ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी | 1600 ई. – 1858 ई.

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी, भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण चरण का हिस्सा थी। इस कम्पनी का उद्देश्य था भारतीय व्यापार की धारा पर नियंत्रण स्थापित करना, और इसके पास भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के आदिकाल से अंतिमकाल तक शासन और धन का अधिकार रहा। इसका असर भारतीय समाज, राजनीति, और व्यापार पर हुआ, जिसका इतिहास आज भी याद रखा जाता है।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी, 1600 से 1858 तक ब्रिटिश साम्राज्य के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में भारत के साथ व्यापारिक और सामरिक संबंध स्थापित करने के लिए स्थापित की गई थी। यह कंपनी भारतीय सुप्राधिकृत राज्यों के साथ व्यापार करती थी और अपनी आर्थिक सत्ता को मजबूत करने के लिए भारतीय समृद्धि को अपने लाभ के लिए शोषण करती थी। 1857 की भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (भारतीय म्यूटिनी) के बाद, कंपनी के स्थान पर ब्रिटिश सरकार ने भारत की प्राधिकृती को बरकरार रखकर भारत को सीधे अपने अधीन कर लिया और यह ब्रिटिश राज की शुरुआत का आरंभ हुआ। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का योगदान भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है और यह आज भी उसके इतिहास का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना 31 दिसम्बर 1600 ईस्वी में हुई थी। इसे ब्रिटेन की महारानी ने भारत के साथ व्यापार करने के लिये 21 सालो तक की छूट दे दी। बाद में कम्पनी ने भारत के लगभग सभी क्षेत्रों पर अपना सैनिक तथा प्रशासनिक अधिपत्य जमा लिया। 

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ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के भारत आगमन का कारण :

सोलहवीं सदी के अंत तक भारत के पास काफी धन दौलत थी। उस समय तक भारत एक संपन्न राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान पुरे विश्व में बनाने में सफल हो चुका था। यही नहीं दुनिया के कुल उत्पादन का एक चौथाई माल भारत में तैयार होता था। इसी वजह से भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। उस समय भारत पर मुगलों का आधिपत्य हो चुका था, और दिल्ली की तख़्त पर मुग़ल बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर की हुकूमत थी।

बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर उस समय दुनिया के सबसे दौलतमंद बादशाहों में से एक थे। वही दूसरी तरफ़ उसी दौर में ब्रिटेन गृहयुद्ध से उबर रहा था। उसकी अर्थव्यवस्था खेतीबाड़ी पर निर्भर थी और दुनिया के कुल उत्पादन का महज तीन फ़ीसद माल वहां तैयार होता था।

यूरोप की प्रमुख शक्तियाँ पुर्तगाल और स्पेन, व्यापार में ब्रिटेन को पीछे छोड़ते हुए काफी आगे निकल चुकी थीं। ब्रिटेन के व्यापारी उस समय व्यापार ठीक से न कर पाने के कारण समुद्री लुटेरे बन गए थे , और ये ब्रिटेन के समुद्री लुटेरे रूपी व्यापारी पुर्तगाल और स्पेन के व्यापारिक जहाज़ों को लूटकर ही अपना काम चलाते थे। और उसी से संतुष्ट हो जाते थे। ब्रिटेन में उस वक़्त महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम का शासन चलता था

उसी दौरान एक ब्रिटेन व्यापारी राल्फ़ फ़िच जो की एक घुमक्कड़ ब्रिटेन का व्यापारी था, उसको हिंद महासागर, मेसोपोटामिया, फ़ारस की खाड़ी और दक्षिण पूर्व एशिया की व्यापारिक यात्राएँ करते हुए भारत की समृद्धि के बारे में पता चलता है। राल्फ़ फ़िच की ये यात्रा इतनी लंबी थी कि ब्रिटेन लौटने से पहले उन्हें मृत मानकर उनकी वसीयत को लागू कर दिया गया था। पूरब से मसाले हासिल करने के लिए लेवेंट कंपनी दो दो बार कोशिशें कर चुकी थी, परन्तु दोनों बार नाकाम रही।

भारत के बारे में राल्फ़ फ़िच की जानकारी के आधार पर एक अन्य घुमक्कड़ ब्रिटेन का व्यापारी सर जेम्स लैंकेस्टर सहित ब्रिटेन के 200 से अधिक प्रभावशाली और व्यावसायिक पेशे वाले ब्यापारियों को भी इस दिशा में आगे बढ़ने का विचार आया।

उन्होंने 31 दिसंबर 1600 को एक नई कंपनी की नींव डाली, और महारानी से पूर्वी एशिया में व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त किया। इस कंपनी के कई नाम हैं, लेकिन इसे ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से जाना गया।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का भारत आगमन:

1608 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, क्योंकि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी अपने व्यापार की शुरुआत मसालों के व्यापारी के रूप में करना चाहती थी।

शुरुआती सालों में दूसरे क्षेत्रों में यात्रा करने के बाद अगस्त 1608 में कैप्टन विलियम हॉकिंस ने भारत के सूरत बंदरगाह पर अपने जहाज़ ‘हेक्टर’ के साथ पंहुचा और भारत में अपना कदम रखा। यही से ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत आगमन हुआ।

हिंद महासागर में ब्रिटेन के व्यापारिक प्रतिद्वंद्वी डच और पुर्तगाली पहले से ही मौजूद थे। तब किसी ने अनुमान भी नहीं लगाया होगा किईस्ट इंडिया कम्पनी अपने देश से लगभग बीस गुना बड़े देश, और दुनिया के सबसे धनी देशों में से एक देश जिसकी आबादी उसकी देश की चारगुना थी, उस पर सीधे तौर पर शासन करने वाली थी।

जब कैप्टन विलियम हॉकिंस ने भारत के सूरत बंदरगाह पर अपना डेरा डाला उस समय तक बादशाह अकबर की मृत्यु हो चुकी थी। उस दौर में संपत्ति के मामले में केवल चीन का मिंग राजवंश ही बादशाह अकबर की बराबरी कर सकता था।

ख़ाफ़ी ख़ान निज़ामुल-मुल्क की किताब ‘मुंतख़बुल-बाब’ के अनुसार, बादशाह अकबर ने अपार धन सम्पदा और एक बहुत विशाल सेना अपने आने वाले पीढ़ियों के लिए रख छोड़ा था। इन धन संपदाओं और सैनिकों में पाँच हज़ार हाथी, बारह हज़ार घोड़े, एक हज़ार चीते, दस करोड़ रुपये, बड़ी अशर्फ़ियों में सौ तोले से लेकर पाँच सौ तोले तक की हज़ार अशर्फ़ियाँ, दो सौ बहत्तर मन कच्चा सोना, तीन सौ सत्तर मन चाँदी, एक मन जवाहरात जिसकी क़मीत तीन करोड़ रुपये थी।

अकबर के बाद उनके शहज़ादे सलीम नूरुद्दीन, जहाँगीर की उपाधि के साथ तख़्त पर आसीन हो चुके थे। बादशाह अकबर के शासन काल से ही शासन व्यवस्था में काफी सुधार किये गए थे। और यह सुधारों का सिलसिला उनके शहजादे सलीम ने भी जारी रखा।

शहजादे सलीम के समय में शासन में सुधारों को लागू करते हुए कान, नाक और हाथों को काटने का दंड समाप्त कर दिया गया था। आम जनता के लिए शराब और दूसरी नशीली वस्तुओं का प्रयोग और विशेष दिनों में जानवरों के वध पर पाबंदी लगाने पर आदेश देने के साथ साथ कई अवैध करों को भी हटा दिया गया था।

उस समय सड़कें, कुएँ और सराय बनाए जा रहे थे। उत्तराधिकार के क़ानूनों को सख़्ती से लागू किया गया था और हर शहर के सरकारी अस्पतालों में मुफ़्त इलाज हो रहा था। फ़रियादियों की फ़रियाद के लिए महल की दीवार से न्याय की एक ज़ंजीर लटका दी गई थी।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का व्यापार के लिए संघर्ष

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सबसे पहले व्यापार की शुरुआत मसाले वाले द्वीपों से की। 1608 ई. में उसका पहला व्यापारिक पोत सूरत पहुँचा, परन्तु पुर्तग़ालियों के प्रतिरोध और शत्रुतापूर्ण रवैये ने कम्पनी को भारत के साथ सहज ही व्यापार शुरू नहीं करने दिया। पुर्तग़ालियों से निपटने के लिए अंग्रेज़ों को डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सहायता और समर्थन मिला और दोनों कम्पनियों ने एक साथ मिलकर पुर्तग़ालियों से लम्बे अरसे तक समय समय पर युद्ध करते रहे ।

1612 ई. में कैप्टन बोस्टन के नेतृत्व में अंग्रेज़ों के एक जहाज़ी बेड़े ने पुर्तग़ाली हमले को परस्त कर दिया और अंग्रेज़ों की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सूरत में व्यापार शुरू कर दिया। 1613 ई. में कम्पनी को एक शाही फ़रमान मिला और सूरत में व्यापार करने का उसका अधिकार सुरक्षित हो गया। 1622 ई. में अंग्रेज़ों ने ओर्मुज पर अधिकार कर लिया, जिसके फलस्वरूप वे पुर्तग़ालियों के प्रतिशोध या आक्रमण से पूरी तरह सुरक्षित हो गये।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की सफलता

1615-18 ई. में सम्राट जहाँगीर के समय ब्रिटिश नरेश जेम्स प्रथम के राजदूत सर टामस रो ने ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त कर लिये। इसके शीघ्र बाद ही कम्पनी ने मसुलीपट्टम और बंगाल की खाड़ी स्थित अरमा गाँव नामक स्थानों पर कारख़ानें स्थापित किये। किन्तु कम्पनी को पहली महत्त्वपूर्ण सफलता मार्च, 1640 ई. में मिली, जब उसने विजयनगर शासकों के प्रतिनिधि चन्द्रगिरि के राजा से आधुनिक चेन्नई नगर का स्थान प्राप्त कर लिया।

जहाँ पर उन्होंने शीघ्र ही सेण्ट जार्ज क़िले का निर्माण किया। 1661 ई. में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय को पुर्तग़ाली राजकुमारी से विवाह के बाद दहेज में बम्बई का टापू मिल गया। चार्ल्स ने 1668 ई. में इसको केवल 10 पाउण्ड सालाना किराये पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। इसके बाद 1669 और 1677 ई. के बीच कम्पनी के गवर्नर जेराल्ड आंगियर ने आधुनिक बम्बई नगर की नींव डाली।

मुग़ल बादशाह और ब्रिटिश

विश्व विख्यात इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल के अनुसार, हॉकिंस को जल्द ही एहसास हो गया कि चालीस लाख मुग़लों की सेना के साथ वैसा युद्ध नहीं किया जा सकता जैसा कि उस समय यूरोप में हो रहा था।

इसलिए यहाँ उसे मुग़ल बादशाह के साथ सीधे तौर पर आमना सामना करने के बजाये उनकी तारीफ करके उनका विश्वास जीतना उचित समझा। हाकिंस को व्यापार करने के लिए मुग़ल बादशाह की इजाजत के साथ-साथ उनके सहयोग की भी ज़रूरत थी।इसलिए हॉकिंस एक वर्ष के भीतर मुग़ल राजधानी आगरा पहुँचा। और जहागीर से व्यापार करने के लिए अनुमति माँगा, परन्तु हॉकिंस को जहाँगीर से व्यापार की अनुमति प्राप्त करने में सफलता नहीं मिली।

उसके बाद संसद के सदस्य और राजदूत सर थॉमस रो को शाही दूत के रूप में भेजा गया। सर थॉमस रो 1615 में मुग़ल राजधानी आगरा पहुँचे। उन्होंने राजा को बहुमूल्य उपहार भेंट किया, जिसमें शिकारी कुत्ते और उनकी पसंदीदा शराब भी शामिल थी।

परन्तु ब्रिटेन के साथ सम्बन्ध बनाने को जहागीर ने प्राथमिकता नहीं दिया। और थॉमस रो जहागीर से जब भी व्यापार की बात करता था, तो बादशाह उससे व्यापार के बजाय घोड़ों, कलाकृतियों और शराब के विषय में चर्चा करने लगता।

तीन साल तक लगातार अनुनय-विनय के बाद आख़िरकार सर थॉमस रो को इसमें सफलता मिल ही गई । और जहाँगीर ने ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक व्यापारिक समझौते पर अपने हस्ताक्षर कर दिए।

समझौते के तहत, कंपनी और ब्रिटेन के सभी व्यापारियों को उपमहाद्वीप के प्रत्येक बंदरगाह के इस्तेमाल के साथ ही साथ अपने व्यापारिक वस्तुओं को ख़रीदने तथा बेचने के लिए जगहों के इस्तेमाल की भी इजाजत मिल गई। और इसके बदले में यूरोपीय उत्पादों को भारत को देने का वादा किया गया था, लेकिन उस समय तक ब्रिटिश में कुछ खास उत्पादन नहीं होता था और न ही कुछ बनता था।

इसलिए ब्रिटिश द्वारा बड़ी चालाकी से ये तय किया गया था कि कंपनी के जहाज़ राजमहल के लिए जो भी प्राचीन वस्तुएँ और उपहार लाएँगे उन्हें सहर्ष स्वीकार किया जाएगा। कंपनी के व्यापारी मुग़लों की रज़ामंदी से भारत से सूत, नील, पोटैशियम नाइट्रेट और चाय ख़रीदते, विदेशों में उन्हें महंगे दामों में बेचते और ख़ूब मुनाफ़ा कमाते थे ।

कंपनी की पूँजी का आधार व्यापारिक पूँजी था। कंपनी जो भी वस्तु ख़रीदती उसका मूल्य चाँदी देकर अदा करती, जो उसने 1621 से 1843 तक स्पेन और संयुक्त राज्य अमेरिका में दासों को बेचकर जमा किया था।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का मुगलों से आमना-सामना

साल 1670 में, ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को विदेश में युद्ध लड़ने और उपनिवेश स्थापित करने की अनुमति दे दी। ब्रिटिश सेना के सशस्त्र बलों ने पहले भारत में पुर्तगाली, डच और फ़्रांसीसी प्रतिद्वंद्वियों का मुक़ाबला किया और अधिकांश युद्ध जीते। इस प्रकार से धीरे-धीरे उसने बंगाल के तटीय क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया। परन्तु अभी तक मुगलों से उनका अमना सामना नहीं हुआ था।

लेकिन, सत्रहवीं शताब्दी में, मुग़लों से केवल एक बार उनका आमना-सामना हुआ था। उस समय साल 1681 में, कंपनी के कर्मचारियों ने कंपनी के निदेशक सर चाइल्ड से शिकायत की कि बंगाल में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब आलमगीर के भांजे नवाब शाइस्ता ख़ान के अधिकारी उन्हें कर और अन्य मामलों में परेशान करते हैं।

सर चाइल्ड ने सैन्य सहायता के लिए अपने सम्राट को पत्र लिखा। इसके बाद 1686 में उन्नीस युद्धपोतों, दो सौ तोपों और छह सौ सैनिकों वाला एक नौसैनिक बेड़ा लंदन से बंगाल की ओर रवाना हुआ।

मुग़ल बादशाह की सेना भी तैयार थी, और दोनों का आमना सामना हुआ, इस युद्ध में ब्रिटिश सेना बुरी तरह परास्त हुई और मुग़लों की जीत हुई। 1695 में, ब्रिटिश समुद्री डाकू हेनरी एवरी ने औरंगज़ेब के समुद्री जहाज़ों ‘फ़तेह मुहम्मद’ और ‘ग़ुलाम सवाई’ को लूट लिया। इस ख़ज़ाने की कीमत लगभग छह से सात लाख ब्रिटिश पाउंड थी।

मुग़ल सेना से बुरी तरह परास्त हुई ब्रिटिश सेना

सर चाइल्ड के द्वारा सैन्य सहायता के लिए अपने सम्राट को लिखे गए पत्र के ऊपर कार्यवाही करते हुए ब्रिटिश सम्राट ने सन 1686 में उन्नीस युद्धपोतों, दो सौ तोपों और छह सौ सैनिकों वाला एक नौसैनिक बेड़ा लंदन से बंगाल के लिए भेजा। परन्तु मुगलों के पास एक विशाल सेना थी। और मुग़ल पहले से ही किसी भी युद्ध के लिए तैयार थे।

इस लिए इस युद्ध में ब्रिटिश सेना को हार का सामना करना पड़ा। और मुग़ल सेना की जीत हुई । इस जीत के बाद सन 1695 ई. में, ब्रिटिश समुद्री डाकू हेनरी एवरी ने औरंगज़ेब के दो समुद्री जहाज़ों ‘फ़तेह मुहम्मद’ और ‘ग़ुलाम सवाई’ को लूट लिया। इस जहाज में अपार धन सम्पदा थी, जिसकी कीमत लगभग छह से सात लाख ब्रिटिश पाउंड थी। इसके बाद मुग़ल बहुत ही नाराज हुए। और ब्रिटिश सेना के सैनिकों को बहुत ही बुरी तरह से मारा।

इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल का कहना है कि ब्रिटिश सेना के सैनिकों को मुग़ल सेना ने मक्खियों की तरह मारा। बंगाल में कंपनी के पाँच कारख़ाने नष्ट कर दिए गए और सभी अंग्रेज़ों को बंगाल से बाहर निकाल दिया गया।

सूरत के कारख़ाने को बंद कर दिया गया और बम्बई में भी उनका यही हाल किया गया। कंपनी के कर्मचारियों को ज़ंजीरों में जकड़कर शहरों में घुमाया गया और अपराधियों की तरह उन्हें अपमानित किया गया।

कंपनी के पास माफ़ी माँगने और अपने कारख़ानों को वापस पाने के लिए राजा के दरबार में भिखारियों की तरह उपस्थित होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। ब्रिटिश सम्राट ने आधिकारिक रूप से हेनरी एवरी की निंदा की और मुग़ल बादशाह से माफ़ी माँगी।

औरंगज़ेब आलमगीर ने कंपनी को माफ कर दिया। जिसके पश्चात कंपनी का व्यापार पुनः सुचारू रूप से चलने लगा। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में, ईस्ट इंडिया कंपनी चीन से रेशम और चीनी मिट्टी के बर्तन ख़रीदती थी। और सभि सामानों का भुगतान चाँदी में करती थी, क्योंकि उनके पास कोई भी ऐसा उत्पाद नहीं था जिसकी चीन को आवश्यकता हो, जिसको वह बदले में दे सके।

अंग्रेजों ने इस पर विचार करके इसका एक उपाय निकाला। इस उपाय के तहत अंग्रेजो द्वारा बंगाल में पोस्ते की खेती की गई और बिहार में अफ़ीम का निर्माण करने के लिए कारख़ाने लगाए गए और इस अफ़ीम को तस्करी के ज़रिये चीन पहुँचाया गया।

उस समय तक, चीन में अफ़ीम का बहुत कम उपयोग किया जाता था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने चीनी एजेंटों के माध्यम से लोगों के बीच अफ़ीम को बढ़ावा दिया। कंपनी ने अफ़ीम के व्यापार से रेशम और चीनी के बर्तन भी ख़रीदे और मुनाफ़ा भी कमाया।

जब चीनी सरकार ने अफ़ीम के व्यापार को रोकने की कोशिश की और चीन आने वाले अफ़ीम को नष्ट किया गया, तब चीन और ब्रिटेन के बीच कई युद्ध हुए। जिसमें चीन की हार हुई और ब्रिटेन ने अपमानजनक शर्तों पर चीन के साथ कई समझौते किए। यह समझौता पूरी तरह से ब्रिटिश के शर्तों पर आधारित था। इस समझौते के तहत नष्ट किए गए अफ़ीम का मुआवज़ा वसूला गया। चीन के बंदरगाहों पर क़ब्ज़ा किया गया। हांगकांग पर ब्रिटिश आधिपत्य कायम कर लिया गया।

चीनी सरकार ने इस के विरोध में महारानी विक्टोरिया को पत्र लिखकर अफ़ीम के व्यापार को रोकने में मदद करने की अपील की। परन्तु उस पत्र का कोई जवाब नहीं आया।

साल 1707 में बादशाह औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद, विभिन्न क्षेत्रों के लोग एक-दूसरे के ख़िलाफ़ हो गए। कंपनी ने इन परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए लाखों की संख्या में स्थानीय लोगों को ब्रिटिश सेना में भर्ती कर लिया।

इस समय तक यूरोप में औद्योगिक क्रांति शुरू हो गई थी। इस औद्योगिक क्रांति के कारण ब्रिटिश युद्ध तकनीक में भी दक्ष हो गए थे। इस कारण से ब्रिटिश की छोटी लेकिन प्रभावी सेना एक के बाद एक पुरानी तकनीक से लैस मुग़लों, मराठों, सिखों और स्थानीय नवाबों की बड़ी सेनाओं को हराती चली गई।

साल 1756 में, नवाब सिराजुद्दौला बंगाल के नवाब बन चुके थे। बंगाल उस समय भारत का सबसे धनी अर्ध-स्वायत्त राज्य था। मुग़ल शासन के राजस्व का पचास प्रतिशत इसी राज्य से आता था। उस समय बंगाल न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में कपड़ा और जहाज़ निर्माण का एक प्रमुख केंद्र था। इस क्षेत्र के लोग रेशम, सूती वस्त्र, इस्पात, पोटैशियम नाइट्रेट और कृषि तथा औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात करके अच्छी कमाई करते थे।

बंगाल की राजनीतिक पृष्ठभूमि

जिस समय मुग़ल शासक फर्रुखसियर ने अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को 1717 में मुक्त व्यापार की अनुमति दी थी, उस समय बंगाल के सूबेदार मुर्शिद कुली खां ( 1717 – 1727 ) थे, और वे मुगलों को समय-समय पर अपनी तरफ से नज़राना भी भेजते रहते थे। जैसे की मुगलों ने अंग्रेजों को भी मुक्त व्यापार करने की बंगाल में अनुमति दे दी थी, इसलिए बंगाल की राजनीतिक शक्तियों और अंग्रेजों में इस वजह से थोड़ा-थोड़ा संघर्ष भी होता रहता था। 

मुर्शिद कुली खां के बाद शुजाउद्दीन 1727 से 1739 तक सूबेदार के पद पर रहते हैं और उनके बाद सरफ़राज़ 1739 से 1740 तक सूबेदार के पद पर रहते हैं। सरफ़राज़ के समय पर एक घटना होती है, जो बंगाल की राजनीति को बदल देती है। 

उस समय एक सेनानायक था जिसका नाम अलवर्दी खां था, वह सत्ता पाने के लिए सूबेदार सरफ़राज़ की हत्या कर देता है और 1740 में बंगाल की सत्ता अपने हाथों में ले लेता है। अलवर्दी खां ने मुगलों को 2 करोड़ का नज़राना भी भेजा था ताकि मुगल उससे कुछ न कहें और ऐसा हुआ भी मुगलों की तरफ से यह नज़राना स्वीकार कर लिया गया और फिर अलवर्दी खां बंगाल की शासन व्यवस्था सभांलने लग गया था। 

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी

अलवर्दी खां बंगाल की सत्ता पर 1740 से लेकर 1756 तक रहता है और अपने इस काल में वह बंगाल को एक अलग क्षेत्र अर्थात मुगलों से आज़ाद क्षेत्र बनाने का प्रयास करता है। इस क्रम में वह अपने काल में जो सबसे पहली बार 2 करोड़ का नज़राना उसने मुगलों को भेजा था, उसके बाद उसने कभी भी मुगलों को नज़राना नहीं भेजा था। 

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को भी बंगाल में मुगलों की तरफ से मुक्त व्यापार की अनुमति मिली थी, इसलिए वे भी अपने व्यापार का विस्तार बंगाल में बढ़-चढ़कर कर रहे थे। अंग्रेजों के इस विस्तार और उनकी बंगाल में मजबूत हो रही स्थिति पर अलवर्दी खां की नज़र भी थी, जिसके बाद उसने इन यूरोपीय कंपनियों को “मधुमक्खी के छत्ते” की संज्ञा दी थी। 

इसका तात्पर्य यह था की जैसे मधुमक्खी के छत्ते से अगर प्यार से शहद निकाला जाए तो कोई दिक्कत नहीं होती, लेकिन अगर उनको चोट पहुंचाई जाए तो वे मधुमक्खियां जानलेवा भी हो सकती हैं और ये यूरोपीय कंपनियां भी कुछ इसी प्रकार की थीं। 

1756 में अलवर्दी खां की मृत्यु हो जाती है और उसके बाद सत्ता पर कौन आएगा इसको लेकर प्रश्न खड़े हो जाते हैं, क्यूंकि अलवर्दी खां की सारी संतानों में उसका एक भी पुत्र नहीं था। उसकी तीन बेटियां थी और उनके भी विवाह हो चुके थे, पटना, ढाका और पुरनिया में उसकी तीनों बेटियों की शादी हो चुकी थी। 

अलवर्दी खां का कोई भी पुत्र न होने के कारण उसकी जिस बेटी का विवाह पटना में हुआ था, उस बेटी के पुत्र को अलवर्दी खां के बाद बंगाल की सत्ता प्राप्त हो गई थी अर्थात अलवर्दी खां के नाती को उसकी गद्दी प्राप्त हो गई थी और उसका नाम “सिराजुद्दौला था। सिराजुद्दौला को 1756 में बंगाल की सत्ता प्राप्त होती है, उसके सत्ता में आने के बाद बहुत सारे लोगों में जलन की भावना पैदा होने लगती है। 

अलवर्दी खां की तीन बेटियाँ थी, जिसमे से एक बेटी के पुत्र  सिराजुद्दौला को बंगाल की सत्ता प्राप्त हो जाती है, जिस कारण अलवर्दी खां की बाकी दो बेटियाँ यानी की सिराजुद्दौला की मौसियां इससे जलने लगती है और वे चाहती थी की सिराजुद्दौला की जगह उन्हें सत्ता प्राप्त हो जाए। इसके साथ-साथ सिराजुद्दौला के दरबार में भी बहुत लोग ऐसे थे जिनसे सिराजुद्दौला की नहीं बनती थी।   

इस प्रकार सिराजुद्दौला के विरोध में बहुत सारे लोगों के होने के कारण और एक प्रकार से आंतरिक कलह होने के कारण, उसके सत्ता खोने के बहुत सारे मार्ग बनने लग गए थे। अंग्रेजों ने भी इस बंगाल की सत्ता के लिए आंतरिक कलह को भाँप लिया था और वे भी इस आंतरिक कलह से कोई न कोई मौका ढूंढ़कर इससे अपना फ़ायदा लेना चाहते थे और यही अंग्रेजों की प्रमुख नीतियों में से एक थी जिस कारण उन्होंने सिर्फ बंगाल ही नहीं लगभग पूर्ण भारत पर ही अपना कब्ज़ा कर लिया था। 

सिराजुद्दौला और अंग्रेजों का संघर्ष

बंगाल के महत्व को देखते हुए कंपनी ने कलकत्ता में अपने क़िलों का विस्तार करना शुरू कर दिया और अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी। इसी क्रम में ये कंपनियां अपनी-अपनी किलेबंदी का कार्य शुरू कर देते हैं और सिराजुद्दौला ने इन कंपनियों के विस्तार को रोकने के लिए इन्हें अपनी-अपनी किलेबंदी के कार्य को रोकने का आदेश दे दिया था। 

सिराजुद्दौला के किलाबंदी का कार्य रोकने के इस आदेश को फ्रांसीसी कंपनी द्वारा मान लिया जाता है, परन्तु ब्रिटिश ने नवाब के इस आदेश पर ध्यान न देते हुए अपना विस्तार जारी रखा। और अपने इस किलेबंदी के कार्य को बंद नहीं करती है। जिस किलेबंदी का कार्य अंग्रेजी कंपनी कर रही थी उसका नाम फोर्ट विलियम था, जिसका कार्य कलकत्ता में चल रहा था। 

अपने आदेश की अवहेलना के बाद नवाब ने कलकत्ता पर हमला किया और ब्रिटिश क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया। और ब्रिटिश क़ैदियों को फ़ोर्ट विलियम के तहख़ाने में क़ैद कर दिया गया। इस आक्रमण और अंग्रेजी कंपनी की पराजय की सूचना मद्रास में ब्रिटिश गवर्नर रॉबर्ट क्लाइव  को प्राप्त होती है और वे अपनी सेना बंगाल में मदद के लिए भेज देते हैं। 

ब्लैक होल (काल कोठरी) की घटना (20 जून, 1756)

सिराजुद्दौला के अंग्रेजी कंपनी को हराने के बाद ब्रिटिश क़िलों पर क़ब्ज़ा कर लिया गया। और ब्रिटिश क़ैदियों को फ़ोर्ट विलियम के तहख़ाने में क़ैद कर दिया गया। इसके पश्चात एक अंग्रेजी सेनानायक जिनका नाम जॉन सपन्याह होलवेल था, उन्होंने अपनी एक बात दुनिया के सामने रखी थी। 

उन्होंने बताया कि सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों के साथ बहुत गलत किया है, उन्होंने अपनी बात में बताया की सिराजुद्दौला ने लगभग 146 अंग्रेजों को एक 14×18 के कमरे में बंद कर दिया था। इस 14×18 के कमरे को सिराजुद्दौला ने अगली सुबह खुलवाया और दम घुटने की वजह से उस कमरे में केवल 23 अंग्रेज ही बच पाए थे और उन 23 जीवित बचे अंग्रेजों में से जॉन सपन्याह होलवेल भी एक व्यक्ति थे। 

यह घटना 20 जून, 1756 को घटित हुई थी और इस घटना को ब्लैक होल के नाम से जाना जाता है, इसके साथ-साथ इसे कालकोठरी की घटना कहकर भी संबोधित किया जाता है। इस घटना को सत्य मानने के ऊपर अलग-अलग इतिहासकारों के अलग-अलग मत है, कुछ इतिहासकार इस घटना को सत्य मानते हैं और कुछ इतिहासकार इस घटना को अंग्रेजों की सिराजुद्दौला के विरुद्ध एक नकली कहानी के रूप में मानते हैं। 

इस प्रकार दो बाते सामने निकल कर आती है, या तो सिराजुद्दौला ने सत्य में इस घटना को अंजाम दिया था और या तो अंग्रेजों ने उसके विरुद्ध कोई झूठी कहानी बुनी थी ताकि वह दुनिया के सामने गलत दिख सके। 

प्लासी के युद्ध के लिए इस घटना को एक प्रकार से युद्ध का तात्कालिक कारण के रूप में भी देखा जाता है। जब सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों को हराया था तो दोनों पक्षों में अलीनगर की संधि भी होती है, अलीनगर कलकत्ता का पुराना नाम था और यह नाम सिराजुद्दौला द्वारा दिया गया था। इस संधि में दोनों पक्षों ने यह निर्णय लिया था की दोनों पक्ष एक दूसरे के कार्यों या आंतरिक मामलों में कोई दखलअंदाज़ी नहीं करेंगे।

मीर जाफ़र का विश्वासघात और प्लासी का युद्ध (23 जून 1757)

सिराजुद्दौला से हार और ब्लैक होल की घटना के बाद अंग्रेज सिराजुद्दौला से बदला और उसके क्षेत्र पर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए रास्ते खोजने लग गए थे। अंग्रेजों ने अलीनगर की संधि से उलट अपने कार्यों को किया। और उधर सिराजुद्दौला के सत्ता प्राप्त करने से बहुत सारे लोगों में जलन पैदा होने लग गई थी, जिसमे उसकी दोनो मौसियां और उसके दरबारी भी शामिल थे। 

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी

सिराजुद्दौला की इस आंतरिक कलह को अंग्रेजों ने अपना अवसर बना लिया और अपनी कूटनीति का प्रयोग करते हुए सिराजुद्दौला के विरुद्ध लोगों को अपने साथ मिला लिया था। अंग्रेजों और सिराजुद्दौला के विरुद्ध लोगों ने मिलकर सिराजुद्दौला के खिलाफ आंतरिक षड्यंत्र रचा था। 

अंत में अंग्रेजों और सिराजुद्दौला के बीच बंगाल के प्लासी नामक स्थान में “प्लासी का युद्ध” हुआ था, यह युद्ध 23 जून 1757 को हुआ था और जैसे की सिराजुद्दौला के विरुद्ध बहुत सारे लोग थे जिन्होंने सिराजुद्दौला को धोखा देकर अंग्रेजों का साथ दिया था, इस कारण यह प्लासी का युद्ध थोड़े ही समय में समाप्त भी हो गया था। 

ईस्ट इंडिया कंपनी ने नवाब की सेना से निपटने के लिए उसके सेनापति मीर जाफर को नवाब बनाने का लालच दिया और अपने साथ मिला लिया। 23 जून 1757 को प्लासी में ईस्ट इंडिया कंपनी और नवाब सिराजुद्दौला की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ। इस युद्ध को प्लासी का प्रथम युद्ध के रूप में जाना गया।

प्लासी के इस युद्ध में ब्रिटिश के पास तोपों की अधिकता और मीर जाफ़र का अपने नवाब के साथ विश्वासघात के कारण अंग्रेज़ विजयी हुए।

इस प्लासी के युद्ध में जिन लोगों ने सिराजुद्दौला को धोखा देकर अंग्रेजों का साथ दिया था, वे कुछ इस प्रकार हैं:

  • मीर ज़ाफर – सिराजुद्दौला का सेनापति
  • घसीटी बेगम – सिराजुद्दौला की मौसी
  • राय दुर्लभ – दीवान
  • जगत सेठ – बैंकर, एक धनाढ व्यक्ति
  • अमीनचंद – व्यापारी

इतने सारे लोगों के धोखा देने के क्रम में दो सेनानायक ऐसे थे जिन्होंने सिराजुद्दौला का इस प्लासी के युद्ध में सहयोग किया था और उनका नाम मीर मदान और मोहन लाल था। 

इस युद्ध में अंग्रेजों की जीत के बाद सिराजुद्दौला को जान से मार दिया जाता है और अंग्रेज उसके सेनापति मीर ज़ाफर, जिसने सिराजुद्दौला को इस युद्ध में धोखा और अंग्रेजों का साथ दिया था, उसे अंग्रेज बंगाल का नवाब बना देते हैं। प्लासी के युद्ध में ब्रिटिश गवर्नर रॉबर्ट क्लाइव  ने अंग्रेजी कंपनी की सेना का नेतृत्व किया था। इस प्रकार बंगाल की सत्ता का मोह और आंतरिक कलह अंग्रेजों के लिए एक बहुत बड़ा अवसर साबित हो जाता है।

मीर जाफ़र को बंगाल के सिंहासन पर बैठा तो दिया गया, परन्तु मीर जाफर सिर्फ नाम का ही नवाब था। और अंग्रेज उससे अपनी मनमानी करते थे। इसी क्रम में अंग्रेज़ अब मीर जाफ़र से मालगुज़ारी भी वसूलने लगे। इस प्रकार भारत में लूटपाट का युग आरंभ हुआ। इस प्रकार से जब ख़ज़ाना ख़ाली होने लगा, तो मीर जाफ़र ने कंपनी से पीछा छुड़ाने के लिए डच सेना की मदद ली। परन्तु ब्रिटिश उसको इसमे सफल नहीं होने दिए। और फिर ब्रिटिश व मीर कासिम के मध्य सन्धि होती है ।

ब्रिटिश व मीर कासिम के मध्य सन्धि

 27 सितम्बर, 1760 को अंग्रेज़ों एवं मीर कासिम के मध्य एक संधि हुई, जिसके आधार पर मीर कासिम ने कम्पनी को बर्दवान, मिदनापुर तथा चटगांव के ज़िले देने की बात मान ली और इसके साथ ही दक्षिण के सैन्य अभियान में कम्पनी को 5 लाख रुपये देने की की बात कही। सन्धि की अन्य शर्ते निम्नलिखित थीं-

  • मीर कासिम ने सिल्हट के चूने के व्यापार में कम्पनी के आधे भाग को स्वीकार किया।
  • मीर कासिम ने कम्पनी के मित्र अथवा शत्रु को अपना मित्र अथवा शत्रु मानना स्वीकार किया।
  • दोनों पक्षों ने एक दूसरे के आसामियों को अपने-अपने प्रदेशों में बसने की छूट दी।
  • कम्पनी नवाब के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी।

1759 में और फिर 1764 में विजय के बाद कंपनी ने बंगाल का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया।सन 1760 ई. में अंग्रेजों ने मीर जाफ़र को नवाब पद से हटा दिया और उसकी जगह पर मीर कासिम को 1760 ई. में बंगाल का नवाब बनाया जो से 1764 ई. तक बंगाल का नवाब रहा।

मीर कासिम को अंग्रेजों ने बंगाल का नवाब तो बना दिया, परन्तु वह ब्रिटिश के हाथों की कठपुतली बनकर रह गया था। ब्रिटिश उससे शासन अपने अनुसार कराते थे। जो एक तरह का द्वैद शासन था। बंगाल में द्वैद शासन राबर्ट क्लाइव ने शुरू किया। नये-नये करों का बोझ लादा और बंगाल का सामान सस्ते दामों में ख़रीदकर दूसरे देशों में महंगे दामों में बेचने लगे। स्कॉलर वजाहत मसूद लिखते हैं कि अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ब्रिटेन व्यापारी चाँदी के सिक्के देकर भारतीयों से कपास और चावल ख़रीदते थे।

परन्तु प्लासी की लड़ाई के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी ने वित्त और राजस्व की प्रणाली की सहायता से भारत के साथ व्यापार पर एकाधिकार स्थापित कर लिया। यह व्यवस्था की गई थी कि भारतीयों से प्राप्त राजस्व का लगभग एक तिहाई भारतीय उत्पादों को ख़रीदने में ख़र्च किया जाएगा। इस प्रकार भारत के लोग जो राजस्व देते थे उसके एक तिहाई के बदले उन्हें अपना उत्पाद बेचने के लिए मजबूर किया जाता था।

मीर कासिम ने अंग्रेजों की सहमति लिए बिना ही बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर कर दिया। और कुछ अन्य फैसले खुद से ही लेने लगा। जिससे अंग्रेज काफी नाराज हुए।

बक्सर युद्ध का कारण

अंग्रेजों के द्वारा प्लासी का युद्ध जीतने के बाद मीर ज़ाफर को 1757 में बंगाल का नवाब बना दिया जाता है। अंग्रेजों ने प्लासी का युद्ध मीर ज़ाफर को नवाब बनाने के लिए नहीं बल्कि अपने स्वार्थ के लिए लड़ा था, इसलिए मीर ज़ाफर अंग्रेजों का मात्र एक कठपुतली नवाब के रूप में कार्य कर रहा था यानी की सिर्फ नाम का शासक था।  बंगाल की सत्ता ब्रिटिश ही वास्तविक रूप से चला रहे थे, और इसी क्रम में ब्रिटिश का स्वार्थ और ज्यादा बढ़ने लग गया था और मीर ज़ाफर के रहते हुए वह पूरा नहीं हो पा रहा था। 

इसके कुछ ही समय बाद मीर ज़ाफर का एक दामाद होता है जिसका नाम मीर कासिम होता है, उसे बंगाल की सत्ता का मोह हो जाता है और वह अंग्रेजों से बात करता है की अगर वे उसे बंगाल का नवाब बना देते हैं तो वह उन्हें और भी ज्यादा उनका कार्य करने की स्वतंत्रता प्रदान करेगा। मीर कासिम का यह प्रस्ताव अंग्रेजों ने स्वीकार कर लिया और 1760 में मीर ज़ाफर को हटाकर मीर कासिम को अंग्रेजो ने बंगाल का नवाब बना दिया था। 

अन्ततः मीर कासिम ने व्यापार पर से सभी आन्तरिक कर हटा लिए, जिससे भारतीय व्यापारियों की स्थिति अंग्रेज़ व्यापारियों की तरह ही हो गई। मीर कासिम के इस निर्णय से अंग्रेज़ अधिकारी स्तब्ध रह गये। सम्भवतः उसका यही निर्णय कालान्तर में बक्सर के युद्ध का कारण बना। बक्सर के युद्ध से पहले मीर कासिम अंग्रेज़ों से निम्नलिखित युद्धों में पराजित हुआ-

  • गिरिया का युद्ध – 4 सितम्बर अथवा 5 सितम्बर, 1762 ई.
  • करवा का युद्ध – 9 जुलाई, 1763 ई.
  • उद्यौनला का युद्ध – 1763 ई.

अंग्रेजों की इच्छा थी की मीर कासिम भी मीर ज़ाफर की तरह ही उनकी कठपुतली की तरह कार्य करे, लेकिन मीर कासिम ने अंग्रेजों के विरुद्ध कार्य करे और उनसे अलग होके अपने स्वतंत्र कार्य करे और वे कार्य कुछ इस प्रकार है:

  • मीर कासिम ने उस समय की बंगाल की राजधानी जो मुर्शिदाबाद हुआ करती थी उसको मुंगेर में स्थानांतरित करके अपनी राजधानी मुंगेर को बना लिया था।
  • उस समय बंगाल क्षेत्र में अंग्रेजों के द्वारा व्यापारिक मामलों में टैक्स संबंधी चीजों को लेकर भेद-भाव भी होता था जैसे की यूरोपीय व्यापारियों को टैक्स में बहुत सी छूट मिलती थी और भारतीय व्यापारियों को यह छूट नहीं दी जाती थी। ऐसे में मीर कासिम ने भारतीय व्यापारियों को भी इन व्यापारिक मामलों में काफी छूट दी, जिस कारण अंग्रेज उससे काफी नाखुश थे।
  • मीर कासिम द्वारा इन टैक्स संबंधी मामलों में काफी सुधार किए गए थे। 
  • इन सभी कार्यों को देखते हुए अंग्रेज इस नतीजे पर पहुँचते हैं की मीर कासिम उनकी कठपुतली की तरह कार्य नहीं कर रहा है और वह अपनी इच्छाओं के अनुसार ही कार्य कर रहा है, इसलिए ब्रिटिश कंपनी उसे नवाब के पद से हटाने पर विचार करने लगती है।  

पटना कांड 1763 ई.

इसी क्रम में 1763 में एक घटना होती है जिसे “पटना कांड” के नाम से संबोधित किया जाता है। इस घटना में यह हुआ था की जैसे की हमने ऊपर जाना की मीर कासिम अंग्रेजों से अलग होकर उनके विरुद्ध बहुत सारे कार्य करे जा रहा था जिससे अंग्रेज उससे नाखुश थे। ऐसे में एक अंग्रेजी सैनिक था जिसका नाम एलिस था, 1763 में उसके नेतृत्व में पटना में मीर कासिम के खिलाफ आक्रमण कर दिया जाता है।

परंतु इस आक्रमण में अंग्रेजों की पराजय होती है और एलिस की इस आक्रमण में मृत्यु भी हो जाती है। इस आक्रमण में पराजय के बाद अंग्रेज तुरंत ही मीर कासिम को उसके इस अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण बंगाल के नवाब के पद से हटा देते है और अंग्रेजी कंपनी दुबारा से मीर ज़ाफर को ही 1763 में बंगाल का नवाब बना देती है।

बक्सर का युद्ध 1764 ई.

जब अंग्रेजों के द्वारा पटना कांड के बाद मीर कासिम को नवाब के पद से हटा के दुबारा मीर ज़ाफर को बंगाल का नवाब बना दिया जाता है, तब मीर कासिम दुबारा बंगाल की सत्ता को पाने और अंग्रेजों से बदला लेने के लिए योजना बनाता है। इसी क्रम में वह मदद मांगने हेतु अवध के क्षेत्रों में जाता है और उस समय दिल्ली में मुगल शासक शाह आलम द्वितीय शासन कर रहे थे और इसके साथ-साथ उस समय अवध के नवाब शुजाउद्दौला थे। 

मीर कासिम अवध के नवाब शुजाउद्दौला के पास मदद मांगने हेतु जाता है जहां पर मुग़ल शासक शाह आलम द्वितीय भी मौजूद रहते हैं, इन दोनों ने मीर कासिम की मदद के लिए उसकी प्रार्थना स्वीकार करी थी और तीनों में अंग्रेजों से सामना करने की संधि होती है। इसी क्रम में अंग्रेज भी बिहार क्षेत्र में पहुँच जाते हैं। 

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी | 1600 ई. - 1858 ई.

तब इन तीनों अर्थात मुग़ल शासक शाह आलम द्वितीय, अवध का नवाब शुजाउद्दौला और मीर कासिम के साथ अंग्रेजों का 22 अक्टूबर, 1764 में बिहार के बक्सर नामक क्षेत्र में “बक्सर का युद्ध” होता है। प्लासी के युद्ध में धोखा, षड्यंत्र और कूटनीति जैसी चीजें उस युद्ध का आधार थी, परंतु इस युद्ध में कोई कूटनीति और षड्यंत्र जैसी चीजें इस युद्ध का आधार नहीं थी, बल्कि यह एक सीधा आमने-सामने का युद्ध था। 

इस युद्ध में अंग्रेजों ने इन तीनों को पराजित कर दिया था और इस युद्ध के बाद यह भी तय हो गया था की अब अंग्रेज ही भारत में अपनी प्रधानता बनाएंगे क्यूंकि जिन तीनों को अंग्रेजों ने बक्सर के युद्ध में हराया था, इस युद्ध से पहले इन तीनों की ही लगभग पूरे भारत में प्रधानता थी और इस युद्ध के बाद अंग्रेजों की शक्ति भारत में बहुत बढ़ गई थी। 

उस समय के तत्कालीन अंग्रेजी कमांडर हेक्टर मुनरो और मीर कासिम के बीच सन 1764 ई. में बक्सर के मैदान में यह युद्ध होता है, इसलिए इसे बक्सर का युद्ध के नाम से जाना जाता है। बक्सर का युद्ध में मीर कासिम के साथ अवध के नवाब शुजदुदौला तथा शाह आलम -II थे। जो अंग्रेजी कमांडर हेक्टर मुनरो के खिलाफ लड़े ।

बक्सर के युद्ध में जीत के बाद अंग्रेजों ने दोबारा रॉबर्ट क्लाइव को बंगाल का गवर्नर बना दिया था। 

  • इस युद्ध के बाद सन 1765 ई. में अंग्रेज और शाह आलम के मध्य एक संधि होती है जिसे इलाहबाद की संधि-I (प्रथम ) के नाम से जाना जाता है।
  • पुनः अगस्त 1765 ई. में एक और संधि अंग्रेज और शुजदुदौला के मध्य होती है जिसे इलाहबाद की संधि-II (द्वितीय ) के नाम से जाना जाता है।
  • इस संधि के बाद बंगाल में अंग्रेजो का बंगाल में द्वैद शासन समाप्त हो जाता है और अंग्रेज पूरी तरह से बंगाल पर शासन करने लगते हैं ।

इलाहाबाद की संधि 

बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों की जीत के बाद मुगलों और अवध के नवाब के साथ अंग्रेजों ने “इलाहाबाद की संधि” करी थी, इस संधि के अंतर्गत दो अलग-अलग संधियाँ हुई थी, जैसे की अंग्रेजों की मुगलों से अलग संधि और अंग्रेजों की अवध के नवाब के साथ अलग संधि और वे संधियाँ कुछ इस प्रकार है:

अंग्रेज – मुगल संधि 

यह संधि 12 अगस्त, 1765 को अंग्रेजों और मुगलों के बीच हुई थी, इस संधि में जो शर्तें थी वे कुछ इस प्रकार हैं:

  • अब से पूर्णतः बंगाल, बिहार और ओडिशा पर अंग्रेज अपना कार्य कर सकते हैं, दोस्तों हमने हमारे पिछले बहुत सारे आर्टिकल्स में यह भी जाना था की 1717 में मुगल शासक फर्रुखसियर द्वारा ये क्षेत्र अंग्रेजों को कुछ छूटों के साथ मिले हुए थे लेकिन इस संधि के बाद ये क्षेत्र पूर्णतः अंग्रेजों को मिल गए थे। 
  • अवध क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले इलाहाबाद और कोरान नामक स्थान मुगलों को दे दिए गए थे। 
  • इसके साथ-साथ 26 लाख रुपए की वार्षिक पेंशन शाह आलम द्वितीय को देने की बात हुई थी।

अंग्रेज – अवध के नवाब की संधि 

यह संधि 16 अगस्त, 1765 को अंग्रेजों और अवध के नवाब के बीच हुई थी, इस संधि में जो शर्ते थी वे कुछ इस प्रकार हैं:

  • इस संधि के अंतर्गत अवध के नवाब को अंग्रेजों को 50 लाख का जुर्माना देना पड़ता है, क्यूंकि वह एक तरह से बिना कोई वजह से इस युद्ध में शामिल हुआ था। 
  • इलाहाबाद और कोरान नामक क्षेत्रों को अवध से लेकर मुगलों को दे दिए गए थे। 

द्वैध शासन प्रणाली

बक्सर के युद्ध में जीत के बाद अंग्रेजों की इच्छाएं और ज्यादा बढ़ने लगती है और वे बंगाल से अपना पूरा फायदा लेने के बारे में सोचते हैं और इसलिए रॉबर्ट क्लाइव  द्वारा बंगाल में 1765 में “द्वैध शासन प्रणाली” को लागू कर दिया जाता है। इस द्वैध शासन प्रणाली में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी कार्यों का सारा बोझ बंगाल के नवाब के ऊपर ड़ाल देती है और राजस्व के सारे अधिकार अपने पास रख लेती है।जैसे टैक्स वसूलना और व्यापार करना आदि। 

इस कारण सारी प्रशासन संबंधी जिम्मेदारियां नवाब को करनी होती थी और अंग्रेजी कंपनी सिर्फ अपना पैसों का भंडार भरने में लगी थी, जिस कारण बंगाल बर्बाद हो रहा था। बाद में यह व्यवस्था 1773 रेगुलेटिंग एक्ट के माध्यम से बंद करी गई थी और उस समय बंगाल के गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स थे। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने वॉरेन हेस्टिंग्स को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रथम गवर्नर जनरल नियुक्त किया था।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन

इतिहासकार, आलोचक और पत्रकार बारी अलीग ने अपनी पुस्तक ‘कंपनी की हुकूमत’ में लिखा है, “दुनिया के प्रत्येक देश के व्यापारी भारत के साथ व्यापार करते थे. सभ्य लोगों के बीच, ढाका और मुर्शिदाबाद के मलमल का उपयोग महानता और श्रेष्ठता का प्रमाण माना जाता था। यूरोप के सभी देशों में इन दोनों शहरों के मलमल और चिकन बहुत लोकप्रिय थे।”

भारत के अन्य उद्योगों की तुलना में कपड़ा उद्योग काफ़ी बेहतर स्थिति में था। भारत से सूती और ऊनी कपड़े, शॉल, मलमल और कशीदाकारी का निर्यात किया जाता था। अहमदाबाद अपने रेशम और रेशम पर किए जाने वाले सोने-चाँदी के काम के लिए दुनिया भर में मशहूर था. अठारहवीं सदी में इंग्लैंड में इन कपड़ों की इतनी अधिक माँग थी कि सरकार को इन पर रोक लगाने के लिए भारी कर लगाना पड़ा।

कपड़ा बुनाई के अलावा लोहे के काम में भी भारत काफ़ी प्रगति कर चुका था। लोहे से बना सामान भी भारत से बाहर भेजा जाता था। मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान मुल्तान में जहाज़ों के लिए लोहे का लंगर बनाया जाता था। बंगाल ने जहाज़ निर्माण में काफ़ी प्रगति की थी।

एक अंग्रेज़ के शब्दों में, “आम अंग्रेज़ों को समझाना मुश्किल है कि हमारे शासन से पहले भारतीय लोग काफ़ी सुखद जीवन व्यतीत कर रहे थे। व्यापारी और साहसी लोगों के लिए विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध थीं। मुझे पूरा विश्वास है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय व्यापारी बहुत ही आरामदायक जीवन जी रहे थे।”

“औरंगज़ेब के शासनकाल के दौरान सूरत और अहमदाबाद से जो उत्पाद निर्यात किया जाता था, उससे क्रमश: तेरह लाख और एक सौ से तीन लाख रुपये की वार्षिक राजस्व की वसूली होती थी। “ईस्ट इंडिया कंपनी एक व्यापारिक कंपनी थी लेकिन उसके पास ढाई लाख सैनिकों की एक फौज थी।

जहाँ व्यापार से लाभ की संभावना नहीं होती, तो वहाँ सेना उसे संभव बना देती। कंपनी की सेना ने अगले पचास वर्षों में भारत के अधिकांश हिस्से पर क़ब्ज़ा कर लिया। उन क्षेत्रों पर कंपनी को राजस्व देने वाले स्थानीय शासक शासन करने लगे। प्रत्यक्ष रूप से सत्ता स्थानीय शासकों के हाथों में थी, लेकिन राज्य का अधिकांश राजस्व ब्रिटिश तिजोरियों में जाता था।

अगस्त 1765 में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने मुग़ल बादशाह शाह आलम को हराया। लॉर्ड क्लाइव ने पूर्वी प्रांतों बंगाल, बिहार और उड़ीसा की ‘दीवानी’ अर्थात् राजस्व वसूलने और जनता को नियंत्रित करने का अधिकार 26 लाख रुपये वार्षिक के बदले हासिल कर लिया। इसके बाद भारत कंपनी के शासन के अधीन आ गया।

इतिहासकार सैयद हसन रियाज़ के अनुसार उस दौर में जनता के बीच यह धारणा प्रचलित थी, “दुनिया ख़ुदा की, मुल्क बादशाह का और हुक्म कंपनी बहादुर का।”

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत पर अधिकार करने में सफल होने का कारण

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत पर अधिकार करने में सफल होने के पीछे के कारण इस प्रकार है

शाही परिवार की विलासिता

मुग़लिया शासन के अंतिम दौर में शासकों द्वारा जनता का ख़ून निचोड़कर जो धन संपदा एकत्र की जाती थी वह शाही परिवार की विलासिता में ख़र्च हो जाता था। मुग़ल शहज़ादे जिन्हें सुल्तान कहा जाता था, वे अपने आलस्य, निष्क्रियता, कायरता और विलासिता के लिए विख्यात थे।

इतिहासकार डॉक्टर मुबारक अली अपनी पुस्तक ‘आख़िरी अहद का मुग़लिया हिंदुस्तान’ में लिखते हैं कि “सन 1948 में नृत्य और सरोद की महफ़िलों में सब कुछ लुटा देने वाले नाकारा सुल्तानों की संख्या 2104 तक पहुँच गई थी। शाह आलम का बेटा अकबर भी कामुकता में अपने बाप से कम नहीं था। अठारह वर्ष की आयु में वह अठारह बेग़मों का शौहर था।”

अठारहवीं शताब्दी में, 1769 से 1773 तक बिहार से लेकर बंगाल तक का दक्षिणी क्षेत्र अकाल से प्रभावित था। एक अनुमान के अनुसार अकाल से लाखों लोगों की मौत हुई। गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स की एक रिपोर्ट के अनुसार एक-तिहाई आबादी भुखमरी से मर गई। मौसम की प्रतिकूल स्थिति के अलावा ग्रामीण आबादी कंपनी द्वारा लगाए गए भारी कर के कारण कंगाल हो गई थी।

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार बंगाल का अकाल मानव निर्मित था। किसी भी तरह के विवाद की स्थिति में ईस्ट इंडिया कंपनी स्थानीय शासकों को अपनी सेना किराए पर उपलब्ध कराती थी। लेकिन इन सैन्य ख़र्चों के बोझ की वजह से वे जल्द ही कंगाल हो जाते और उन्हें अपना शासन गँवाना पड़ता।

मानवीय त्रासदियों से उठाया फायदा

इस तरह, कंपनी लगातार अपने क्षेत्र का विस्तार करती जाती। कंपनी ने मानवीय त्रासदी से भी लाभ उठाया। जो चवाल एक रुपये का 120 सेर मिलता था, वह बंगाल के अकाल के दौरान एक रुपये में केवल तीन सेर मिलने लगा।

एक जूनियर अधिकारी ने इस तरह 60,000 पाउंड का लाभ कमाया। ईस्ट इंडिया कंपनी के 120 वर्षों के शासनकाल के दौरान 34 बार अकाल पड़ा।

मुग़ल शासन के अंतर्गत अकाल के दौरान लगान (कर) को कम कर दिया जाता था, लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने अकाल के दौरान लगान में वृद्धि की। लोग रोटी के लिए अपने बच्चों को बेचने लगे।

ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी शेख़ दीन मुहम्मद का यात्रा वृतांत

ईस्ट इंडिया कंपनी के एक कर्मचारी शेख़ दीन मुहम्मद ने अपने यात्रा वृतांत में लिखा है कि “सन 1780 के आसपास जब हमारी सेनाएँ आगे बढ़ रही थीं, तो हमने कई हिंदू तीर्थयात्रियों को देखा जो सीता कुंड जा रहे थे।15 दिनों में हम मुंगेर से भागलपुर पहुँच गए।”

“हमने शहर के बाहर शिविर लगाया। यह शहर औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण था और व्यापार की रक्षा के लिए इसके पास अपनी एक सेना भी थी। हम चार-पाँच दिन वहाँ ठहरे। हमें पता चला कि ईस्ट इंडिया कंपनी का कैप्टन ब्रुक, जो सैनिकों की पाँच कंपनियों का प्रमुख था, वह भी पास में ही ठहरा हुआ है। उसे कभी-कभार पहाड़ी आदिवासियों का सामना करना पड़ता।”

“ये पहाड़ी लोग भागलपुर और राजमहल के बीच की पहाड़ियों पर रहते थे और वहाँ से गुज़रने वाले यात्रियों को परेशान करते थे। कैप्टन ब्रुक ने उनमें से बहुत सारे लोगों को पकड़ लिया और उन्हें एक मिसाल बना दिया। कुछ लोगों को सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गए और कुछ को इस तरह से फाँसी पर लटकाया गया कि पहाड़ों से साफ़ तौर पर दिखाई दे ताकि उनके साथियों के दिलों में दहशत बैठ जाए।”

“यहाँ से हम आगे बढ़े और हमने देखा कि पहाड़ी के सभी प्रमुख स्थानों पर हर आधे मील पर उनके शव लटके हुए हैं। हम सुकली गढ़ी और तलिया गढ़ी के रास्ते राजमहल पहुँचे, जहाँ कुछ दिनों तक रुके। हमारी सेना बहुत बड़ी थी लेकिन पीछे से व्यापारियों पर कुछ अन्य पहाड़ियों ने हमला कर दिया। हमारे सिपाहियों ने उनका पीछा किया।”

“कई लोगों को मार डाला गया और तीस या चालीस पहाड़ी लोगों को पकड़ लिया गया। अगली सुबह जब शहर के लोग हमेशा की तरह हाथी, घोड़े और बैलों का चारा लेने और जलाने के लिए लकड़ी ख़रीदने के लिए पहाड़ियों के पास गए, तो पहाड़ियों ने उन पर हमला कर दिया। सात या आठ लोग मारे गए। पहाड़ी अपने साथ तीन हाथी, कई ऊँट-घोड़े और बैल भी ले गए।

“हमारे हथियारबंद सैनिकों ने जवाबी कार्रवाई में बहुत से पहाड़ियों को मार डाला, जो तीर कमान और तलवारों से लड़ रहे थे, और दो सौ पहाड़ियों को हिरासत में ले लिया। उनकी तलवार का वज़न 15 पाउंड था और जो अब हमारी जीत की ट्रॉफ़ी बन चुकी थी। कर्नल ग्रांट के आदेश के अनुसार इन पहाड़ियों पर बहुत अत्याचार किया गया। कुछ के नाक और कान काट दिए गए। कुछ को फाँसी दे दी गई। इसके बाद हमने कलकत्ता की ओर अपना मार्च जारी रखा।”

टीपू सुल्तान से मिली चुनौती

केवल मैसूर के शासक टीपू सुल्तान ने फ़्रांस के तकनीकी सहयोग के साथ कंपनी का वास्तविक प्रतिरोध किया और कंपनी को दो युद्धों में हराया भी। लेकिन भारत के अन्य शासकों को अपने साथ मिलकार टीपू सुल्तान पर भी क़ाबू पा लिया गया। जब कंपनी के गवर्नर-जनरल लॉर्ड वेलेज़ली को 1799 में टीपू की मृत्यु की सूचना दी गई, तो उसने अपना गिलास हवा में उठाते हुए कहा कि आज मैं भारत की लाश पर जश्न मना रहा हूँ।

लॉर्ड वेलेज़ली के ही कार्यकाल में कंपनी को अपनी सैन्य विजय के बावजूद वित्तीय कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था। उसका क़र्ज़ बढ़कर 3 करोड़ पाउंड से भी अधिक हो चुका था। कंपनी के निदेशक ने वेलेज़ली के व्यर्थ ख़र्च के बारे में सरकार को लिखा और उन्हें ब्रिटेन वापस बुला लिया गया।

साल 1813 में, ब्रिटिश संसद ने भारत में व्यापार पर ईस्ट इंडिया कंपनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया और अन्य ब्रिटिश कंपनियों को व्यापार करने और कार्यालय खोलने की अनुमति दे दी।

औद्योगिक देश से कृषि देश बना भारत

ब्रिटेन के सदन ने 1813 में थॉमस मूनरो से पूछा, जिन्हें 1820 में मद्रास का गवर्नर बनाया गया था, कि औद्योगिक क्रांति के बावजूद ब्रिटेन के बने कपड़े भारत में क्यों नहीं बिक रहे, तो उन्होंने जवाब दिया कि भारतीय कपड़े कहीं अधिक गुणवत्ता वाले हैं।

लेकिन, फिर ब्रिटेन में बने कपड़ों को लोकप्रिय बनाने के लिए सदियों पुराने स्थानीय कपड़ा उद्योग को नष्ट कर दिया गया और इस तरह ब्रिटेन का निर्यात जो 1815 में 25 लाख पाउंड था वह 1822 में बढ़कर 48 लाख पाउंड हो गया।

ढाका, जो कपड़ा निर्माण का प्रमुख केंद्र था, उसकी जनसंख्या डेढ़ लाख से घटकर बीस हज़ार हो गई। गवर्नर-जनरल विलियम बैंटिक ने अपनी 1834 की रिपोर्ट में लिखा कि अर्थशास्त्र के इतिहास में ऐसी विकट परिस्थिति का कोई और उदाहरण नहीं मिल सकता। भारतीय बुनकरों की हड्डियों से भारत की धरती सफ़ेद हो गई है।

किसानों की आय पर 66 प्रतिशत कर लगा दिया गया जो मुग़ल काल में 40 प्रतिशत था. नमक सहित दैनिक उपयोग की वस्तुओं पर भी कर लगाया गया। इससे नमक की खपत आधी हो गई। कम नमक का उपयोग करने के कारण ग़रीबों के स्वास्थ्य पर इसका बुरा प्रभाव पड़ा तथा हैज़ा और लू से होने वाली मौतों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।

ईस्ट इंडिया कंपनी के एक निदेशक हेनरी जॉर्ज टकर ने 1823 में लिखा कि भारत को एक औद्योगिक देश की जगह एक कृषक देश में बदल दिया गया ताकि ब्रिटेन में निर्मित सामान भारत में बेचा जा सके।1833 में, ब्रिटिश संसद द्वारा एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कंपनी से व्यापार करने का अधिकार छीन लिया गया और इसे एक सरकारी निगम में बदल दिया गया।

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का पतन

विलियम डेलरिम्पल ने अपनी किताब ‘द अनार्की, द रिलेंटलेस राइज़ ऑफ़ द ईस्ट इंडिया कंपनी’ में लिखा है कि ये इतिहास का एक अनूठा उदाहरण है जिसमें अठारहवीं शताब्दी के मध्य में एक निजी कंपनी ने अपनी थल सेना और नौसेना की मदद से 20 करोड़ की आबादी वाले एक देश को ग़ुलाम बना दिया था।

कंपनी ने सड़कें बनाईं, पुल बनाए, सराय का निर्माण किया, रेल चलाई, मगर आलोचकों का कहना है कि इन परियोजनाओं ने जनता को परिवहन की सुविधाएँ तो दीं, लेकिन इसका असली उद्देश्य कपास, रेशम, अफ़ीम, चीनी और मसालों के व्यापार को बढ़ावा देना था। साल 1835 के अधिनियम के अंतर्गत अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए धन आवंटित किया गया था।

1857 के स्वतंत्रता संग्राम (कंपनी के अनुसार विद्रोह) के दौरान, कंपनी ने हज़ारों लोगों को बाज़ारों में और सड़कों पर लटकाकर मार डाला और बहुत से लोगों को कुचल डाला गया। यह ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार था। स्वतंत्रता संग्राम के अगले वर्ष एक नवंबर को ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने कंपनी के अधिकारों को समाप्त कर शासन की बागडोर सीधे तौर पर अपने हाथों में ले ली।

कंपनी की सेना का ब्रिटिश सेना में विलय कर दिया गया और कंपनी की नौसेना को भंग कर दिया गया। लॉर्ड मैकाले के अनुसार, कंपनी शुरू से ही व्यापार के साथ-साथ राजनीति में भी भागीदार थी, इसलिए कंपनी की आख़री साँसें 1874 तक चलती रही।उसी वर्ष, ब्रितानी अख़बार द टाइम्स ने दो जनवरी के अंक में लिखा, “इसने मानव जाति के इतिहास में ऐसा काम किया है, जैसा किसी और कंपनी ने नहीं किया और आने वाले सालों में कोई ऐसा करे इसकी संभवना भी नहीं है। भारत अब ब्रिटेन की महारानी के शासन के अधीन हो चुका था। और फिर ब्रिटिश राज की स्थापना की गयी ।


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