सर्वोच्च न्यायालय में महिला न्यायाधीश: समावेशिता और लैंगिक समानता की चुनौती

भारत का सर्वोच्च न्यायालय न केवल देश की न्यायिक व्यवस्था का शीर्ष स्तंभ है, बल्कि यह लोकतांत्रिक मूल्यों और संविधानिक आदर्शों का संरक्षक भी है। न्यायपालिका से अपेक्षा की जाती है कि वह निष्पक्ष, समावेशी और समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली हो। किन्तु जब हम भारत के सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं की भागीदारी और प्रतिनिधित्व की स्थिति पर दृष्टि डालते हैं, तो यह स्पष्ट होता है कि यहाँ अब भी गंभीर असंतुलन मौजूद है। 2025 की मौजूदा स्थिति इस असमानता को और भी उजागर करती है, जहाँ 34 न्यायाधीशों की पूर्ण संख्या में केवल एक महिला न्यायाधीश कार्यरत हैं। यह स्थिति न केवल न्यायपालिका की समावेशिता पर सवाल उठाती है, बल्कि व्यापक स्तर पर न्याय वितरण और समान प्रतिनिधित्व की अवधारणा को भी चुनौती देती है।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य: महिला न्यायाधीशों की यात्रा

भारत में न्यायपालिका की शुरुआत से लेकर अब तक महिला न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व बेहद सीमित रहा है।

  • 1950 से अब तक सुप्रीम कोर्ट में कुल 287 न्यायाधीश नियुक्त हुए हैं।
  • इनमें से केवल 11 महिलाएँ रही हैं, यानी यह संख्या मात्र 8% है।
  • कभी भी एक साथ चार से अधिक महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं हुई।
  • पहली महिला न्यायाधीश: जस्टिस फातिमा बीवी को 1989 में पहली बार सुप्रीम कोर्ट में महिला न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया।

यह तथ्य दर्शाता है कि महिलाओं की मौजूदगी भारतीय न्यायपालिका में अभी भी अपवाद के रूप में देखी जाती है।

प्रतिनिधित्व में प्रगति और 2021 का मील का पत्थर

वर्ष 2021 न्यायपालिका के इतिहास में महत्वपूर्ण रहा, जब पहली बार एक साथ तीन महिला न्यायाधीशों को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया गया। इस वजह से कुछ समय के लिए महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10% से अधिक हो गया। यह एक सकारात्मक संकेत था, जिसने न्यायपालिका में लैंगिक संतुलन की संभावना को उजागर किया।

फिर भी यह उपलब्धि अस्थायी साबित हुई। समय के साथ महिला न्यायाधीशों की संख्या घटकर फिर न्यूनतम स्तर पर आ गई।

वर्तमान स्थिति (2025)

वर्तमान समय में सुप्रीम कोर्ट में केवल एक महिला न्यायाधीश – जस्टिस बी.वी. नागरत्ना कार्यरत हैं। यह स्थिति बेहद असंतोषजनक है। हालांकि, यह तथ्य गौर करने योग्य है कि वर्ष 2027 में जस्टिस नागरत्ना भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश (CJI) बनेंगी। यह ऐतिहासिक क्षण होगा, लेकिन इस उपलब्धि से पहले और बाद में महिला प्रतिनिधित्व की कमी चिंता का विषय बनी रहेगी।

हाशिए के समुदायों से महिलाओं का अभाव

एक और गंभीर पहलू यह है कि अब तक सुप्रीम कोर्ट में किसी भी महिला न्यायाधीश की नियुक्ति अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) या अन्य वंचित समुदायों से नहीं हुई है। यह न्यायपालिका में विविधता और समावेशिता की कमी को उजागर करता है। जब तक हाशिए के वर्गों की महिलाएँ उच्चतम न्यायालय तक नहीं पहुँचतीं, तब तक न्यायपालिका की प्रतिनिधिकता अधूरी रहेगी।

न्यायपालिका में महिलाओं की कम भागीदारी के कारण

महिला न्यायाधीशों की कम संख्या केवल नियुक्ति की समस्या नहीं है, बल्कि यह गहरे सामाजिक, ऐतिहासिक और संस्थागत अवरोधों का परिणाम है।

1. ऐतिहासिक और सामाजिक अवरोध

  • लंबे समय तक पितृसत्तात्मक सोच ने महिलाओं को विधि पेशे से दूर रखा।
  • यह धारणा बनी रही कि महिलाएँ जटिल कानूनी मामलों को संभालने में सक्षम नहीं हैं।
  • समाज में महिलाओं से परिवार और देखभाल की भूमिकाएँ निभाने की अपेक्षा ने उनकी न्यायपालिका में भागीदारी सीमित कर दी।

2. शिक्षा और करियर से जुड़ी चुनौतियाँ

  • गुणवत्तापूर्ण कानूनी शिक्षा तक महिलाओं की पहुँच, विशेषकर वंचित वर्ग की महिलाओं के लिए, सीमित रही।
  • आदर्श (Role Models) और मेंटरशिप की कमी ने उन्हें न्यायिक करियर अपनाने से हतोत्साहित किया।

3. पेशेवर और कार्यस्थल संबंधी बाधाएँ

  • पुरुष-प्रधान नेटवर्क ने महिलाओं की उन्नति में अवरोध उत्पन्न किया।
  • मातृत्व अवकाश, चाइल्डकेयर और लचीली कार्य नीतियों जैसी सहायक सुविधाओं का अभाव रहा।

4. संस्थागत और संरचनात्मक पक्षपात

  • कोलेजियम प्रणाली में पारदर्शिता और लैंगिक संवेदनशीलता की कमी रही।
  • नेतृत्व की भूमिकाओं तक पहुँचने में महिलाओं को व्यवस्थित अवरोध झेलने पड़े।
  • बहुत कम महिला न्यायाधीश मुख्य न्यायाधीश के पद तक पहुँच सकीं।

5. पदोन्नति और स्थायित्व की समस्याएँ

  • भेदभाव और सीमित करियर प्रगति के कारण महिलाएँ न्यायपालिका से अपेक्षाकृत अधिक दर से बाहर होती हैं।
  • शुरुआती प्रवेश के बावजूद शीर्ष पदों तक उनका पहुँचना मुश्किल होता है।

वर्तमान चुनौतियाँ

कम कार्यकाल (Tenure)

महिलाओं का कार्यकाल पुरुषों की तुलना में छोटा होता है। इसका एक कारण यह है कि उन्हें अक्सर अधिक उम्र में नियुक्त किया जाता है। परिणामस्वरूप, वे वरिष्ठ पदों तक पहुँचने से पहले ही सेवानिवृत्त हो जाती हैं।

नियुक्ति में देरी

महिलाओं की नियुक्ति आमतौर पर देर से होती है। इससे उनकी सेवा अवधि सीमित हो जाती है और वे शीर्ष पदों तक पहुँचने का अवसर खो देती हैं।

लैंगिक मानदंडों की अनुपस्थिति

सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में नियुक्ति के दौरान जाति, धर्म और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व पर तो ध्यान दिया जाता है, लेकिन लैंगिक प्रतिनिधित्व को कोई संस्थागत मान्यता नहीं मिली है। यही कारण है कि महिलाओं की संख्या आज भी बेहद कम है।

न्यायपालिका में महिलाओं की बढ़ती भूमिका का महत्व

महिलाओं की न्यायपालिका में बढ़ती भूमिका केवल समान अवसर का प्रश्न नहीं है, बल्कि यह न्याय वितरण की गुणवत्ता और व्यापकता से भी जुड़ा हुआ है।

  1. न्याय की निष्पक्षता – महिलाओं की भागीदारी से निर्णयों में विविध दृष्टिकोण शामिल होते हैं, जिससे न्याय और अधिक संतुलित होता है।
  2. समाज का विश्वास – जब अदालत में समाज के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व होगा, तो आम जनता का न्यायपालिका पर विश्वास और मजबूत होगा।
  3. संवेदनशीलता और सहानुभूति – महिलाएँ अक्सर लैंगिक, सामाजिक और पारिवारिक मुद्दों पर अधिक संवेदनशील दृष्टिकोण लाती हैं।
  4. समान अवसर की मिसाल – महिला न्यायाधीशों की मौजूदगी युवा लड़कियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनती है।

सुधार की आवश्यकता

महिला प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए न्यायपालिका में ठोस सुधारों की आवश्यकता है।

  • नियुक्ति प्रक्रिया में लैंगिक संतुलन: कोलेजियम प्रणाली में यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय महिलाओं की पर्याप्त हिस्सेदारी हो।
  • मेंटोरशिप और प्रशिक्षण: युवा महिला वकीलों को न्यायिक करियर के लिए प्रोत्साहित करने हेतु विशेष कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए।
  • सहायक नीतियाँ: मातृत्व अवकाश, चाइल्डकेयर सुविधाएँ और लचीली कार्य नीतियों को अपनाना आवश्यक है।
  • विविधता को प्राथमिकता: हाशिए के समुदायों से आने वाली महिलाओं को न्यायपालिका में शामिल करने के लिए विशेष प्रयास किए जाने चाहिए।

निष्कर्ष

सर्वोच्च न्यायालय में महिलाओं की कम उपस्थिति भारतीय न्यायपालिका की समावेशिता और समानता की अवधारणा पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाती है। यद्यपि जस्टिस बी.वी. नागरत्ना का 2027 में पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनना एक ऐतिहासिक उपलब्धि होगी, लेकिन इस प्रतीकात्मक उपलब्धि से आगे बढ़कर हमें न्यायपालिका में लैंगिक संतुलन स्थापित करने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे।

समान प्रतिनिधित्व केवल महिलाओं का अधिकार ही नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी आवश्यकता है, जो न्याय की गुणवत्ता, लोकतांत्रिक आदर्शों और सामाजिक विश्वास को मजबूत करती है। जब तक न्यायपालिका में महिलाओं की पर्याप्त भागीदारी नहीं होगी, तब तक हमारा न्याय तंत्र पूर्ण और संतुलित नहीं माना जा सकता।


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