने जबरदस्त प्रतिरोध किया। युद्ध में रानी चेन्नम्मा ने स्वयं अग्रिम मोर्चे पर नेतृत्व किया। थैकेरी मारा गया और ब्रिटिशों को बड़ी हार का सामना करना पड़ा। यह दक्षिण भारत में ब्रिटिशों के खिलाफ प्रारंभिक और उल्लेखनीय पराजयों में से एक थी।
दूसरा चरण – पलटवार और गिरफ्तारी
हालाँकि रानी चेन्नम्मा ने आरंभिक जीत हासिल की, लेकिन ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने हार मानने के बजाय और बड़ी सेना भेजी। इस बार सेना का नेतृत्व कर्नल डीकन (Colonel Deacon) के हाथों में था।
कित्तूर की सेना वीरता से लड़ी, परंतु संख्या और हथियारों की असमानता के कारण रानी की सेना को पराजित होना पड़ा। किला अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया और रानी चेन्नम्मा को गिरफ्तार कर बैलहोंगल किले में कैद कर दिया गया।
वहीं, 1829 में, मात्र 51 वर्ष की आयु में, रानी चेन्नम्मा ने कैद में अपने प्राण त्याग दिए। उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक ब्रिटिश सत्ता के सामने झुकने से इनकार किया।
रानी चेन्नम्मा की विचारधारा और व्यक्तित्व
रानी चेन्नम्मा केवल एक योद्धा नहीं थीं; वे एक न्यायप्रिय शासिका, दूरदर्शी नेता और नारी सशक्तिकरण की प्रतीक थीं।
उन्होंने यह दिखाया कि सत्ता का अर्थ केवल शासन नहीं है, बल्कि अपने लोगों की गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा करना भी है। उनके नेतृत्व में कित्तूर के लोग एकजुट हुए और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष को धर्म और कर्तव्य के रूप में देखा।
चेन्नम्मा की सबसे बड़ी विशेषता थी — उनका नारी सशक्तिकरण में विश्वास। उस दौर में जब महिलाओं को समाज में निर्णय लेने का अधिकार नहीं था, उन्होंने अपनी इच्छा, साहस और नीति से पुरुष-प्रधान सत्ता को चुनौती दी। यही कारण है कि आज उन्हें भारत की प्रथम नारीवादी (Feminist Icon) के रूप में भी याद किया जाता है।
कित्तूर रानी चेन्नम्मा उत्सव
हर वर्ष कर्नाटक के बेलगावी जिले में कित्तूर रानी चेन्नम्मा उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
यह तीन दिवसीय आयोजन उनके शौर्य, बलिदान और राष्ट्रभक्ति को सम्मानित करने के लिए समर्पित है।
इस दौरान कित्तूर का पूरा क्षेत्र देशभक्ति के रंग में रंग जाता है — लोकगीत, नाटक, झांकियाँ और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से रानी की वीरता का स्मरण किया जाता है।
यह उत्सव केवल ऐतिहासिक स्मृति नहीं, बल्कि समाज के लिए एक संदेश है — कि अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना हर नागरिक का धर्म है, चाहे परिस्थिति कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो।
व्यपगत का सिद्धांत (Doctrine of Lapse): ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
रानी चेन्नम्मा के संघर्ष को समझने के लिए “व्यपगत का सिद्धांत” को विस्तार से समझना आवश्यक है।
व्यपगत का सिद्धांत (Doctrine of Lapse) ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौज़ी द्वारा 1848 ई. में लागू किया गया। इसके अंतर्गत, यदि किसी भारतीय राज्य का शासक बिना किसी पुरुष उत्तराधिकारी के मर जाता है या अयोग्य घोषित किया जाता है, तो वह राज्य ब्रिटिश शासन में विलय कर दिया जाता था।
डलहौज़ी ने इस नीति का प्रयोग कई राज्यों पर किया —
- सतारा (1848)
- जैतपुर और संबलपुर (1849)
- बघाट (1850)
- उदयपुर (1852)
- झाँसी (1853)
- नागपुर (1854)
इस नीति के तहत रानी लक्ष्मीबाई के राज्य झाँसी का विलय भी किया गया था। लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि रानी चेन्नम्मा ने इसी नीति की अन्यायपूर्ण भावना के खिलाफ तीन दशक पहले ही विद्रोह कर दिया था। इसलिए उन्हें इस नीति के विरोध की पहली आवाज़ माना जाता है।
रानी चेन्नम्मा की विरासत
सामाजिक विरासत
रानी चेन्नम्मा ने समाज में महिलाओं की भूमिका को पुनः परिभाषित किया।
उन्होंने यह सिद्ध किया कि महिलाएँ केवल परिवार की संरक्षक नहीं, बल्कि राष्ट्र की रक्षक भी हो सकती हैं।
उनकी वीरता ने आने वाली पीढ़ियों की महिलाओं — जैसे झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, बेगम हजरत महल, और अन्य कई नायिकाओं — को प्रेरित किया।
वे भारतीय नारी के उस रूप का प्रतीक बनीं जो बलिदान, करुणा और साहस तीनों को एक साथ समेटे हुए है।
राजनीतिक और ऐतिहासिक विरासत
रानी चेन्नम्मा का विद्रोह भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक मील का पत्थर है।
उन्होंने उस समय ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी, जब अधिकांश भारतीय शासक समझौते की नीति अपना रहे थे।
उनका संघर्ष यह प्रमाणित करता है कि भारत की स्वतंत्रता की भावना किसी एक काल या क्षेत्र तक सीमित नहीं थी, बल्कि पूरे देश में फैली हुई थी।
उनका विद्रोह आगे चलकर दक्षिण भारत में अन्य ब्रिटिश-विरोधी आंदोलनों की प्रेरणा बना।
सांस्कृतिक विरासत
रानी चेन्नम्मा आज भी कर्नाटक की लोककथाओं, जनस्मृतियों, नाटकों और गीतों में जीवित हैं।
कर्नाटक के गाँवों में उनके साहस की गाथाएँ ‘जनपद गीतों’ के रूप में गाई जाती हैं।
उनके नाम पर सड़कों, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों का नाम रखा गया है।
बेंगलुरु में रानी चेन्नम्मा की भव्य प्रतिमा उनके शौर्य की साक्षी है, जो हर गुजरने वाले को यह संदेश देती है कि स्वतंत्रता कभी भी बिना संघर्ष के नहीं मिलती।
रानी चेन्नम्मा का ऐतिहासिक मूल्यांकन
इतिहासकारों का मानना है कि रानी चेन्नम्मा का विद्रोह केवल एक स्थानीय राजनीतिक संघर्ष नहीं था, बल्कि यह भारत के औपनिवेशिक इतिहास की दिशा बदलने वाला आंदोलन था।
उन्होंने ब्रिटिश नीति की अन्यायपूर्ण प्रकृति को उजागर किया और यह दिखाया कि भारतीय शासन प्रणालियाँ भी न्यायपूर्ण और आत्मनिर्भर हो सकती हैं।
रानी चेन्नम्मा का विद्रोह यह भी सिद्ध करता है कि भारतीय महिलाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन की नींव रखने में अग्रणी भूमिका निभाई।
उनकी प्रेरणा से ही 1857 का विद्रोह और आगे चलकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम एक व्यापक जनांदोलन बन सका।
समकालीन संदर्भ में रानी चेन्नम्मा का संदेश
आज जब हम 21वीं सदी में समानता, स्वतंत्रता और नारी सशक्तिकरण की बात करते हैं, तो रानी चेन्नम्मा का जीवन हमें यह सिखाता है कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक भी होती है।
उनका संघर्ष हमें यह प्रेरणा देता है कि किसी भी अन्यायपूर्ण सत्ता या नीति के सामने हमें झुकना नहीं चाहिए।
वे बताती हैं कि सच्चा नेतृत्व वह है जो कठिन परिस्थितियों में भी न्याय और सत्य के पक्ष में खड़ा रहे।
निष्कर्ष
कित्तूर की रानी चेन्नम्मा भारत की उस अदम्य नारी शक्ति का प्रतीक हैं, जिन्होंने इतिहास की धारा को मोड़ दिया।
उन्होंने यह दिखाया कि मातृत्व और योद्धा का स्वरूप एक ही स्त्री में एक साथ समाहित हो सकता है।
ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ उनका संघर्ष केवल कित्तूर की स्वतंत्रता के लिए नहीं था, बल्कि वह पूरे भारत की आत्मा की स्वतंत्रता के लिए था।
रानी चेन्नम्मा ने अपने त्याग और बलिदान से यह संदेश दिया कि स्वराज्य ही मानव का जन्मसिद्ध अधिकार है, और इसके लिए संघर्ष करना हर नागरिक का धर्म है।
आज जब हम ‘कित्तूर रानी चेन्नम्मा उत्सव’ मनाते हैं, तो यह केवल अतीत की स्मृति नहीं, बल्कि भविष्य के लिए प्रेरणा भी है —
कि भारत की हर बेटी में एक चेन्नम्मा बसती है, जो अपने साहस, आत्मसम्मान और देशभक्ति से किसी भी अन्याय के विरुद्ध डट सकती है।
इन्हें भी देखें –
- नेपाली भाषा : उत्पत्ति, विकास, लिपि, वर्णमाला, दिवस और साहित्य
- संस्कृत भाषा : इतिहास, उत्पत्ति, विकास, व्याकरण, लिपि और महत्व
- एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय (EMRS): आदिवासी शिक्षा और सशक्तिकरण की दिशा में भारत सरकार की ऐतिहासिक पहल
- एटॉमिक स्टेंसिलिंग : परमाणु स्तर पर नैनो प्रौद्योगिकी की नई क्रांति
- दिल्ली रात्रि पाली कार्य नीति 2025: महिलाओं को मिला नया अधिकार
- दिग्विजय दिवस: स्वामी विवेकानंद के शिकागो संबोधन की अमर गूंज
- यूस्टोमा फूल (लिसियंथस) : भारत में पहली बार स्थानीय स्तर पर खिला आकर्षक पुष्प
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